Book Title: Pratikraman Vidhi Sangraha
Author(s): Kalyanvijay Gani
Publisher: Mandavala Jain Sangh
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 11 प्रतिक्रमण विधि संग्रह प्रकाशक श्री मांडवला जैन संघ ( पो. मांडवला (Raj.) of Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण विधि संग्रह सम्पादक पं० कल्याणविजय गणि བ གས། ཡ प्रकाशक : श्री मांडवली जैन संघ पो. मांडवला (Raj.) Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमावृति ११०० वीर सम्वत् २४६६ विक्रम सम्वत् २०३० ईस्वी सन् १९७३ प्रकाशक : श्री माण्डवला जैन सङ्क माण्डवला (राज.) मुद्रक । अर्चना प्रकाशन १ काला बाग, अजमेर (राज.) Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . प्रस्ताविक दो शब्द .. इस पुस्तक में ग्रहण किये हुए प्राचीन विधि संग्रह में प्रूफ रीडिंग हम कर न सके, अतः मुद्रण विषयक भूल रही हो तो सुधार कर के पढ़ें। Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रम क्रम पहला परिच्छेद उपोद्घात सूत्रोक्त श्रमण सामाचारी आवश्यक चूर्णि के अनुसार प्रतिक्रमण विधि दूसरा परिच्छेद पाक्षिक चूर्ण्यनुसारी श्रमण प्रतिक्रमण विधि हरिभद्रीय पंचस्तु ग्रन्थोक्त प्रतिक्रमण विधि. गाथा कदम्बकोक्त प्रतिक्रमण विधि तीसरा परिच्छेद पौमिक गच्छ प्रतिक्रमण विधि चौथा परिच्छेद प्रतिक्रमण गर्भ हेतु ग्रन्थीक्त प्रतिक्रमण विधि श्री पार्श्वऋषिसूरिकृत श्राद्ध प्रतिक्रमण विधि श्री चन्द्र सूरकृित सुबोधा सामाचारी गंत प्रतिक्रमण विधि आचारविधिसामाचारीगत प्रतिक्रमण विधि जिनवल्लभगणिकृता प्रतिक्रमण सामाचारी हरिप्रभसूरिरचित यतिदिनकृत्य की प्रतिक्रमण विधि जिनप्रभसूरिकृत विधिमार्गप्रपा की - १० ..१४ २५ से ६० - २५ ३६ प्रतिक्रमण विधि पृष्ठांक १ से २४ ૪૨ ६१ से ८६ .६१ ७४ ७६ ७७ ८० ८७ से १११ ८७ ६३ १०३ १०४ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रसिद्ध इतिहासवेत्ता पं० श्री कल्याणविजय जी महाराज MMEREBAR SHAMBERAHANIHINDE RERNA MITREENAME HABE BHERUNB FEMBERAHAWWARMARRHERE HERBHEERRRRRRRRRRRRRRRBEFERRBHBHERE mmmmmm REBERRRRRRRRREEEEEEEEEEER FRELEHREBERRBEBEHREE Page #7 --------------------------------------------------------------------------  Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण विधि संग्रह Page #9 --------------------------------------------------------------------------  Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला परिच्छेद ११) उपोद्घात "प्रतिक्रमण" आवश्यक का एक अध्याय है, पर छह आवश्यकों में इसकी प्रधानता होने से “षडावश्यकों' का भी "प्रतिक्रमण" नाम से उल्लिखित किया जाता है, अतः हम भी इस प्रबंध के षडावश्यक सम्बन्धी होने पर भी इसका नाम "प्रतिक्रमण विधिसंग्रह" रखना उपयुक्त समझते हैं.. आवश्यक सूत्र के कर्ता . "नंदी तथा “पाक्षिक" सूत्र आदि में आवश्यक सूत्र के लिए निम्न प्रकार के उल्लेख मिलते हैं- . . “से आवस्सए छविहे पन्नत्त . तंजहा-सामाइयं १, चउव्वीसत्थरो २, वंदणयं ३, पडिक्कमणं ४, काउस्सग्गो ५, पच्चक्खाणं ६," ... अर्थात--वह आवश्यक छह प्रकार का कहा है, जैसे-सामायिक १ चतुर्विंशतिस्तव २, वंदनक, ३, प्रतिक्रमण ४, कायोत्सर्ग ५ प्रत्याख्यान ६। आवश्यक सूत्र के कर्ता के सम्बन्ध में अनेक स्थलों में आवश्यक शु तस्थविरकृतं" ऐसे उल्लेख मिलते हैं, तब क्वचित् इसे “गणधर प्रणीत होना भी सूचित किया है। प्रथम तथा अन्तिम तीर्थङ्करों Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ ] प्रतिकमण विधि संग्रह के साधुओं का धर्म " सप्रतिक्रमण" कहा गया है। इससे भी इतना तो निश्चित है कि भगवान महावीर के श्रमण नित्य प्रतिक्रमण करते थै । इससे प्रमाणित होता है कि उस समय में भी आवश्यक सूत्र तो था ही, भले ही आधुनिक सूत्र की तरह स्वतंत्र न होकर द्वादश गणिपिटकान्तर्गत किसी अंग श्रुत में इसका समावेश किया हुआ हो यदि हमारे इस अनुमान के अनुसार श्रावश्यक श्रुत पूर्व काल में अंग-प्रविष्ट होगा तो निश्चित रूप से यह “गणधर कृत" कहला सकता है । परन्तु जैन सूत्र लिखे जाकर व्यवस्थित हुए उस समय में आवश्यक श्रुत अंग-प्रविष्ट नहीं था ऐसा श्री नन्दी सूत्र के निरूपण से सिद्ध होता है । नन्दी सूत्रकार भगवान श्री देवद्ध गणिक्षमा श्रमणजी ने आवश्यक त का अनंगप्रविष्ट के रूप में उल्लेख किया है, अनंग प्रविष्ट श्रुत के दो विभाग करते हुए क्षमा श्रमण जी एक विभाग में "आवश्यक" और दूसरे में "आवश्यक व्यतिरिक्त औपपातिकादि उपांगों" का निर्देश किया है, इससे यह बात सूचित होती है कि आवश्यक श्रुतपूर्वकाल में द्वादशांगी के हीं अन्तर्गत होगा पर कालान्तर में अन्य उपांगों की तरह आवश्यक सूत्र भी अंग सूत्र में से पृथक करके एक भिन्न श्रुत स्कंध के रूप में व्यवस्थित किया होगा । इसी से पिछले टीकाकारों ने इसकी श्रुत स्थविर कर्तृकता मानी होगी, इस अपेक्षा से आवश्यक सूत्र को गणधर रचित भी कह सकते हैं और श्रुत स्थविर कृत भी । नाम की सार्थकता -- इस सूत्र का "आवश्यक" यह नाम अन्वर्थक है, इस सम्बन्ध में नियुक्तिकार कहते हैं "समरण' सावएण य अवस्सकायव्वयं हवइ जम्हा । अन्तो अहो नि निसिस्स य । तम्हा आवस्सयं नाम ॥ १ ॥ " Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५ प्रतिक्रमण विधि संग्रह अर्थात- साधु और श्रावक का रात्रि, दिन के अन्त में अवश्य कर्तव्य प्रतिपादक होने से इसका नाम " आवश्यक" पड़ा है, इसी प्रकार आवश्यक के प्रत्येक अध्ययन के नाम भी सार्थक हैं, परन्तु इन सब अध्ययनों का विस्तृत विवरण करके हम इस प्रबन्ध को लम्बा नहीं करना चाहते । हमारा मुख्य उद्देश्य प्रतिक्रमण विधियों का निरूपण करने का है, इसलिए प्रतिक्रमण और इसकी कर्तव्य विधियों का ही प्रतिपादन करेंगे । प्रतिक्रमण का शब्दार्थ- "स्वस्थानाद् यत् परस्थानं, प्रमादस्य वशाद् गतः । तत्रैव क्रमणं भूयः, प्रतिक्रमणमुच्यते || १ || " अर्थात् 'अपने स्थान से अर्थात् कर्तव्य मार्ग से प्रमाद के वश होकर परस्थान अर्थात् कर्तव्य मार्ग में चला गया हो तो वहां से फिर कर्तव्य मार्ग में आना इसका नाम “प्रतिक्रमण ' है । प्रतिक्रमण आज किया जाता है और जिनकाल तथा स्थविर काल में भी किया जाता था । पूर्व कालीन और वर्तमान कालीन हमारे प्रतिक्रमण में कितना अन्तर पड़ा होगा ? इसका उत्तर देना अशक्य नहीं तो दुःशक्य तो अवश्य ही है । कारण कि कालातीत और क्षेत्रातीत परिस्थितियों का विचार वर्तमान परिस्थिति की दृष्टि से किया जाय तो वह विचार मौलिक परिस्थिति का स्पर्श नहीं कर सकता । जिनकाल अर्थात् भगवान महावीर के समय को आज ढाई हजार वर्ष व्यतीत हो चुके हैं । स्थविर काल को भी पन्द्रह सौ वर्षों से भी अधिक वर्ष हो गये हैं । इतने लम्बे काल की परिस्थिति का वर्तमानकालीन परिस्थिति से कई बातों में विषम होना स्वा Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६.] प्रतिक्रमण विधि संग्रह भाविक है। जिनकाल में जैन श्रमणों का विहार विशेषतः उत्तर पूर्व के भारतीय प्रदेशों में होता था। स्थविर काल में कतिपय प्रदेश . विहार क्षेत्र में से छूटकर विहार का केन्द्रस्थान मध्यभारत बना था । उसके बाद निर्ग्रन्थ श्रमण समुदाय उससे भी पश्चिम की तरफ विचरने लगा था। इस प्रकार भिन्न-भिन्न काल और भिन्न भिन्न क्षेत्रों के प्रभाव हमारे आचारों और अनुष्ठानों पर पड़े थे। इस परिस्थिति में आज़. कोई यह कहे कि आज के हमारे