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ग्रन्थ एवं ग्रंथकार
संपादक की कलम से
आचार्य कुन्दकुन्द द्वारा रचित समयसार भारतीय अध्यात्म का प्रतिनिधित्व करनेवाली एक अमर कृति है। साधनामय जीवन की परिपूर्णता का दिग्दर्शन करानेवाला यह एक अपूर्व आगम ग्रन्थ है। परम साधना के मार्ग की एक सन्तुलित दृष्टि प्रदान करने के लिए समाज समयसार का सदैव ऋणी रहेगा। बाह्य
और अन्तर का एक अप्रतिम/अनुपम संयोग यहाँ उपस्थित है। समाज और समाजातीत का विरोध-रहित अद्भुत समन्वय पाठक को यहाँ मिलेगा। एवार/स्व-समय की अवधारणाः
सा समयसार जीवन में आध्यात्मिक परिपूर्णता के आदर्श से प्रारम्भ होता है। यह परिपूर्णता ही ‘एकत्व' है। यह ही 'स्व-समय' है। दर्शन-ज्ञान-चारित्र के एकत्व में आत्मा का स्थित होना ही स्व-समय में ठहरना है (2)।
___ यह कहना अप्रासंगिक नहीं होगा कि एकत्व की अनुभूति आत्मगुणों की संश्लिष्ट अनुभूति होती है। वह भिन्न-भिन्न गुणों की बिखरी हुई अनुभूति नहीं रहती है। ऐसी स्थिति में अभेद रत्नत्रय को प्राप्त की हुई एकत्वस्वरूप आत्मा स्व और पर की केवल ज्ञायक' ही होती है (6)। दूसरे शब्दों में एकत्वस्वरूप आत्मा पर से भिन्न/विभक्त है। इसलिए पर से भिन्न अभेदरत्नत्रयस्वरूप आत्मा को एकत्व विभक्त कहा गया है। यही आत्मानुभव की चरम स्थिति है। यही अरहंत और सिद्ध अवस्थाएँ हैं।
__ आचार्य कुन्दकुन्द का कहना है कि यद्यपि दर्शन-ज्ञान-चारित्र के एकत्व की दृढ़ता को प्राप्त हुआ आत्मा प्रशंसनीय होता है, किन्तु बाह्य उलझनों
समयसार (खण्ड-1)