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वर्णन नहीं होता है, वैसे ही देह की विशेषताओं की स्तुति कर लेने से शुद्ध आत्मारूपी राजा की स्तुति नहीं हो पाती है (30)। अतः समयसार का शिक्षण है कि जैसे कोई भी धन का इच्छुक मनुष्य राजा को जानकर उस पर विश्वास करता है और तब उसकी बड़ी सावधानीपूर्वक सेवा करता है, वैसे ही परम शान्ति के इच्छुक मनुष्य के द्वारा आत्मारूपी राजा समझा जाना चाहिये तथा श्रद्धा किया जाना चाहिये और फिर निस्संदेह वह ही अनुसरण किया जाना चाहिये (17, 18)। 6. राजा के साथ सेना के समूह को निकलते देखकर सारी सेना को राजा कहना व्यवहार (बाह्यदृष्टि) है, वहाँ तो वास्तव में एक ही राजा है अन्य तो उसकी सेना का समूह है। ठीक इसी प्रकार जीव से भिन्न (राग आदि) अध्यवसान आदि परिणामों को 'जीव' कहना व्यवहारनय है, क्योंकि वे जीव के साथ है, किन्तु उन रागादि परिणामों में निश्चयनय से 'जीव' तो एक ही है (47-48)। 7. जीव में कोई वर्ण नहीं है उसमें कोई गंध भी नहीं है, उसमें कोई रस भी नहीं है, उसमें कोई स्पर्श भी नहीं है, उसमें कोई शब्द भी नहीं है (50)। जीव में राग नहीं है, उसमें द्वेष भी नहीं है, न ही उसमें मोह आदि (है) (51)। ये वर्ण आदि भाव व्यवहारनय से जीव के होते हैं, किन्तु निश्चयनय के मत में उनमें से कोई भी जीव के नहीं है (56)। यह समझा जाना चाहिए कि इन वर्णादि के साथ जीव का सम्बन्ध दूध और जल के समान अस्थिर है। वे वर्णादि उस जीव में स्थिररूप से बिल्कुल ही नहीं रहते हैं, क्योंकि जीव तो ज्ञान-गुण से ओतप्रोत होता है (57)।
मार्ग में व्यक्ति को लूटा जाता हुआ देखकर सामान्य लोग कहते हैं कि यह मार्ग लूटा जाता है, किन्तु वास्तव में कोई मार्ग लूटा नहीं जाता है, लूटा तो व्यक्ति जाता है (58)। उसी प्रकार संसार में व्यवहारनय के आश्रित लोग कहते हैं कि वर्णादि जीव के हैं (60), किन्तु वास्तव में वे देह के गुण हैं, जीव
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समयसार (खण्ड-1)