प्राचार-अनुष्ठानों जैसे ही पूर्वकाल में भी थे, तो यह कथन वास्तविकता से कुछ दूर हो जायगा। मानव स्वभाव की सुखशीलता के कारण उसके प्राचार तथा कृतियों में . प्रतिक्षण परिवर्तन आया करता है, पर मनुष्य को तत्काल इसका भान नहीं होता। आज के अपने भिन्न-भिन्न देशों की लिपियां सूत्र- . कालीन ब्राह्मी लिपि के ही परिवर्तित रूप हैं । इसी प्रकार सूत्रकालीन मागधी, अर्धमागधी, शौरसेनी आदि प्राचीन भाषाओं से उत्पन्न भाषाओं से उत्पन्न आज की हिन्दी, गुजराती, मराठी, बंगला आदि भाषाएं हैं। फिर भी इनका जन्मदात्री मूलभाषायों के साथ इतना अन्तर पड़ गया है कि इन भाषाओं का परस्पर सम्बन्ध है यह भी कोई समझ नहीं सकता । जैसे लिपियों और भाषाओं पर देश काल का असर पड़ता है वैसे ही साधुओं और गृहस्थर्मियों के आचार-अनुष्ठानों पर देशकाल का जबर्दस्त असर पड़ता है। ... जिनकाल में और स्थविरकाल में हमारे प्रतिक्रमण की क्रिया किस प्रकार की थी, यह कहना कठिन है । कारण कि मूल सूत्रों में इसकी विस्तृत विधियाँ दृष्टिगोचर नहीं होती, प्राचीन नियुक्तियों में अथवा भाष्यों में इस विषय का व्यवस्थित विधान उपलब्ध नहीं होता । कदाचित् व्यवच्छिन्न हुए प्राचीन सूत्रों में इसका प्रतिपादन Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [७ प्रतिक्रमण विधि संग्रह होगा भी तो वह वर्तमान पंचांगी में से प्रकीर्ण ग्रन्थों, चूणियों अथवा टीकाओं को छोड़कर अन्य अंगों, उपांगों में दृष्टिगोचर नहीं होता। आवश्यकचूणि लगभग विक्रम की ६ठी शती के अन्त में निर्मित प्राकृत टीका ग्रंथ है । इसमें साधु प्रतक्रमण को विधि का व्यवस्थित निरूपण है। श्रमण प्रतिक्रमण का निरूपण ब श्रुत आचार्य श्री हरिभद्र सूरिजो के पंचवस्तुक ग्रंथ में भी मिलता है। पर श्रावक प्रतिक्रमण की विधि का प्रतिपादन १०वीं शती के उत्तरार्ध में निर्मित श्राद्ध प्रतिक्रमण सूत्र को आचार्य जयसिंह सूरि कृत चूणि और श्रीचन्द्रकुलीन श्री पार्श्व ऋषि कृत श्राद्ध प्रतिक्रमण सूत्र विवृति में दृष्टिगोचर होता है। इससे प्राचीन किसी भी सूत्र तथा ग्रंथ में श्राद्ध प्रतिक्रमण विधि का निरूपण नहीं मिलता। इसी कारण से अंचल गच्छ के प्रवर्तक आचार्यों ने प्रारंभ में श्रावक प्रतिक्रमण का ही प्रतिषेध किया था, क्योंकि वे सूत्र पंचांगी के सिवाय किसी भी सुविहित परम्परा को प्रामाणिक नहीं मानते थे। इस गच्छ के • पिछले आचार्यों को अपने पूर्वजों की उक्त मान्यता भूल भरी ज्ञात हुई। उन्होंने अपने गच्छ की उन मान्यताओं में संशोधन किया। इस गच्छ की मौलिक और आज की अधिकांश मान्यतामों में ... आकाश-पाताल जितना अन्तर पड़ गया है। धर्मानुष्ठानों के विधानों में साधुओं की मुख्यता-- प्रत्येक धार्मिक अनुष्ठान में साधु की मुख्यता होने से उसका निरूपण भी साधु के उद्देश्य से ही किया जाता था, पर इसका अर्थ यह नहीं होता था कि यह अनुष्ठान केवल साधु का ही कर्तव्य है। अंचल गच्छ के आचार्यों ने प्रथम यह वस्तु लक्ष्य में नहीं ली, पर अंत में उन्होंने अपने विचारों में संशोधन करना उचित समझा। Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८ = 1 प्रतिक्रमण विधि संग्रह हम ऊपर श्रावश्यक नियुक्ति की गाथा लिख आये हैं, उस में आवश्यक श्रमण तथा श्रावक दोनों का अवश्य कर्त्तव्य है, यह सूचित किया है । चूर्णिगत प्रतिक्रमण विधि के निरूपण में श्रावक का नाम न आया यह कुछ लेखक की भूल न थी पर साधु तथा श्रावक की क्रिया में नाम मात्र के ही फेरफार होते थे, उनकी क्रियाओं में किंचित् भेद है जो स्वयं समझा जा सके ऐसा जान कर "श्राद्ध प्रतिक्रमण विधि का " पृथक् प्रतिपादन नहीं किया गया । श्राद्ध प्रतिक्रमण सूत्र के कर्ता * वर्तमान श्राद्ध प्रतिक्रमण सूत्र के कर्त्ता कौन थे ? इस प्रश्न के उत्तर में कोई कोई बताते हैं कि इसका कर्त्ता "ढंक" नामका कुम्हार श्रावक था । किन्तु हम इस कथन को महत्व नहीं दे सकते क्योंकि किसी भी प्राचीन ग्रन्थ या प्रकरण में इस विषय का उल्लेख नहीं है । इस सूत्र पर १० वीं शती के पूर्व की चूरिंग अथवा टीका भी उपलब्ध नहीं है, इससे सिद्ध होता है कि "आधुनिक श्राद्ध प्रतिक्रमण सूत्र वंदितु" अनुमानतः ७ वीं ८ वीं शती का सन्दर्भ होना चाहिये। कई लोग इस सूत्र की "तस्स धम्मस्स केवलियन्नत्तस्स प्रभुट्टि ओमि आराहणाए " इस गाथा की परवर्ती गाथाओं को अर्वाचीन और प्रक्षिप्त मानते हैं, किन्तु वस्तु स्थिति इस तरह की नहीं है, कारण कि इस सूत्र के प्राचीन से प्राचीन टीकाकारों ने भी अपनी टीकाओं में उक्त गाथाओं की व्याख्या की है । नये गच्छों की प्रतिक्रमण सामाचारियां- ग्यारहवीं शताब्दी तक सब गच्छों में प्रतिक्रमण सामाचारी प्रायः एक थी । किसी तरह का उसमें भेद न था । बारहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में उत्पन्न होने वाले गच्छों में भी अञ्चल गच्छ के Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण विधि संग्रह अतिरिक्त दूसरे गच्छों में प्रतिक्रमण सामाचारी पूर्ववत् चलती थी। श्री जिनवल्लभ गणि तथा उनके सहचर कितनेक विद्वानों ने “ विधि धर्म " नामक सामाचारी प्रचलित की थी तो भी उन्होंने प्रतिक्रमण सामाचारी में कुछ भी भेद नहीं डाला था, यह बात श्री जिनवल्लभ गणिजी की "प्रतिक्रमण सामाचारी" से मालूम होती है। विक्रम की बारहवीं शती के मध्य भाग में श्री चन्द्रप्रभ सूरि ने साधु को जिनबिम्ब की प्रतिष्ठा न करने का मत स्थापित कर अपना गच्छ अलग से निर्मित किया। वे पूर्णिमा को पाक्षिक और पंचमी की पर्युषणा प्रचलित करके दूसरे गच्छों से अलग हुए तो भी उन्होंने "प्रतिक्रमण सामाचारी" विषयक मतभेद खड़ा नहीं किया। इस तरह इनकी परम्परा में सवा सौ वर्षों के बाद मतभेद उत्पन्न हुआ। यह श्री तिलकाचार्य की “सामाचारी" पर से सिद्ध होता है। विधि धर्म सामाचारी से उत्पन्न 'खरतर गच्छ' और उसकी शाखाओं में भी प्रतिक्रमण सामाचारी के विषय में कुछ भी मतभेद नहीं था । यहः उनके प्राचीन सामाचारी ग्रन्थों से मालूम होता है। ____ अंचल- गच्छ से अवतरित प्रागमिक-गच्छ की “प्रतिक्रमणसामाचारी” में भी आचरण से चले आते "श्रुत-क्षेत्र" देवतादि के कायोत्सर्ग स्तुतियों के निषेध के उपरान्त दूसरा कुछ भी रद्दोबदल नहीं किया था। फिर भी अचल-गच्छ से अवतरित “लौंका" पावचन्द्र और विजामत के गच्छों में प्रतिक्रमण विधियाँ बहुत हो परिवर्तित हुई ज्ञात होती हैं। .