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29. तं णिच्छये ण जुज्जदि ण सरीरगुणा हि होंति केवलिणो।
केवलिगुणो' थुणदि जो सो तच्चं केवलिं थुणदि।
वह
णिच्छये .
जुज्जदि
सरीरगुणा
(त) 1/1 सवि (णिच्छय) 7/1+5/1 निश्चयदृष्टि से अव्यय
नहीं (जुज्जदि) व कर्म 3/1 अनि उपयुक्त माना जाता है अव्यय
नहीं [(सरीर)-(गुण) 1/2] शरीर के गुण अव्यय
क्योंकि (हो) व 3/2 अक (केवलि) 6/1
केवली के [(केवलि)-(गुण) 2/2] केवली के गुणों की
होति
होते हैं
केवलिणो केवलिगुणो (केवलिगुणे) थुणदि
स्तुति करता है
वह
(थुण) व 3/1 सक (ज) 1/1 सवि (त) 1/1 सवि (तच्च) 2/1-7/1 (केवलि) 2/1 (थुण) व 3/1 सक
तचं केवलिं
यथार्थ में केवली स्तुति करता है
थुणदि
अन्वय-तं णिच्छये ण जुज्जदि हि केवलिणो सरीरगुणा ण होंति जो केवलिगुणो थुणदि सो तच्चं केवलिं थुणदि।
अर्थ- वह (केवली के पुद्गलमय देह का) (स्तवन) निश्चयदृष्टि (आत्मदृष्टि) से उपयुक्त नहीं माना जाता है, क्योंकि केवली के शरीर के गुण (केवली के अपने आत्मा के गुण) नहीं होते हैं। जो केवली के (आत्म) गुणों की स्तुति करता है, वह यथार्थ में केवली की स्तुति करता है। 1. यहाँ केवलिगुणो' के स्थान पर केवलिगुणे' होना चाहिये। 2. कभी-कभी पंचमी विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है।
(हेम -प्राकृत-व्याकरणः 3-136) जुज्जदि (कर्मवाच्य अनि) का प्रयोग सप्तमी या षष्ठी के साथ ‘उपयुक्त माना जाना' अर्थ
में होता है। (आप्टेः संस्कृत-हिन्दी शब्दकोश) नोटः संपादक द्वारा अनूदित
समयसार (खण्ड-1)
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