________________
1.
वंदित्तु सव्वसिद्धे धुवमचलमणोवमं गदिं पत्ते । वोच्छामि समयपाहुडमिणमो सुदकेवलीभणिदं ।।
वंदित्तु सव्वसिद्धे ध्रुवमचलमणोवमं
गर्दि
पत्ते
वोच्छामि
समयपाहुडमिणमो
सुदकेवली भणिदं
1.
(वंद) संकृ
वंदन करके
[(सव्व) सवि - (सिद्ध) 2/2] सब सिद्धों को [(धुवं)+(अचलं)+(अणोवमं)] धुवं (धुव) 2 / 1 वि
अचलं (अचल) 2/1 वि अणोवमं (अणोवम) 2 / 1 वि
शाश्वत
स्वरूप / स्वभाव में दृढ़
अतुलनीय
गति को
नोट:
समयसार (खण्ड-1)
( गदि ) 2 / 1
(पत्त) भूक 2 / 2 अनि
(वोच्छ ) भवि 1 / 1 सक
[ ( समयपाहुडं) + (इणमो)]
समयपाहुडं (समयपाहुड) 2 / 1 समयपाहुड को इणमो (इम) 2/1 सवि [(सुदकेवलि→सुदकेवली ) - श्रुतकेवलियों द्वारा
इस
1.
(भण) भूक 2/1] :
प्रतिपादित
अन्वय- धुवमचलमणोवमं गदिं पत्ते सव्वसिद्धे वंदित्तु सुदकेवलीभणिदं समयपाहुडमिणमो वोच्छामि ।
अर्थ - (आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं कि) (मैं) शाश्वत, स्वरूप/स्वभाव में दृढ़ और अतुलनीय (सिद्ध) गति को प्राप्त हुए सब सिद्धों को वंदन करके श्रुतकेवलियों द्वारा प्रतिपादित इस समयपाहुड को कहूँगा।
प्राप्त हुए
कहूँगा
प्राकृत-व्याकरणः पृष्ठ 16 (ii)
यहाँ छन्द की मात्रा की पूर्ति हेतु 'सुदकेवलि' का 'सुदकेवली' हुआ है।
कोष्ठकों का प्रयोग संपादक द्वारा किया गया है।
(11)