सामायिक ग्रहण में लगभग सभी नये गच्छ सामायिक उच्चरने के बाद "ईर्यावही' करने के मत में थे, तब Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० ] प्रतिक्रमण विधि संग्रह "बृहद्गच्छ" और उस पर से निष्पन्न हुए “तपागच्छ” भिन्न पड़ रहे थे। दूसरे सबों का आधार “आवश्यक चूर्णि" था, तब "बृहद् गच्छ” के श्रमण समुदाय “महा निशीथ" के "ईविही" प्रतिक्रमण सम्बन्धी एक सामान्य विधान को महत्व देकर सामायिक दंडक उच्चारण के पूर्व "ईर्या पथिकी" प्रतिक्रमण के पक्ष में हुए। उन सब गच्छों में से जो जो गच्छ आज विद्यमान हैं वे सर्व अपने २ पूर्वाचार्यों की "ईर्या पथिकी" प्रतिक्रमण सम्बन्धी परम्परा का ही अनुसरण करते हैं। सूत्रोक्त साधुसामाचारी सामाचारी मूलसूत्र के अनुसार कहूंगा जो सर्वदुःखों से मुक्त. करने वाला है और जिसका आचरण करके निग्रंथ संसार समुद्र को तिरे हैं। प्रथमा-आवश्यकी, दूसरी नैषेधिकी, तीसरी आपृच्छना, चौथी प्रतिपृच्छना, पंचमी छंदना, छठ्ठी इच्छाकार, सातवीं मिथ्याकार, अष्टमी तथाकार, नवमी अभ्युत्थान और दशवी उपसम्पदा यह साधुओं की दशांग सामाचारी कही हैं। . दशविध सामाचारी के स्थान गमन में आवश्यकी करें, अपने निवास स्थान में प्रवेश करते समय नैषेधिकी करें, अपना कार्य करने के समय आपृच्छा करे, दूसरे का कार्य करते समय प्रतिपृच्छा करे, प्राप्तद्रव्य जात से छन्दना करे, कार्य प्रवृत्ति कराते समय इच्छाकार करे, अपनी भूल की निन्दा में मिथ्याकार करे, गुरु या वडील के वचन के स्वीकार में 'तथाकार' करे, गुरु के अपने निकट आने पर 'अभ्युत्थान' करें और उनकी Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [११ प्रतिक्रमण विधि संग्रह " निश्रा में रहे इसका नाम 'उपसम्पदा' सामाचारी है। इस प्रकार श्रम को 'दशविध' सामाचारी बताई है । दशविध सामाचारी का निर्देश करके अब ओघ "सामाचारी" का निरूपण करते हैं । सूर्य उदय के बाद दिन के प्रथम चतुर्थ भाग में उपकरणों की प्रतिलेखना कर गुरु को वन्दनपूर्वक हाथ जोड़कर पूछे 'भगवन् अब मुझे क्या क्या करना चाहिये ? आपकी इच्छानुसार मुझे किसी भी कार्य में नियुक्त कीजिये वैयावृत्य में अथवा स्वाध्याय में ।' यदि गुरु वैयावृत्य में नियुक्त करे तो ग्लानि लाये बिना वैयावृत्य करे और सर्वदुःख से मुक्त करने वाले स्वाध्याय में नियुक्त करे तो अग्लानि से स्वाध्याय करे । इस प्रकार ओघ सामाचारी के मौलिक कतव्यों के निर्देश करके अब समय का विवेक बताते हैं । प्रथम औत्सर्गिक दिनकृत्य बताते हैं दिवस के चार भाग करके चतुर 'भिक्षु' उन चारों ही दिन विभागों में उत्तर गुणों का साधन करे । प्रथम पौरुषी में स्वाध्याय ' करे, द्वितीय पौरुषी में सूत्रार्थ चिन्तन रूप ध्यान करे। तीसरी पौरुषी में भिक्षाचर्या करे और चौथी पौरुषी में फिर स्वाध्याय करे । पौरुषी ज्ञान का उपाय -- आषाढ मास में दो पग परिमित छाया रहने पर, पोष में चार पग छाया रहने पर, चैत्र तथा आश्विन महीनों में तीन पग छाया रहने पर पौरुषी होती है । सात अहोरात्रों में एक अंगुल छाया बढ़ती घटती है । एक पक्ष में दो अंगुल छाया बढ़ती घटती है और मास में चार अंगुल 'छाया' बढ़ती घटती है । Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण विधि सग्रह तिथि किन-किन महीनों में घटती है, वह नीचे बताते हैं आषाढ कृष्ण पक्ष में भाद्रपद कृष्ण पक्ष में, पौष कृष्ण पक्ष में, फाल्गुन कृष्ण पक्ष में और वैशाख कृष्ण पक्ष में क्षय तिथियाँ आती हैं। किस महीने में कितने अंगुल छाया का दिवस के चतुर्थांश में प्रक्षेप करने से उस महीने में पौरुषी पूर्ण होती है,वह बताते हैं ज्येष्ठ, आषाढ और श्रावण के दिवस के चतुर्थ भाग में छः अंगुल. का प्रक्षेप करने में प्रतिलेखना का समय होता है । इसी प्रकार भाद्रपद, आश्विन और कार्तिक मास के दिन .चतुर्थाश में आठ अंगुल का : प्रक्षेप करने से पौरुषी आती है। मार्गशीर्ष, पौष और माघ इन तीन महीनों के दिन चतुर्थाशों में दश अंगुलों का प्रक्षेप करने से पौरुषी आती है और चतुर्थ त्रिक अर्थात् फाल्गुन, चैत्र और बैशाख महीनों के दिन चतुर्थाश में आठ अंगुलों का प्रक्षेप करने से इन तीन महीनों की पौरुषी पूर्ण होती है । अव रात्रि कृत्यों का काल विभाग बताते हैं विचक्षण साधु रात्रि को भी चार विभागों में बांट कर उन चारों में उत्तर गुणों की साधना करे । प्रथम पौरुषी में स्वाध्याय, द्वितीय पौरुषी में ध्यान और तृतीय पौरुषी में निद्रा फिर चतुर्थ पौरुषो में स्वाध्याय करे। ... रात्रि में शयन विधि इस प्रकार है-- रात्रि का प्रथम प्रहर पूर्ण होने पर गुरु के पास जाकर शिष्य वन्दनापूर्वक कहे 'क्षमा श्रमण ! पौरुषी संपूर्ण हो गई है रात्रिक संस्तारक को आज्ञा दीजिये।" गुरु कहे “तहत्ति ।" Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ [१३ प्रतिकमण विधि संग्रह गुरु-आज्ञा प्राप्त करके प्रथम प्रस्रवण-भूमि में जाये, कायिकी लघु शंका मिटाके जहाँ संस्तारक करना है वहां जाये । वहां उपधि के विषय में उपयोग कर उपधि का डोरा छोड़े और संस्तारक और उत्तर पट्टक की प्रतिलेखना कर दोनों को शामिल कर पूर्व भाग पर रखे, फिर संस्तारक भूमिका प्रमार्जन करे और उत्तर पट्टक सहित संस्तारक को उस स्थान पर बिछाये और उसपर बैठकर मुहपत्ति से ऊपर के शरीर की प्रमार्जना करे, रजोहरण से निचले शरीर का प्रमार्जन करे और ओढ़ने के वस्त्र वाम भाग में रखे फिर संस्तारक पर चढ़कर गुरु अथवा जनकी निश्रा में रहता है। उन वडील के आगे कहे-'ज्येष्ठार्य ! संस्तारक की आज्ञा दीजिये।' फिर तीन बार सामायिक दंडक पढ़कर सोये । सोने की विधि यह है-- .. संस्तारक पर सोने की प्राज्ञा लेकर बाहुरूपी उपधान (तकिया) कर पैर संकुचित करके वाम पार्श्व पर सोये इस प्रकार सोता हुआ थक जाये तब भूमि प्रमार्जन करके कुक्कुट की तरह पैर लम्बा करे। .. संडासक संकोचित करके सोये, अगर पार्श्व परिवर्तन करना हो तो प्रथम शरीर प्रतिलेखना करके पार्श्व बदले। उस समय द्रव्यादि का उपयोग करे, श्वास को रोके और आंखें खोलकर देखे। Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४] प्रतिक्रमण विधि संग्रह प्रतिक्रमण विधि [आवश्यक चूणि के आधार से] देवसिक-- . स्थंडिलादिभूमियां ऐसे समय में प्रतिलेखी जावे कि जिसके अन्त में सूर्यास्त हो और उसके बाद तुरन्त ही प्रतिक्रमण किया जाय उसकी विधि इस प्रकार है · प्रतिक्रमण दो प्रकार से होता है, व्याघातिम और व्याघात रहित । जो व्याघात बिना का प्रतिक्रमण होता है उसमें गुरु के साथ सभी साधु प्रतिक्रमण करते हैं, यदि गुरु श्रावकों को धर्मोपदेश करने आदि में रुके हुए हों तो साधुओं के साथ आवश्यक करने में व्याघात खड़ा होता है। जिस समय प्रतिक्रमण करना है वह समय धर्मोपदेशात्मक व्याघात से बीत जाता है, अतः ऐसे प्रसंग व्याघात कहलाते हैं। ऐसे प्रसंगों में गुरु और उनका निषद्याधर दोनों पीछे से चारित्राचार के अतिचारों के चिन्तनार्थ कायोत्सर्ग करते हैं, दूसरे साधु गुरु को पूछ कर गुरु के स्थान के पीछे यथा रत्नाधिक नजदीक और दूर बैठ जाते हैं क्योंकि यही उनका स्वस्थान गिना जाता है । वहां बैठकर प्रतिक्रमण करने वालों की मंडली की स्थापना निम्न प्रकार से होती है। Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण विधि संग्रह श्री वत्साकार-प्रतिक्रमण मण्डली गुरु पीछे से आकर अपने स्थान पर बैठे उनसे पूर्व ही दूसरे साधु बांयी ओर के सष्टि मार्ग से और दायीं ओर के अपसव्य मार्ग से होकर अपने अपने स्थानों में जाकर बैठ जाते हैं। आवश्यक चर्णि के आधार पर देवसिक प्रतिक्रमण विधि सूर्यास्त के बाद तुरन्त आवश्यक किया जाता है । आवश्यक ' निर्व्याघात होता है और व्याघातिम भो। अगर आवश्यक निर्व्याघात हो तो गुरु के साथ सब साधु आवश्यक करते हैं। अगर गुरु श्रावकों के सामने धर्मकथा कहने में व्याप्त हो तो गुरु और उनका निषद्याधर दोनों बाद में कायोत्सर्ग करते हैं, शेष साधु गुरु को पूछकर गुरु स्थान के पीछे निकट और दूर यथारात्निक के क्रम से जिसका जो स्थान आता हो वह वहां जाकर बैठ जाते हैं। - 'गुरु पच्छा ठायतो, मझेण गओ सटाणे ठायति, जे वामतो ते प्रणंतरं सवेण गंतु सट्ठाणे ठायंति जे दाहिण प्रो अणंतरमवसव्वेणं तं चेव अणागतं ठायंति, सुत्तत्थज्झरण हेतु, तत्थ य पुत्वमेव ठायंता करेमि भने सामाइ” इति सुतं करेंति, जाहे पच्छा गुरु सामाइयं करेंति ताहे पुवट्टितावि तं सामाइयं करेंति सेसं कंठं। जो होज्जा ॥