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________________ द्रव्य जीवत्व को प्राप्त हो जाय तो (मैं) यह कहने के लिए समर्थ माना जा सकता है कि यह पुद्गल द्रव्य मेरा है, (25) किन्तु इस प्रकार का तादात्म्य सिद्धान्त विरुद्ध है। जीव व पुद्गल एक दृष्टि से भिन्न हैं। यहाँ जानना चाहिये कि जो ज्ञानी पुद्गलात्मक इन्द्रियों को जीतकर ज्ञान स्वभाव से परिपूर्ण आत्मा का अनुभव करता है, वह जितेन्द्रिय कहलाता है (31)। जो ज्ञानी पुद्गलात्मक मोहनीय कर्म को दबा कर अथवा नष्ट करके मोह को जीतकर ज्ञान स्वभाव से परिपूर्ण आत्मा का अनुभव करता है, वह ममता-रहित हुआ कहा जाता है (3233)। एकत्वरूप आध्यात्मिक आदर्श की प्राप्तिः एकत्व (आत्मानुभूति) की प्राप्ति के लिए अनात्मदृष्टि को छोड़कर आत्मस्थित-दृष्टि को अपनाना आवश्यक है। इसलिए आचार्य कहते हैं कि आत्मस्थित-दृष्टि के आश्रित जीव सम्यग्दृष्टि होता है (11) और वह इस दृष्टि को अपनाते हुए मोक्ष तक की यात्रा में सफल हो जाता है। अतः आत्मस्थित दृष्टि से जाने गए जीव-अजीव, पुण्य-पाप, आश्रव-बंध, संवरनिर्जरा और मोक्ष- ये सब ‘एकत्व' की अन्तिम मंजिल तक जीव को पहुँचा देते हैं। इसलिए वे सामूहिक रूप से सम्यक्त्व ही हैं (13)। दूसरे शब्दों में, आत्मस्थित दृष्टि से (निश्चयनय से) जाने गए नवपदार्थ सम्यग्दृष्टि से सम्पन्न हो जाते हैं। डॉ. कमलचन्द सोगाणी पूर्व प्रोफेसर दर्शनशास्त्र, दर्शनशास्त्र विभाग सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर एवं निदेशक जैनविद्या संस्थान-अपभ्रंश साहित्य अकादमी समयसार (खण्ड-1)
SR No.002302
Book TitleSamaysara Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2015
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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