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जाणदि
सुदकेवलिं
तमाहु
जिणा णाणं अप्पा सव्वं जम्हा सुदकेवली तम्हा
(जाण) व 3/1 सक जानता है (सुदकेवलि) 2/1
श्रुतकेवली [(तं)+(आहु)] तं (त) 2/1 सवि उसको आहु (आहु) भू 3/2 सक अनि कहा है (जिण) 1/2
अरहंतों ने (णाण) 1/1
ज्ञान (अप्प) 1/1
आत्मा (सव्व) 1/1 सवि समस्त अव्यय
क्योंकि (सुदकेवलि) 1/1 श्रुतकेवली अव्यय
इसलिए
अन्वय- जो सुदेण केवलं अप्पाणमिणं सुद्धं अहिगच्छदि तु तं लोयप्पदीवयरा सुदकेवलिमिसिणो भणंति जो सव्वं सुदणाणं जाणदि तमाहु जिणा सुदकेवलिं जम्हा सव्वं णाणं अप्पा हि तम्हा सुदकेवली।
अर्थ- जो (जीव) (भाव) (स्वसंवेदन/स्वानुभव) श्रुतज्ञान से एकमात्र (पूर्व कथित) इस शुद्धआत्मा का ही अनुभव करता है उसको लोक के प्रकाशक महर्षि (श्रमण) श्रुतकेवली कहते हैं। (यह निश्चयनय से किया गया कथन है)। जो (जीव) समस्त श्रुतज्ञान को जानता है उसको (भी) अरहंतों ने श्रुतकेवली कहा है, क्योंकि (उसके लिए) समस्त (श्रुत) ज्ञान (अंतिम रूप से परिणत) आत्मा (ही) (है)। इसलिए (वह) (भी) श्रुतकेवली (है)। (यह व्यवहारनय से किया गया कथन है)।
पिशलः प्राकृत भाषाओंका व्याकरण, पृष्ठ 755
1. (20)
समयसार (खण्ड-1)