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भूदत्थो
11. ववहारोऽभूदत्थो भूदत्थो देसिदो दु सुद्धणओ।
भूदत्थमस्सिदो खलु सम्मादिट्ठी हवदि जीवो॥ ववहारोऽभूदत्थो [(ववहारो)+(अभूदत्थो)]
ववहारो (ववहार) 1/1 व्यवहारनय अभूदत्थो (अभूदत्थ)' 1/1 वि अनात्मा में स्थित
(भूदत्थ)' 1/1 वि आत्मा में स्थित देसिदो (देस) भूकृ 1/1
कहा गया है अव्यय
तथा सुद्धणओ [(सुद्ध) वि-(णअ) 1/1] | शुद्धनय/निश्चयनय भूदत्थमस्सिदो [(भूदत्थं) + (अस्सिदो)] भूदत्थं (भूदत्थ)
आत्मा में स्थित दृष्टि 2/1-7/1 वि अस्सिदो (अस्सिद) आश्रित
भूकृ 1/1 अनि खलु
अव्यय सम्मादिट्ठी (सम्मादिट्ठि) 1/1 वि
सम्यग्दृष्टि हवदि (हव) व 3/1 अक होता है जीवो (जीव) 1/1
जीव
पर
अन्वय- ववहारोऽभूदत्थो दु सुद्धणओ भूदत्थो देसिदो भूदत्थमस्सिदो खलु जीवो सम्मादिट्ठी हवदि।।
अर्थ- व्यवहारनय अनात्मा में स्थित (भाव) (होता है) तथा शुद्धनय/ निश्चयनय आत्मा में स्थित (भाव) कहा गया (है)। आत्मा में स्थित दृष्टि पर आश्रित जीव (व्यक्ति) ही सम्यग्दृष्टि होता है।
. 1.
'अभूदत्थ' और 'भूदत्थ' का अर्थ नियमसार के शब्द ‘मज्झत्थ' (अंतरंग में स्थित) के
आधार से किया गया है। (नियमसारः गाथा 82) इसलिए व्यवहारनय बाह्यदृष्टि/लोकदृष्टि/परदृष्टि कहा जा सकता है और निश्चयनय अंतरंगदृष्टि/आत्मदृष्टि/स्वदृष्टि कहा जा सकता है। कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम-प्राकृत-व्याकरणः 3-137) संपादक द्वारा अनूदित
नोटः
समयसार (खण्ड-1)
(21)