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________________ निश्चय-व्यवहार समझाने की अपूर्व पद्धतिः ___ आचार्यकुन्दकुन्दनेसाधारण/लौकिकमनुष्य और असाधारण/अलौकिक मनुष्य को समझाने के लिए यह पद्धति विकसित की है। इसके कुछ उदाहरण दिए जा रहे हैं1. व्यवहारनय (बाह्यदृष्टि/लोकदृष्टि/परदृष्टि) से कहा जाता है कि ज्ञानी के दर्शन, ज्ञान और चारित्र है। निश्चयदृष्टि (अन्तरदृष्टि/आत्मदृष्टि/स्वदृष्टि) से कहा जा सकता है कि आत्मा को एकत्वरूप से अनुभव करनेवाले के न दर्शन है , न ज्ञान है और न ही चारित्र है किन्तु वह तो एकमात्र शुद्ध ज्ञायक ही है (7)। 2. जो भाव श्रुतज्ञान (स्वसंवेदन/स्वानुभव) से शुद्धआत्मा को अनुभव करता है उसको महर्षि निश्चय श्रुतकेवली कहते हैं। जो समस्त द्रव्य श्रुतज्ञान से पदार्थों को जानता है उसको जिन व्यवहार श्रुतकेवली कहते हैं (9-10)। 3. साधु के द्वारा दर्शन-ज्ञान-चारित्र सदैव आराधन किये जाने चाहिए। यह व्यवहारनय (बाह्यदृष्टि) से कहा गया है और उन तीनों को/उनके एकत्व को निश्चयनय (अन्तरदृष्टि) से आत्मा ही जानो (16)। 4. व्यवहारनय (बाह्यदृष्टि) कहता/कहती है कि जीव और देह एक समान ही है, परन्तु निश्चयनय (अन्तरदृष्टि) के अनुसार तो जीव और देह कभी एक समान नहीं होते हैं (27)। 5. जीव से भिन्न इस पुद्गलमय देह की स्तुति करके मुनि ऐसा मानता है किउसके द्वारा केवली भगवान स्तुति व वंदना किए गए है। वह (केवली के पुद्गलमय देह की) स्तुति निश्चयदृष्टि (आत्मदृष्टि) से उपयुक्त नहीं होती है, क्योंकि केवली के शरीर के पुद्गलमयी गुण (केवली के आत्मा के गुण) नहीं होते हैं। जो केवली के आत्म-गुणों की स्तुति करता है, वह वास्तव में केवली की स्तुति करता है (28-29)। ठीक ही है, जैसे नगर का वर्णन कर देने से राजा का समयसार (खण्ड-1)
SR No.002302
Book TitleSamaysara Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2015
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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