१४६४।। परिसंतो प्राधूर्णकादि सोविसज्झाय- झाण परो अच्छति, Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६] प्रतिक्रमण विधि संग्रह जाहे गुरु ठंति सेण श्रागतं तं का तु आवस्सगं प्रणेते तिणि ब्युतिओं करेंति अथवा एगा एगसिलोइगा, बितिया बिसिलोइया, तइया तिसिलोइया, तेसि समत्ती ए काल वेला पड़िलेहण विधो इमा कातव्वा । " (आवश्यक चूर्णि उत्तर भा० प्र० २२९-३०) निर्व्याघात प्रतिक्रमण में मंडली में जाते ही सर्व प्रथमं सामायिक. सूत्र बोलते हैं । सामायिक सूत्र बोलकर अथं चिन्तन करते हैं । जब आचार्य वोसिरामि' यह कहें तब शेष साधु भी अतिचार चिन्तनादि पूर्वक मुखवस्त्रिका प्रतिलेखनादि करते हैं । कोई आचार्य कहते हैं- जब आचार्य सामायिक सूत्र पढ़ते हैं तब वे वैसे हो मन में चिन्तन करते हैं । प्रथम सूत्र का चिन्तन कर मुहपत्ति प्रति लेखनादि करते हैं, वंसा करके जब तक आचार्य कायोत्सर्ग में स्थित हों तब तक अन्य श्रमण मन में अनुप्रेक्षा करते हैं, सर्व दिवस सम्बन्धी अतिचारों का चिन्तन करके जितने दैवसिक प्रतिचार हों उन सब को मन में याद करके कायोत्सर्ग पारने के वाद उन दोषों को , आलोचना से अनुलोम और प्रतिसेवना से अनुलोम हृदय में स्थापन करें । उन सब की समाप्ति के बाद जब तक आचार्य कायोत्सर्ग नहीं पारते अन्य साधु अपने मन में धर्म-ध्यान और शुक्ल ध्यान का चिंतन करें, आचार्य अपनी दिन भर की प्रवृत्तियों तथा चेष्टाओं को दो बार चिन्तन करें, इतने समय में अतिप्रवृत्ति वाले साधु अपनी चेष्टानों के सम्बन्ध में एक बार चिंतन कर सकते हैं। इस प्रकार देवसिक प्रतिक्रमण समझना चाहिये । रात्रिक प्रतिक्रमण में रात्रिक अतिचार होते हैं। पाक्षिक से दिवस चातुर्मासिक, सांवत्सरिक अतिचार नहीं होते इस कारण Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१७ प्रतिक्रमण विधि संग्रह शब्द का ग्रहण किया है । कायोत्सर्ग " नमो अरिहंताणं" यह पढ़कर पारते हैं और ऊपर चतुर्विंशतिस्तव पढ़ते हैं, फिर धर्मं विनयमूलक है इस कारण से वंदना करने की इच्छा वाला शिष्य संडाशक प्रतिलेखन करके बैठकर मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना करता है । मस्तक पर्यन्त उपरिकाय का प्रमार्जन कर परम विनय के साथ त्रिकरण विशुद्ध कृतिकर्म करे बाद खड़ा होकर यथारात्निक दोषों को गुरु के सामने प्रकट करें। अगर कोई प्रतिचार नहीं है तो शिष्य के "संदिसह " यह कहने पर गुरु को " पडिक्कमह" ऐसा कहना चाहिये । यदि कोई प्रतिचार हो तो उसका प्रायश्चित "पुरिमड्ड" आदि लेते हैं। जैसा गुरु प्रायश्चित दें उसको उसी तरह करना चाहिए । प्रायश्चित न करने से अनवस्थादि दोष होते हैं । वन्दन के अनन्तर आलोचना के बाद सामायिक सूत्र और उसके बाद ज्ञानदर्शनचरित्रों की विशुद्धि के लिये उपविष्ट प्रतिक्रमण सूत्र से प्रशस्त स्थानों में जैसे अपनी आत्मा स्थित हो वैसे करे । पूर्वोक्त विधि से वन्दन, Tarai पूर्वक "प्रतिक्रांत" इसी सूचनात्मक निवेदन करके आचार्य को वंदन कर शेष साधुओं को भी खमाना चाहिये । यहाँ यह सूत्र - गाथा बोले "आयरिय उवज्झाए XXX सव्वस्स समणसंघस्स. " इस सम्बन्ध से वन्दना के बाद क्षमापन करे फिर शेष जीवों को भी खमावे, बाद में चारित्राचार की विशुद्धि के लिए सामायिक सूत्र पढ़कर कायोत्सर्ग दण्डक यावत् " तस्स उत्तरीकरणेणं" यहाँ से लेकर 'वोसिरामि' कहकर कायोत्सर्ग करना, तीनों कायोत्सर्गों में श्वासोच्छवास एक सौ होते हैं, उनमें प्रथम चरित्र का कायोत्सर्ग होता है पच्चास श्वासोच्छवास होते हैं, उनको समाप्त करके नामोत्कीर्तना कर "सथलोए अरिहंत चेइयाणं वंदण वत्तिया ए० इत्यादि पढ़कर Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८] प्रतिक्रमण विधि संग्रह 97 २५ श्वासोच्छ् वास का कायोत्सर्ग करे और नमस्कार से पूरा करे । : "पुक्खर वर दीवड्डे XX X त्तम तिमिर पडल विद्ध' सणस्स XXX जाति जरा मरण XXX सिद्ध भो पयप्रोमो जिण मंते नदी सदा संजXXX अस्स भगवतो वंदण वत्तियाए जाव वोसिरामि X Xx" बोलकर २५ श्वासोच्छवास परिमित कायोत्सर्ग करें। नमस्कार से कायोत्सर्ग पारे । सिद्धाणं, बुद्धाणं XXX जो देवाण विदेवो XX X एक्कोवि नक्कारो XXX ये तीन स्तुतियाँ पढ़ते हैं, बाकी की गाथा में यथेच्छा से पड़ते हैं कोई नहीं पड़ते हैं । बाद में संसार के निस्तारक प्राचार्य को वंदन करे "एते तिण्णिी सिलोगा भण्णन्ति ॥ सेसा जहिच्छाए, " ततो पुण संसार नित्थार गाणं आयरियारणं वंदरणं × × ×कातूरणं (वंदनं कृत्वा) उक्कुंडग्रो 'उकंड़ बैठकर' आचार्य के सम्मुख विनय से रचित मस्तकाञ्जलि पुट होकर जब पहले आचार्य एक स्तुति पढ़ले बाद में वह पढ़े “अण्णहा अविएश्रो भवति " आयरिया वा किंचि अत्थपदं पच्छितं तरा लोकाय तो मा ताव आयरिया कस्सइ अतियरंमेरठवणं च विस्सरन्ति सांरयंति ताओ य ती एक सिलोगादि वड्ढन्तियाओ पद अक्खरादिहिं वा सरेण वा वड्ढन्तेण तिहि भणित्तणं ततो पादोसियं करेंति । एवं ता सायं ॥ ऐसा न होने से अविनय होता है। आचार्य कुछ अर्थ विशेष कहना चाहते हों अथवा प्रायश्चित विशेष कहना चाहते हों अथवा आचार्य किसी के लिये अतिचार की मर्यादा स्थापित करना चाहते हों, अगर भूली हुई कोई बात कहना चाहते हों तो कह सकें । स्तुतियाँ एक श्लोकादि वर्धमान पद अक्षर वाली, अथवा: - वर्धमान स्वर से तीन स्तुतियाँ पढ़ कर फिर प्राक्षेषिक काल ग्रहण आदि का Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१९ प्रतिक्रमण विधि संग्रह कार्य कर । ये शाम की विधि कही है। अब प्रभात में विधि क्या है सो कहते हैं। रात्रिक प्रतिक्रमण विधि__"पढमं सामाइयं कातूरणं चरित्तविसोधिनिमित्तं का उस्सग्गो, कीरइ चउवीसत्थयं कड्ढितूणं दंसविसेधिनिमित्तं बितिप्रो, ततिओ सुतणाण मिसोहि निमित्तं, तत्थ राइया तियारे चिंतेति तथा थुतीणं अवसाणा वा प्रारंभ जाव इमो ततिओं काउस्सग्गोत्ति पमाणं किं एत्थ ? सुत्तं गोसद्ध सतस्स पढमे पणुवीसा, वितिये विपणुवीसा ततिएणत्थि पमाणं । तत्थ आयरियो अप्पणो अतियारे चिंते तूण उस्सारेति जेण पुथठ्ठिता सथेवि, ततो वंदणगं, ततो पालोयणा, ततोपडिक्कमणं ततो पुणरवि वंदणगं, खामणं, ततो सामाइयाणंतरं का उस्सग्गो, ततो पच्चरवाणं, गुणधारणानिमितं, तत्थ चिंतेति"कम्हि नियोगेणिउत्ता गुरू हिं, तो तारिसं तवं संपडिवज्जिस्सामि, साहुणा य किर चिंते तव्वं-छम्मास खमणं जाव करेमि, ण करेज्जा, एगदिवसेण ऊणागं करेतु जाव पंच मास ४-३-२-१ अर्द्ध मासो, चउत्थं आयंबिलें एवं एगट्ठाणं, एगासणं, पुरिमढ्ढ णिव्वीय-पौरूसी णमोकारोत्ति। अज्जत्तणगाोंय किर कल्लं जोग वुढ्ढी का तव्वा । एवं वीरियायारो ण विराधितो भवति, अप्पायणिद्धाडितो भवति जं समत्थो कात्तं हिदये करेति (२६३-४) उस्सारेत्ता संथब कातु पच्छा वंदित्ता पडिवज्जति सब्वेहि विणमोक्कार इत्तेहिं समगं ऊट्ठ तव्वं, एवं सेसएसु वि पच्चक बारिणसु पच्छा, तिण्णी थुतीप्रो अप्पसहिं तहेव भण्णंति जथा घर कोई लियादि सत्ता ण उट्ठति, कालं वंदित्ता निवेदिति, जदि चेतियाणि अत्थि तो वंदति । थुति अवसाणे चेव पडिलेहणा, मुहणंतगादि, संदिसह पडिलेहेमि। बहु Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०] प्रतिकमण विधि संग्रह वेला य । एवं च कालं तुले तूणं पडिक्कमन्ति, जथा ततिया युती भाणिता पडिलेहण वेला य होति । XXएवं ता देवसिये भणितं।" . भावार्थ-प्रथम “करेमि भंते" इत्यादि सामायिक सूत्र पढ़कर चरित्र विशुद्धि निमित्तक का उस्सग्ग करें। दूसरा चतुर्विंशतिस्तव पढ़कर दर्शनविशुद्धिकारक कायोत्सर्ग करे, तीसरा श्रुतज्ञान विशुद्धि निमित्तक कायोत्सर्ग करे। उसमें रात्रि के अतिचार चिंतवे तथा । स्तुतियों की समाप्ति से लेकर यावत् यह तोसरा कायोत्सर्ग होता. है। इनमें