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31. जो इन्दिये जिणित्ता णाणसहावाधियं मुणदि आद।
तं खलु जिदिदियं ते भणंति जे णिच्छिदा साहू॥
जो इन्दिये जिणित्ता णाणसहावाधियं
जीतकर
आद
(ज) 1/1 सवि (इन्दिय) 2/2 इन्द्रियों को (जिण) संकृ [(णाणसहाव)+(अधियं)] [(णाण)-(सहाव)- ज्ञानस्वभाव से परिपूर्ण (अधिय) 2/1 वि] (मुण) व 3/1 सक अनुभव करता है (आद) 2/1
आत्मा का (त) 2/1 सवि
उसको अव्यय [(जिद) + (इंदियं)] [(जिद) भूकृ अनि- जीती हुई (इंदिय) 2/1 वि
इन्द्रियोंवाला (त) 1/2 सवि (भण) व 3/2 सक कहते हैं (ज) 1/2 सवि (णिच्छिद) भूकृ 1/2 अनि निर्धारण किये हुए (साहु) 1/2
साधु
खलु जिदिदियं
भणंति
F
जो
णिच्छिदा
साहू
- अन्वय- जो इन्दिये जिणित्ता णाणसहावाधियं आदं मुणदि तं खलु ते जे णिच्छिदा साहू जिदिदियं भणंति।
अर्थ- जो इन्द्रियों को जीतकर ज्ञानस्वभाव से परिपूर्ण आत्मा का अनुभव करता है, उसको ही, वे जो (आत्मा का) निर्धारण किये हुए अर्थात् आत्मा का अनुभव किये हुए साधु (हैं), जीती हुई इन्द्रियोंवाला कहते हैं।
समयसार (खण्ड-1)
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