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________________ से छूटकर अंतरंग में प्रकाशमान आत्मा के एकत्व की प्राप्ति सुलभ नहीं है। इसके कारण के रूप में उनका कहना है कि अनादिकाल से व्यक्ति ने इन्द्रिय-विषयों की अधीनता को स्वीकार कर रखा है। इन्द्रिय-विषय ही उसे आकर्षित करते रहते हैं। इन्द्रिय-पुष्टि-तुष्टि का जीवन ही उसे स्वाभाविक लगता है। बाह्य विषयों में जकड़ा हुआ ही वह अपनी जीवन यात्रा चलाता है, उसे विषयों की वार्ता ही रुचिकर लगती है। ___ फलस्वरूप आचार्य कहते हैं कि- जैसे अनार्य व्यक्ति अनार्य भाषा के बिना कुछ भी पढ़ने/समझने के लिए समर्थ नहीं है, वैसे ही व्यवहार (बाह्यदृष्टि/ लोकदृष्टि) के बिना परमार्थ/एकत्वरूप शुद्ध आत्मा का उपदेश देना संभव नहीं है (8)। इसलिए उन्होंने निश्चय और व्यवहार को उपदेश का माध्यम बनाया। निश्चय का अर्थ हैः अन्तरदृष्टि, आत्मदृष्टि या स्वदृष्टि और व्यवहार का अर्थ है: बाह्यदृष्टि, लोकदृष्टि या परदृष्टि। उपर्युक्त कथन इस बात "पुष्ट होता है जब आचार्य कहते हैं कि व्यवहारनय अभूदत्थ है अर्थात् अन, नी में स्थित-दृष्टि है और निश्चयनय भूदत्थ है अर्थात् आत्मा में स्थित दृष्टि है (11)। जो अनात्मदृष्टि है वह बाह्यदृष्टि है, परदृष्टि है तथा आत्मा से परे लोकदृष्टि है। जो आत्मा में स्थित दृष्टि है- वह अन्तरदृष्टि है, स्वदृष्टि है तथा आत्मदृष्टि है। अतः आचार्य कहते हैं कि एकत्वस्वरूप शुद्ध आत्मा का निरूपण शुद्धनय/शुद्ध आत्मदृष्टि है। वह शुद्धनय/शुभ-अशुभ से परे एकत्वस्वरूप शुद्ध आत्मभाव की प्राप्ति में रुचि रखनेवाले के द्वारा ही समझा जाने योग्य है और जो अ-परम/शुभ-अशुभ आत्म भाव में दृढ़मना है वे ही व्यवहारनय (बाह्यदृष्टि/लोकदृष्टि/परदृष्टि) के द्वारा उपदेश दिए गए हैं, क्योंकि वे उसी को समझने के योग्य हैं (12)। जो नय आत्मा को कर्मबंधन से रहित, पर से अस्पर्शित, अन्य विभाव पर्यायों से रहित, स्थायी, अंतरंग भेद-रहित और अन्य से असंयुक्त देखता है, वह शुद्धनय है (14)। समयसार (खण्ड-1)
SR No.002302
Book TitleSamaysara Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2015
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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