श्वासोच्छ वासों का क्या प्रमाण है ? प्रथम कायोत्सर्ग में . २५, दूसरे में भी २५ और तीसरे में प्रमाण नहीं है । इसमें प्राचार्य अपने अतिचारों का चिन्तन करके कायोत्सर्ग पारते हैं, तब पूर्व स्थित सर्व साधु भी कायोत्सर्ग पारते हैं। फिर वंदन करते हैं फिर आलोचना और प्रतिक्रमण सूत्र पाठ फिर वंदना, क्षामणक, कायोत्सर्ग और बाद में प्रत्याख्यान गुण धारण निमित्तक कायोत्सर्ग में चिंतन करते हैं । गुरु ने किस कार्य में मुझको जोड़ा है इसका विचार करके सार्थक तप का चिंतन करना चाहिये ताकि आचार्य निर्दिष्ट कार्य की हानि न हो। " क्या छ मासिक उपवास करू ? यह नहीं होगा । एक दिन कम छ मास करू" यह भी नहीं होगा पञ्च मास, चार मास तीन मास, २-१ अर्धमास, चतुर्थ भक्त, आयंबिल, इसी प्रकार एक स्थान, एकाशन, पुरिमड्ढ, निर्विकृतिक, पौरुषी, नमस्कार सहित तक तप का चिंतन करें, जो तप करना हो वहाँ तक चिंतन करके कायोत्सर्ग पारे । आज जो तप किया है-उससे कल योगवृद्धि करनी चाहिये। जिससे वीर्याचार्य की विराधना न हो और आत्मा भी निर्धारित हो, फिर कायोत्सर्ग को पार कर “लोगस्स उज्जोयगरे" बोलकर वदना पूर्वक गुरु के पास प्रत्याख्यान करे। जितने भी एक Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१ प्रतिक्रमण विधि संग्रह प्रकार का प्रत्याख्यान करने वाले ह', वे सब एक साथ उठे। पच्चक्खाण करके पीछे धीमे शब्द से तीन स्तुतियाँ बोलें, जिससे छिपकली आदि शिकारी प्राणी न उठे और बाद में वंदनपूर्वक काल निवेदन करे, यदि वहां जिन प्रतिमाएँ हों तो उनका वंदन करे। स्तुति की समाप्ति के बाद ही मुहपत्ति आदि की प्रतिलेखना करें "संदिसह मुहपतियं पडिलेहेमि" इस प्रकार आदेश ले । प्रतिलेखना के अंत में “बहुवेला" के भी आंदेश ले । इस प्रकार काल की तुलना करके प्रतिक्रमण किया जाय जैसे तीसरी स्तुति पढ़ने के अनंतर ही प्रतिलेखना का समय हो जाय। उपर्युक्त रात्रि प्रतिक्रमण की विधि कही है। पाक्षिक विधि इस प्रकार है-दैवसिक प्रतिक्रमण करने के बाद गुरु के बैठने के बाद शिष्य कहते हैं-“हे क्षमाश्रमण ! पाक्षिक क्षामणक करना चाहते हैं" यह कह करके धामणक का पाठ बोले, "अब्भुट्ठियोमि" पाठ से कम से कम ३ को और अधिक से अधिक सबको क्षामणक करे बाद में गुरु उठकर यथारानिकतया खमाते हैं। दूसरे भी यथा रात्निकतासे खमाते हैं और सब कहते हैं "इमं देवसियं पडिक्कतं" यह देवसिक प्रतिक्रमण किया। पाक्षिक प्रतिक्रमण · कराइये, तब पाक्षिक प्रतिक्रमण सूत्र कहते हैं-पाक्षिक प्रतिक्रमण कहकर मूल गुण उत्तर गुणों में जो खंडन विराधन किया हो उसके प्रायश्चित के निमित्त ३०० श्वासोच्छ वास का कायोत्सर्ग किया जाता है। कायोत्सर्ग पार कर “लोगस्स" कहते हैं। फिर बैठकर मुख वस्त्रिका को प्रतिलेखना करके वंदना करते हैं, बाद पाक्षिक विनयातिचारों को खवाते हैं। दूसरे में शिष्य काल गुण का संस्तवन करते हैं जैसे "पियं च जंभे हट्टाणं"x गुरुविभणंति साहूहिं समं । Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण विधि संग्रह ततिये खमावि ताव बोधिताणं चेइय वंदणं च साहुवंदणं च निवेदेति इच्छामि खमासमणो पनि चेति याति वंदिता आयरिओ भणति"अहंपि वंदामि" चउत्थे अप्पगं गुरु सुणिवेदेति तत्थ जो अविण ओ कतो तं खमाति-इच्छामि खमासमणो तुझं संतियं अहा कप्पं० आयरिओ भणति “आयरिय संतिय" अहवा “गच्छ सन्तिय"। पंचमे . भंणतिजं विणएण होन इच्छामि सव्वं, इच्छामि खमासमणो । कताइ.. च में वितिकम्माई जाव तुब्भण्हं x णित्थरिस्सामोति कट्ठ सिरसा . मणसा मत्थएण वंदामोत्ति," गुरु ग्राह-"आयरिया नित्थारग्गा"। एवं . से साण वि सव्वेसिं साहूणं खामण वंदरणगं-पढमगं, जाहे · अतिः वियालो वा घातो वा ताहे सत्तण्डं पंचण्हं तिण्हं वा। पच्छा देवसियं पडिक्कमति । पडिक्कमंताणं गुरुसु वंदिएसु वढ्ढ माणिगाओ तिण्णि थतीओ आयरिया भणंति, इमे य अंजलिमउलिय हत्यया एक्केक्काए समत्ताए। णमोक्कारं करेंति पच्छा सेसगा वि भणंति । तदिवसंण सुत्त पोरिसी रणवि य अत्थ पौरुसी । थुतीओ भणंति, जीसे जत्तियाओ एवं चेव चातुम्मासि एवि गवरं इमो विसेसोउ चाउम्मासिप का उस्सग्गो पंच सत्ताणि उस्सासाणं, संवत्सरिए च अट्ठ सहस्सं उस्सासाणं, एस विसेसो, चाउम्मासिय संवत्त्छरिएसु सव्वेहिं मूल उत्तर गुणाणं आलोएतव्वं, तहिं पडिक्कमिज्जति चाउम्मासिए एगो उ वस्सय देवताए का उस्सग्गो की रति अब्भहिओ । पभाते आवस एकते चातुम्मासिय संवत्सरियेसु पंच कल्लाणयं गेहंति, पुव्वगहिता अभिग्गहा णिवेदितव्वा । जदिणसम्म अणुपालिता तो कूजितककराइ तस्स का उस्सग्गों कीरति, पुणरवि अण्णे गेहित्तव्वा, णिर भिग्गहेणं किर ण वद्दति अच्छित्त, संवच्छरिये य आवास ए कते पज्जोसवणाकप्पो कढ्ढिज्जति, पुचि चेव अणागतं पंचरत्त सव्वं साधूणं Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२३ प्रतिक्रमण विधि संग्रह सुणिताणं कड्ढिज्जति, कहिज्जति यति । (२६४-२६६) पाभाति अ-आवस्सए य अंतिम का उस्सगां कातु पच्चाक्खातव्वं, हिदये ठवेत्ता उस्सारेतु चउवी सत्थय वंदणगाणि विधिए कातु पच्चक्खाणस्स उवट्ठा इज्जति ।" (२७१-२७२) भावार्थ--पाक्षिक विनयातिचार का क्षामणक होने के बाद शिष्य जो शामणक करता है उनमें गुरु वचन निम्न प्रकार के हैं। दूसरे में गुरु कहते हैं “साहूहिं समं” तीसरे में गुरु प्रतिवचन-“अहंपि वंदामि" चतुर्थ में गुरु कहते हैं "आयरिय संतियं" अहवा “गच्छ संतियं" पंचम में गुरु कहते हैं "आयरिया नित्थारगा" इस प्रकार शेष सभी साधुओं के क्षामणक वंदनक होते हैं। यदि बहुत विकाल हो जाता हो, अथवा दूसरे आवश्यक कार्यों के सम्बन्ध में व्याघात पड़ता हो तो सात, पाँच अगर तीन साधुओं को क्षामणक करें बाद में शेष देवसिक प्रतिक्रमण करते हैं। प्रतिक्रमण के अन्त में गुरु को पंदन करने के बाद वर्धमान तीन स्तुतियाँ आचार्य कहते हैं और - शेष साधु हाथ जोड़े हुए एक-एक स्तुति के अन्त में 'नमो खमा समणाणं" यह नमस्कार करते हैं. बाद में शेष साधु भी वर्धमान • स्तुतियाँ बोलते हैं। उस रोज सूत्र पौरुषी और अर्थ पौरुषी नहीं करते हैं। जिनको जितने याद हों उतने स्तुति-स्तोत्र पढ़ते हैं । इसी प्रकार चातुर्मासिक प्रतिक्रमण में भी इतना विशेष है कि चातुर्मासिक प्रतिक्रमण में ५०० श्वासोच्छ वास परिमित कायोत्सर्ग करते हैं और सांवत्सरिक में एक हजार आठ श्वासोच्छ वास का कायोत्सर्ग किया जाता है। सर्व साधुओं को मूलगुणों और उत्तरगुणों में लगे हुए दोषों की आलोचना करना चाहिये फिर प्रागे प्रतिक्रमण करे। चातुर्मासिक प्रतिक्रमण में उपाश्रय की देवता का एक कायोत्सर्ग Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४] प्रतिक्रमण विधि संग्रह अधिक किया जाता है। दूसरे दिन प्रभात में प्रतिक्रमण करने के बाद चातुर्मासिक तथा सांवत्सरिक प्रतिक्रमणों में पंच कल्याणक तप ग्रहण करे और पूर्व गृहीत अभिग्रह गुरु के आगे निवेदन करे । यदि अभिग्रह यथार्थ पाले न गये हों तो कूजितकर कराइत का कायोत्सर्ग करे और फिर नये अभिग्रह धारण करे। परन्तु साधु को अभिग्रहरहित रहना अच्छा नहीं। वार्षिक पर्व के प्रसंग पर सांवत्सरिक प्रतिक्रमण करने के उपरान्त पर्युषण कल्प पढ़ा जाता है । सांवत्सरिक दिन के पूर्वतन अनागत पंचम रात्रि से आरम्भ किया जाता है। सर्व साधु सुनें इस प्रकार पढ़ा जाता है। (२६४-२६६) .... प्राभातिक प्रतिक्रमण में अन्तिम कायोत्सर्ग करके जो प्रत्याख्यान करना हो उसे हृदय में स्थापन करले फिरं कायोत्सर्ग पार के चतुर्विशतिस्तव पढ़े और गुरु की वंदना करें। फिर विधिपूर्वक प्रत्याख्यान