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________________ 63. अह संसारत्थाणं जीवाणं तुझ होंति वादी अह संसारत्थाणं जीवाणं तुज्झ होंति वण्णादी। तम्हा संसारत्था जीवा रूवित्तमावण्णा ।। तम्हा संसारत्था जीवा रूवित्तमावण्णा 1. अव्यय (संसारत्थ) 6 / 2 वि (जीव ) 6/2 (74) (तुम्ह) 6/17/1 स (हो) व 3/2 अक [(वण्ण) + (आदि)] [(वण्ण) - (आदि) 1 / 2] (त) 5 / 1 सवि (संसारत्थ) 1/2 वि (जीव ) 1/2 [(रूवित्तं) + (आवण्णा)] रूवित्तं (रूवित्त) 2/1 आवण्णा (आवण) भूक 1/2 अनि यदि संसार में स्थित जीवों के तुम्हारे मत में होते हैं वर्ण वगैरह उस कारण से संसार में स्थित जीव अन्वय- अह तुज्झ संसारत्थाणं जीवाणं वण्णादी होंति तम्हा संसारत्था जीवा रुवित्तमावण्णा । रूपीपने को प्राप्त हुए अर्थ - यदि तुम्हारे मत में संसार में स्थित जीवों के वर्ण वगैरह होते हैं (तो) उस कारण से संसार में स्थित जीव रूपीपने को प्राप्त हुए ( हो जायेंगे)। कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। ( हेम - प्राकृत - व्याकरणः 3-134 ) समयसार (खण्ड-1)
SR No.002302
Book TitleSamaysara Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2015
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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