________________
61. तत्थ भवे जीवाणं संसारत्थाण होंति वण्णादी।
संसारपमुक्काणं णस्थि हु वण्णादओ केई॥
तत्थ
भवे
जीवाणं संसारत्थाण
उसमें अवस्था जीवों के संसार में स्थित होते हैं
होंति
वण्णादी
वर्ण वगैरह
(त) 7/1 सवि (भव) 7/1 (जीव) 6/2 (संसारत्थ) 6/2 वि (हो) व 3/2 अक [(वण्ण)+(आदी)] [(वण्ण)-(आदि) 1/2] [(संसार)-(पमुक्क) 6/2+7/2] अव्यय अव्यय [(वण्ण)+(आदओ)] [(वण्ण)-(आदि) 1/2] अव्यय
संसारपमुक्काणं
संसार से मुक्त में
णत्थि
नहीं है
परन्तु
वण्णादओ
वर्ण वगैरह कोई
केई
अन्वय-तत्थ भवे संसारत्थाण जीवाणं वण्णादी होंति हु संसारपमुक्काणं केई वण्णादओ णत्थिा
अर्थ- उस (व्यवहार) अवस्था में संसार में स्थित जीवों के वर्ण वगैरह होते हैं, परन्तु संसार से मुक्त (जीवों) में कोई वर्ण वगैरह नहीं है।
1.
कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम-प्राकृत-व्याकरणः 3-134) यहाँ छन्द की मात्रा की पूर्ति हेतु 'केई' के स्थान पर 'केई' किया गया है।
2. (72)
समयसार (खण्ड-1)