करने के लिए गुरु के पास उपस्थित हो । (२७१-२७२) Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा परिच्छेद श्रमण-प्रतिक्रमण-विधि-- .. (पाक्षिकसूत्रचूर्ण्यनुसारी) यहाँ 'सात्रु' सायंकालीन सर्व कर्त्तव्य करके सूर्यास्तमन वेला में सामायिका दिसूत्र पढ़कर दिवस सम्बन्धी अतिचारों के चिन्तन के लिए कायोत्सर्ग करते हैं। उसमें रात्रिक मुहपत्ति प्रतिलेखना से लगाकर अधिकृत चेष्टा कायोत्सर्ग पर्यन्त दिवस के अतिचारों का वि-तन करते हैं। उसके बाद नमस्कार से कायोत्सर्ग पाकर चतुर् . विशतिस्तव पढ़ते हैं. फिर संडाशक प्रतिलेखना करके उकड़ बैठकर मस्तकपर्यन्त ऊपर के शरीर का प्रमार्जन करते हैं और परम विनय पूर्वक त्रिकरण शुद्ध कृतिकर्म करते हैं। इस प्रकार बन्दना कर खड़े होकर दोनों हाथों में रजोहरण पकड़कर शरीर को कुछ नवा. कर पूर्व चिंतित दोषों को यथारात्निक-क्रम से साधु की भाषा में जिस प्रकार गुरु अच्छी तरह सुने, उस प्रकार प्रवर्धमान संवेग भाव वाले, कपट अहंकार से विमुक्त होकर विशुद्धि के निमित्त अपने अतिचारों की आलोचना करे। अगर अतिचार दोषायत्ति नहीं है तो शिष्य को “संदिसह०" यह कहना चाहिये इस पर गुरु "पडिक्कमह" इस प्रकार कहेंगे । यदि अतिचार दोष है तो उनका परिमार्धादि प्रायश्चित्त देते हैं, तब गुरुदत्त प्रायश्चित्त को स्वीकार कर साधु Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६] प्रतिक्रमण विधि संग्रह विधिपूर्वक बैठकर गुरु की तरफ ध्यान देकर यथार्थ उपयोग पूर्वक अनवस्था प्रसंग में डरते हुए प्रतिपद हृदय में संवेग भाव को प्राप्त करते हुए दंश-मशकादि के परीषहों को न गिनते हुए पद-पद के क्रम सामायिक आदि से लेकर प्रतिक्रमण सूत्र को पढ़े वा सुने "तस्स धम्मस" यह पद पूरा होने के बाद खड़े होकर " अब्बुट्ठियोमि प्राराहणाए" इत्यादि से लेकर यावत् "वन्दामि जिने चउव्वीसं" यहाँ तक पढ़कर गुरु 'विधिपूर्वक बैठ जावें तब साधु वन्दन करते हैं"इच्छामि खमासमरणो प्रभुट्ठियोमि प्रभिन्तर पक्खियं खामेॐ ।" गुरु कहते हैं- "हमवि खामेमि तुब्भे" तब साधु कहते हैं- "पन्नर-: सङ्खु दिवसाणं, पन्नरसह, गं राईणं जिकिंचि अपत्तियं परपत्तियं". इत्यादि, इस प्रकार से जघन्य से तीन अथवा पाँच चातुर्मासिक में और सांवत्सरिक में सात साधुओं को खमायें उत्कृष्टतया तीनों स्थानों में सर्व साधुओं को खमाया जाना है । यह 'संबुद्धाक्षामण' रात्निकों कोखमाने के लिये हैं । इसमें छोटा साधु बड़े साधु को खमाता है यह इसका तात्पर्य है बाद में कृतिक्रमं करके खड़' होकर प्रत्येक क्षामणा करते हैं । इसकी यह विधि है - गुरु, अन्य वा जो मण्डली में बड़ा हो प्रथम उठकर खड़े खड़े ही अपने से छोटे को कहते हैं 'अमुक नाम श्रमण "भितर पक्खियं खामेमो पनरसह णं दिवसाणं पनरसह राईणं इत्यादि । कनिष्ठ भी भूमितल में जानु और मस्तक लगाकर कृताञ्जलि होकर कहता है “भगवं श्रहमवि खामेमि तुब्भे पन्नरसह, गं" इत्यादि । यहाँ शिष्य पूछता है- गुरु उठकर क्यों खमाते हैं ? गुरु कहते हैं सर्वसाधुओं को यह जताने के लिये कि "ये महात्मा अहंकार को छोड़कर द्रव्य से उठकर खमाते हैं और भाव से भी उठकर Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२७ प्रतिक्रमण विधि संग्रह खमते हैं।" इसके अतिरिक्त गुरु से जो जाति आदि से श्रेष्ठतर होंगे वे ऐसा विचार न करेंगे कि यह नीचे है और हम उत्तम हैं, इसलिये गुरु भी शिर नवां कर खमाते हैं। ऐसे ही गुरु से उतरते नम्बर के साधु यथारालिकों को खमाते हैं। यावत् अन्तिम दो साधुओं को छोड़कर अन्तिम दो साधुओं में से भी उपान्त्य साधु अन्तिम साधु को खमाता है। .. तब कृतिकर्म करके सब इस प्रकार कहें-"देवसियं आलोइयं पडिवकन्ता पक्खियं पडिक्कमामो" तब गुरु कहे “सम्म पडिक्कमहः । उक्त कथन पाक्षिकचूणि का है। इस विषय में 'आवश्यक' का अभिप्राय यह है-“गुरु उठेऊण जांहा रायणियाए उठ्ठिप्रो चेव खामेइ, इअरेवि जहारायणियाए" सव्वेवि अवणय उत्तमंगा भति "देवसियं पडिकल पक्खिन खामेमो पन्नरसह णं दिवसाणं" इत्यादि। एवं सेसाविजहा रायणियाए खामेन्ति । पच्छा वन्दित्ता भणंति."देवसियं पडिक्कन्तं पक्खियं पडिक्कमावेह"ति तमो गुरु गुरुसंदिट्ठो वा "पक्खियं पडिक्कमणणं सुत्तं कड्डई" सेसगा जहा सत्ति काउ सग्गाइसंठिया धम्मज्झाणो वगया सुणंति । तच्चेदं सूत्रं "तिथ्थंकरैयतिथ्थे' (पाक्षिक सूत्रवृत्तितः २-३) ___ इसका भाव यह है कि गुरु उठकर यथा रात्निक के क्रम से खड़े २ ही खमाते हैं दूसरे भो ज्येष्ठानुक्रम से सर्व शिर नवाँकर कहते हैं "देवसिक प्रतिक्रमण कर लिया, अब पाक्षिक प्रतिक्रमण करवाइये ।" बाद में गुरु अथवा गुरु संदिष्ट श्रमण पाक्षिक सूत्र पढता है दूसरे शक्त्यनुसार कायोत्सर्गादि मुद्रा से संस्थित हो धर्म ध्यान में लीन होकर सुनते हैं। वह पाक्षिक सूत्र "तीर्थकरे इत्यादि है। (पाक्षिकसूत्र वृत्ति से २-३) Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२८ प्रतिक्रमण विधि संग्रह अब आगे की प्रतिक्रमण विधि कहते है । उसके बाद शेष प्रतिक्रमण विधि इस प्रकार है-"तो उठ्ठियपक्खपडिक्कमणसुत्त. कित्तणावसाणे विहिणा निसिइत्ता “करेमि भंते सामाइयं" इत्यादि सव्वं निविट्ठपडिक्कमणं कड्डित्ता उद्घट्ठिआ "तस्स धम्मस्स अब्भुठ्ठिओ मित्ति" एवमाद्यम् वदामि जिणे चउव्वीसं" ति आलावगषज्ज-. वसाणं सुत्तं कढ्ढन्ति । कढिए य "करेमि भंते सामाइय" इच्चाइ काउस्सग्गदंडगुच्चारणपुरस्सरं उद्धट्ठिया चेव मूलुत्तर गुणेमु. . जंखडियं तस्स पायच्छित्त निमित्तं उस्सास सयतिगपरिमाणं काउ.. स्सग्ग करेंति । तत्थ बारस उज्जोयगरे चिन्तन्ति । चउमासिये. पञ्चसडस्स समारणं, उज्योगरे वीसं, संवच्छरिए अट्ठत्तरसहस्सुस्सासमाण उज्जोयगरे चालीसं, नमोक्कारं च चिंतन्ति ।" तओ विहिणा पारित्ता चउवीसत्थय पढंति, पच्छा उवतिट्ठामुहणं' तगं कायंच पडिलेहित्ता किइकम्पं करेंति । तो धरणीयलनिहिय जाणुकरयलुत्तमंगो समगं भणंति-"इच्छामि खमासमणो अब्भुट्ठिओमि अब्भितरपक्खियं खामे पन्नरसहं दिवसाणं पन्नरसहं राईणंजकिचि"xxx बाद में खड़े-खड़े पक्षप्रतिक्रमण सूत्र बोलें, अन्त में विधिपूर्वक बैठकर 'करेमि भंते सामाइयं' इत्यादि सर्व निविष्ट प्रतिक्रमण सूत्र कह कर खड़ा होवे । 'तस्स धम्मस अब्भुठियोमि' इत्यादि से लेकर 'वंदामि जिणे चउव्वीसं' यहाँ तक अन्तिम पालापक बोलकर "करेमि भंत सामाइग.” इत्यादि कायोत्सर्ग दण्डक पढ़कर मूलोत्तर गुणों में जो कुछ खण्डित हुआ हो उसके प्रायश्चित के निमित्त ३०० श्वासोच्छ वास परिमाण कायोत्सर्ग कर कायोत्सर्ग में १२ उद्योतकरों का . चिन्तवन करना, चातुर्मासिक प्रतिक्रमण के कायोत्सर्ग में ५०० श्वासोच्छ्वास परिमाण वाला २० उद्योतकरों का चिंतन करे। Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२६ प्रतिक्रमण विधि संग्रह 'सांवत्सरिक कायोत्सर्ग में एक हजार आठ श्वासोच्छ वास पारमाण वाला कायात्सर्ग करें इस कायोत्सर्ग में ४० उद्योतकर और १ नमस्कार चितवन करते हैं। बाद में विधि से कायोत्सर्ग पूरा कर ऊपर चतुर्विशतिस्तव पढ़े, बाद में बैठकर मुखवस्त्रिका को और उसी से शरीर की प्रतिलेखना करके २ वन्दनक दें। बाद में पृथ्वीतल पर जानु हाथ और मस्तक रखकर एक साथ बोलें “इच्छामि खमासमणो अब्भुट्ठिओमि०" हे क्षमाश्रमण मैं खड़ा हुआ हूँ । पक्षभर के अपराधों को खमाने के लिये १५ दिन और १५ रात्रियों में जो अपराध हों उनको क्षमा कीजिये। यहाँ आचार्य कहते हैं-"मैं भी खमाता हूं"। इसके बाद सर्वसाधु आचार्य के प्रति पार क्षामनक (क्षमापनक) करके 'देवसिक' प्रतिक्रमण करे वहाँ क्षामरणम निमित्त वंदनक करके कहे 'इच्छामि खमासमणो अब्भुट्ठिओमि अभितर देवसियं खामे उ किंचि अंपत्तियं" इत्यादि। बाद में आचार्य के सामोप्य निमित्तक कृतिकर्म करें और सामायिक . सूत्र का उच्चारण करके चारित्र को विशुद्धि के लिये पचास श्वासो च्छ वास परिमाण कायोत्सर्ग करे । नमस्कार से कायोत्सर्ग को समाप्त कर दर्शन विशुद्धि के निमित्तक नामोत्कीर्तन करें "लोगस्स उज्जोअगरे." इत्यादि। उसके बाद दर्शन विशुद्धिनिनित पच्चीस श्वासोच्छ वास परिमाण कायोत्सर्ग करें। नमस्कार से कायोत्सर्ग समाप्त कर ज्ञानविशुद्धिनिमित्तक श्रुतज्ञानस्तव पढ़ें-"पुक्खर बरदी चड्ढे'' इत्यादि । उसके बाद श्रुतज्ञानविशुद्धिनिमितक २५ श्वासोच्छ वास परिमाण कायोत्सर्ग करें । बाद में नमस्कार पूर्वक Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०] प्रतिक्रमण विधि संग्रह कायोत्सर्ग पूरा करके सिद्धस्तव को पढ़ें । "सिद्धाणं बुद्धाणं" इत्यादि। उसके बाद भवन देवी (शय्यादेवी) का कायोत्सर्ग करें, उसमें २७ . . . श्वासोच्छ वास पूरे करे। यह आवश्यक चूणि का अभिप्राय है, परन्तु आचरणा से ८ श्वासोच्छ वास पूरे करते हैं, फिर विधिपूर्वक बैठकर मुखवस्त्रिका और मस्तक पर्यन्त शरीर की प्रतिलेखना कर वन्दनक देते हैं। वन्दना कर आवश्यक पूरा करके निरतिचार होने पर भो पञ्चकल्याणक तप ग्रहण करें और पूर्व गृहीत . अभिग्रह गुरु के आगे निवेदन करें यदि अभिग्रह यथार्थ रूप में नहीं । पाले हों तो उनको विशुद्धि के निमित्त कायोत्सर्ग करें और फिर नये अभिग्रह ग्रहण करें। अभिग्रहरहित रहना नहीं चाहिए। . सांवत्सरिक प्रतिक्रमण में आवश्यक करने के बाद पर्युषण कल्प पढ़ा जाता है । दिवस का कल्प पढ़ना नहीं कल्पता न श्रमणी, गृहस्थ, पार्श्वस्थादि के आगे पढ़ा जाता है । जिस क्षेत्र में कल्प दिवस में पढ़ा जाता है. जैसे-आन-दपुर में मूल चैत्य में दिवस को भी सर्वजन समक्ष कल्प पढ़ा जाता है, पर वहाँ भी साधु नहीं पढ़ता, साधु सुन सकता है, इसमें दोष नहीं, पढ़ता पाश्वस्थ है। पार्श्वस्थ अथवा अन्य पढ़ने वाले की गैर हाजरी में ग्राम स्वामी अथवा श्रावकों की प्रार्थना से दिवस में भी पढ़ा जाता है, वहां यह विधि है पर्युषणा के पूर्व ५वीं रात्रि से अपने उपाश्रय में देवसिक प्रतिक्रमण करने के बाद काल ग्रहण करें, काल शुद्ध हो अथवा अशुद्ध तो भी स्वाध्याय प्रस्थापित करके कल्प पढ़ा जाता है। इस प्रकार चार राशियों में करना । पर्युषणा की रात्रि में कल्प पढ़ने के बाद सर्व साधु कल्प समाप्ति निमित्तक कायोत्सर्ग करते हैं। Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३१ प्रतिक्रमण विधि संग्रह ___"पज्जो सवणकप्पस्स समप्पावणियं करेमि काउस्सग्गं, जखंडियं, जविराहियं, जं नपडिपूरि अं (सव्वोदंडो कड्ढियव्वो) जाव वोसिरामित्ति। लोगस्सुजोयगरं चिंतेऊण उच्चारित्ता पुणो लोगस्सुजोयगरंकटुता सव्वेसाहबोनिसीयंति । जेणकड्ढिओ सो तहिं कालस्सडिक्कमइ। ताहे वरिसा कालट्ठवणा ठविज्जइ, तं जहा"उणोयरिया कायव्वा, गिइ-णवगपरिच्चाओ काययो जम्हा निधोकालो बहुपा गा मेइणी, विज्जुगज्जियाईहिं मय गो दिप्पइ, पीठफलगाइ संथारगाणं, उच्चार-पासवण-खेलमत्तगाण य परिभोगो कायव्वो, निच्चं लोओ कायव्वो सेहो न दिक्खियव्वो, अभिनवो उवही न गेहयो , दुगुणं वरिसो वगरणं धरेयव्वं, पुव्वगहियाणं छार उगलाईणं परिच्चाओं कायव्वो, इयरेसि धारणं कायव्वं, पुवावरेणं सकोस जोयणाओ परओ न गंतव्वं” इत्यादि । जिसने सूत्र पढ़ा है वह काल प्रतिक्रमण करे फिर वर्षा काल की स्थापना करे जैसे ऊनोदरी तप करना, नव विकृतियों का त्याग करना, क्योंकि काल स्निग्ध हैं पृथ्वी जीवाकुल होती है, विद्युत - गर्जनादि से काम दीप्त होता है पोठ, फलक, संस्तारक का उपभोग करना, उच्चार, प्रश्रवण, खेलमात्रकों का जयणा से परिभोग करना, - नित्य लोव करना शिष्य को दीक्षा नहीं देना नवीन उपधि को न लेना, द्विगुण वर्षा के लिये उपकरण ग्रहण करना, पूर्व गृहीत रक्षा उगलके का त्याग करना अोर नये ग्रहण करना, पूर्व-पश्चिम होकर सवा योजन के बाहर न जाना इत्यादि वर्षाकाल की स्थापना करना पक्ष, चतुर्मास और सांवत्सरिक पर्यो में यथाक्रम चतुर्थ, षष्ठ, अष्टम तप करना, चैत्य वन्दन परिपाटी करना श्राबकों को धर्मोपदेश करना। .. . Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२] प्रतिक्रमण विधि संग्रह ... यहाँ प्रसंग से रात्रिक प्रतिक्रमण की विधि कही जाती हैं- पक्ष, . चातुर्मास, सांवत्सरिक पर्वो में यथाक्रम चतुर्थ, षष्ठ, अष्टम, सप्त . चैत्य वंदन, परिपाटी और श्रावकों को धर्मकथा कहनी चाहिये । रात्रिक प्रतिक्रमण विधि-- प्रथम सामायिक सूत्र कहकर चारित्र विशुद्धि के निमित्त २५ श्वासोच्छ्वास परिमाण कायोत्सर्ग करते हैं। दर्शन विशुद्धि निमित्त.. ऊपर चतुर्विंशतिस्तव पढ़ते हैं और २५ श्वासोच्छ वास परिमाण. कायोत्सर्ग करते हैं। नमस्कार से कायोत्सर्ग पार कर श्रुत ज्ञान. . विशुद्धि निमित्त श्रुतज्ञानस्तव पढ़ते हैं, उसमें प्रादोषिक स्तुति आदि . से लेकर अधिकृत कायोत्सर्गपर्यन्त तक के अतिचारों का चिन्तन करते हैं और नमस्कार से कायोत्सर्ग पूरा कर सिद्धों की स्तुति . कहकर पूर्वोक्त विधि से वन्दना करके आलोचना, करते हैं, फिर सामायिकसूत्र पूर्वक प्रतिक्रमण करते हैं। प्रतिक्रमण सूत्र के अन्त में वन्दनपूर्वक क्षामणा करते हैं फिर कृतिकर्म करके सामायिक पूर्वक कायोत्सर्ग करते हैं। उसमें चिन्तन करते हैं-हमको गुरु ने किस काम में नियुक्त किया है उसका विचार करके तप स्वीकार करेंगे। जिस प्रकार के तप से गुरु के नियोग की हानि न हो, फिर वे तप के सम्बन्ध में विचारते हैं। क्या छः मास पर्यन्त उपवास करें ? यह शक्य नहीं है। एक दिवस कम छ:मास की तपस्या करें? यह करने की भी शक्ति नहीं है। इस प्रकार उतरते-उतरते उन्तीस दिन कम छःमासी तप करें उसकी शक्ति के अभाव में ५ मास, ४ मास, ३ मास, फिर २ मास और १ मास क्षपण (तप) तक का चिन्तन करें। मासिक तप की शक्ति के अभाव में एक एक दिन कम करते हुए १४ दिन कम करे, Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण विधि संग्रह • फिर भी शक्ति न हो तो ३२ भक्त, ३० भक्त यावत् चतुर्थ भक्त तक तपका चिन्तन करे। चतुर्थ भक्त तप करने की भी शक्यता न होने पर आयम्बिल, एकस्थानक, एकाशन, पुरिमार्ध, निर्विकृतिक, पौरुषी अथवा नमस्कार सहित जो भी तपस्या करने को समर्थ हो वह मन में निश्चित कर प्रत्याख्यान करे। फिर बैठकर वर्धमानस्तुतित्रय कहे। यहां विशेषता यह है कि स्तुति धीरे शब्द से बोले जिससे गृहकोकिलादिहिंसक प्राणी 'जग' न जायें। उसके बाद देववन्दन करे फिर बहुवेल सदिसाने के आदेश लें, उसके बाद मुहपत्ति प्रतिलेखन करके रजोहरण की प्रतिलेखना करे, फिर उपधि प्रतिलेखना का आदेश ले और प्रतिलेखना करे। बाद में वसतिका प्रमार्जन करे। फिर काल निवेदन करे। अन्य आचार्य कहते हैं-स्तुति पठन के अनन्तर ही काल निवेदन करना चाहिये। इस प्रकार प्रतिक्रमण प्रारम्भ करते समय काल की तुलना करे, जिससे प्रतिक्रमण के अन्त में स्तुति कहने के उपरान्त ही प्रतिलेखना का समय हो जाय । .(पाक्षिक सूत्र वृत्तितः पत्र ७६-७७) भावदेव सूरिकृत यति दिनचर्या की प्रतिक्रमण वधि-- "दिणसेसे कयथंडिल-पडिलेहो पडिक्कमेइ गोरियं । जं किं चि अणाउत्तं, समरिय कुणइ पच्छित्तं ।।३२।। तो पडिक्कमेई सूरे, अद्धनिबुड्ड जहा भणइ सुत्त । सम्मते पडिक्कमणे, ताराउ बि, तिन्नि, दोसति ।। ३।। चेइयवंदण भयवं-सूरि, उवज्झाय-मुणि-खमासमणा। सव्वस्सवि, सामाइय, देवसियअइयारउसग्गो ।।३४।। सयणा-सणन्न-पाणे, चेइय जइ सिज्ज काय उच्चारे। समिई-भावण गुत्ति, वितहायरणं मि अईयारे ।।३।। Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४] प्रतिक्रमण विधि सग्रह * उज्जोय-पुत्ति-वंदण, मालोयण ठाणे कमण प सुनं। अब्भुटिठय-चियक्ख।मण, वंदणं अल्लयाबणियं ।।३६।। । चरणाइ त उस्सग्गा, उज्जो अवितण कमसो। सुप्रदेवयाइ थुईओ, पुनिच्चिय तत्थ तिन्नि थई ॥३७॥ सक्कत्थु पायच्छित्त-उस्सग्गो. सज्झायो, इयदिणस्स पडिकमणे। . तं पुण पक्खमाइसु, अल्लियावणियपज्जन्ते ।।३।। पोति चिय वंदण-मालोयणं च, पक्खिय सुत्तं सुत्तं च वंदणयं। ... पत्तेय खामणं च, वंदणाइ सामाइयं ॥३६।। : मूलोत्तर-गुण सोही, उस्सग्गुज्जोग्र, पुत्तिवंदणयं। - पज्जत खामणाणि य, पुणोवि पडिकमइ. देवसियं ।।४०॥ .. पक्खे बारस चउमासएसु वीसं वरिसिएसु उस्सग्गो। चालीसा सनमुक्काराइ उज्जोया ॥४॥ ___ (भावदेवसूारकृत यतिदिनचर्या पत्र ५५-५६) __ भावार्थ-कुछ दिन शेष रहने पर स्थंडिल प्रतिलेखना करके गोचरचर्या का प्रतिक्रमण करे । दिन भर में जो कुछ उपयोग शून्यता से अतिचार लगे हों उनका प्रायश्चित करे। प्रतिक्रमण उस समय प्रारम्भ करे जबकि सूर्य का प्राधा बिम्ब डूब गया हो। उस समय "करेमि भंते सामाइयं" यह सूत्र पढ़े और प्रतिक्रमण की समाप्ति में दो तीन तारिकाएं आकाश में दीखतो हों यह प्रतिक्रमण करने का समय है। प्रथम चैत्यवन्दन कर भगवान, आचार्य, उपाध्याय और मुनियों के क्षमाश्रमण देकर “सव्व सवि०" यह बोलकर "करेमि भंते सामाइयं" का पाठ बोलकर देवसिक अतिचार चिन्तन का कायोत्सर्ग करे। अतिचार चिन्तन में निम्नलिखित गाथा मन में बोल कर उसका अर्थ चिन्तन करे। शयन, आसन, आहार, पानी, Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३५ प्रतिक्रमण विधि संग्रह जिन चैत्य, यातधर्म, उपाश्रय, कायिकी (लघुनीति) उच्चार, (स्थंडिल जाना, मलोत्सर्ग) समिति (पंचसमिति,), द्वादश भावनायें, तीन गुप्तियां इन सभी कार्यों में विपरीत पाचरण करने पर अतिचार दोष होते हैं। इन बातों में दिन भर में जो कोई अतिचार हुआ हो उसका चिंतन करे। ऊपर चतुर्विंशतिस्तव पढ़कर मुहपत्ति प्रतिलेखना पूर्वक वन्दन करे । फिर अतिचारों की गुरु के सामने आलोचना करे। फिर बैठकर प्रतिक्रमण सूत्र पढ़ें। "अब्भुट्ठियोमि०" सूत्र से क्षमापन कर', फिर वंदन, गुरु सामीप्य निमित्तक वन्दन करे। चारित्रादि तीन की शुद्धि के लिये कायोग करे। कायोत्सर्ग में चतुर्विंशतिस्तव का चिन्तन करे । श्रुत देवतादिकी स्तुतियाँ कहे। मुहपत्ति प्रतिलेखना पूर्वक बन्दन कर बर्धमान तीन स्तुतियां बोले। शकस्तव पढ़कर प्रायश्चित का कायोत्सर्ग करे । कायोत्सर्ग पार कर स्वाध्याय करे । इस प्रकार देवसिक प्रतिक्रमण की विधि करना चाहिये । ... उपर्युक्त विधि के उपरान्त पाक्षिक अादि प्रतिक्रमणों में गुरु - सामीप्य पर्यन्त विधि करके मुहपत्ति प्रतिलेखना कर वन्दनक देकर आलोचना करें । पाक्षिकसूत्र पढ़े । प्रत्येक खामणा करे फिर वन्दनापूर्वक सामायिक का पाठ बोलकर मूल तथा उत्तर गुणों की शुद्धि के लिए कायोत्सर्ग करे । कायोत्सर्ग पूरा कर ऊपर चतुर्विंशति स्तव पढ़े। बाद में मुहपत्ति प्रतिलेखना कर वन्दनक दे और पर्यन्त क्षामणा करे। उसके बाद शेष दैवसिक प्रतिक्रमण की विधि करे। पाक्षिक प्रतिक्रमण में बारह, चातुर्मासिक में बोस और सांवत्सरिक प्रतिक्रमण में नमस्कार सहित चालीस उद्योतकरों का कायोत्सर्ग करे। (भावदेवसूरिकृत यतिदिनचर्या पत्र ५५-५६) Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६] प्रतिक्रमण विधि संग्रह श्री हारिभद्रीय पञ्चवस्तुकोक्त प्रतिक्रमण विधिः "जइ पुण निव्वाघाओ, आवास तो करिति सव्वेवि । सढढाई कहणवाघा-2 याइ, पच्छा गुरु ठति ।४४५।। सेसा उ जहा सत्ति, आपुच्छिताण ठनि सट्ठाणे । सुत्तत्यपरणहेउ, पायरिये ठिमि देवसिग्रं ॥४४६।। एत्थ उ कय सामाइया, पुव्वं गुरुणो अ तय व साणंमि । अइयारं चितंती, तेगणेव भणंतदण्णे ॥४४॥ आयरियो सामइयं कढ्ढइ जाहे तहट्ठिया तेऽवि । ताहे अणु पेहंती, गुरुणा सह पच्छ देवसिय ॥४४६॥ जा देवसिग्रं दुगुणं, चितेइ गुरु. अहिंडिओ चिढें । बहुवावारा इअर एग गुणं ताव चितिति ।।४५०॥ उस्सग्ग समत्तीए, नवकारंण मह ते उ पारिति । चउवीसगं ति दंड, पच्छा कढंत उवउत्ता ।।४५४।। संडंसं पडिलेहिन, उवविसिअ तओ गवर मुहपोत्ति। पडिलेहिउ पमज्जिय, कायं सव्वेवि उवउत्ता ॥४५५।। . किइकम्मं वंदणगं, परेण विणएण तो पति । सव्वप्पगारसुद्ध, जह भणियं वीअरागेहिं ॥४५६।। वंदित्त, तओं पच्छा, अद्धावणया जह क्कमेणं तु । उभयकर-धरि अलिंगा, ते आलोएति उवउत्ता ।।४५८।। तस्स य पायच्छित्तं जं मग्गविउ गुरु उवइसंति । तं तह अणु चरियव्वं, अणवत्थ पसंग भीएणं ॥४६५॥ आलोइ ऊरण दोसे, गुरुणो पडिवन्नपायछित्ताओ। सामाइय पुव्वयं ते, कढिंढति तओ पडिक्कमणं ॥४६६।। Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण विधि संग्रह परिकढिऊण पच्छा, किइकम्मं काउ नवरि खामंति । श्रायरियाई सब्वे, भावेण सुए तहा भणित्रं ॥ ४६८ | | आयरिय-उवज्झाए, सीसे साहम्मि ए कुलगणे अ. । जे मे केइ कसाया, सव्वे तिविहेण खामेमि ॥ ४६६ || सव्वस्स समरण संघस्य, भगवओ अंजलि सिरे काउ | सव्वं खमावइत्ता, खमामि सव्वस्स अहयं प ||४७० ॥ सव्वस्स जीवरासिस्स, भावओ धम्मनिहिय निअचित्तो । सव्वं खमावइत्ता, खमामि सव्वस्स अहयंपि ॥ ४७१ ॥ X X X खामित्त तओ एवं करिति सव्वे वि नवरमणवज्जं । रे सिमि दुरालोइय - दुप्पडिकंतस्स उस्सग्गं ॥। ४७८ || X X X सामाइय पुव्वगं तं करिति चारित सोहण निमित्त । पिय धम्मवज्जभीरुं, पण्णासुस्सासगपमारणं ॥ ४८३ ॥ ऊसारिऊण विहिणा, सुद्धचरिता थयं पकढत्ता | तउस्सग्गं ।। ४८४ | कढ्ढति तम्रो चेइय-वंदणदंडं दंसण सुद्धिनिमित्तं, उस्सारिऊण विहिणा, कढन्ति सुनाणस्सुसगं करिति सुत्तइयार विसोहणनिमित्तमह पारिउ विहिणा ||४८६ ॥ कति पणवीसगं पमाणेणं । सुअत्थवं ताहे ॥ ४८५ ॥ पणवीस गप्प मारणं । X X X सुद्धसयलाइयारा, सिद्धाण थयं पदंति तो यच्छा । पुवरण विहिणा, किइकम्मं दिति गुरुरणो उ ॥ ४८८ ॥ सुकयं आणत्तिमिव, लोए काऊण सुकयकिइकम्मा | चढ्ढतिम्रो थुप्रो, गुरुथुइगहणे कए तिष्णि || ४८७ || [३७ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण विधि संग्रह • थुइ मगलम्मि गुरुणा, उच्चारिए सेसगा थुई विति । चिठ्ठति तओ थेवं, कालं गुरु पाय-मूलमि ।।४६०॥ पम्हुट्ठमेरसारण-विणओ उण फेडियो हवइ एवं । आयरणाइ सुअदेवय-माईण होइ उस्सग्गो ।।४६१।। एतद् गाथार्धस्य टोका-एतावत् प्रतिक्रमणं, आचरणया श्रुतदेवतादीनां भवति कायोत्सर्गः, आदिशब्दात् क्षेत्र-भवनदेवता परिग्रहं इति गाथार्थः ॥४६१॥ चाउम्मासिय-वरिसे, उस्सग्गो खित्तादेवयाए उ। पक्खिअ-सिज्ज सुरीए, करिति चउमासिए वेगे ॥४६२।। . वृतो-“चातुर्मासिके वार्षिके च प्रतिक्रमणे' इति गम्यते, कायोत्सर्गः, क्षेत्रदेवताया इति । पाक्षिके शय्यासुरायाः भवनदेवताया इत्यर्थः, कुर्वन्ति, चातुर्मासिकेऽप्येके मुनयः इत्यर्थः ॥४२॥ ' पासोसिआई सव्वं, विसेससुत्ताओ एत्थ जाणिज्जा । पच्चूस-पडिक्कमणं, अहक्कम कित्तइस्सामि ।।४६३।। सामइयं कढ्ढित्ता, . चारित्तसुद्धत्त्थपढममेवेह । पणवीसुस्सासं चिअ, धीरा उ करिति उस्सग्गं ।।४६४।। उस्सारिऊण विहिणा, सुद्धचरित्ता थयं पकढ्ढित्ता। दंसणसुद्धि निमित्तं, करिति पणुवीस उस्सग्गं ।।४६५।। ऊसारिऊण विहिणा, कढिंढति सुअत्यवं तओ पच्छा । काउस्सग्गमणिययं, इहं करेंती उ उवउत्ता ॥४६६॥ पाउसिभ थुइमाई, अहिगय उस्सग्गचिट्ठपज्जते। चितिति तत्यसम्मं, अइयारे राइये सव्वे ॥४६७॥ तइए निसाइआरं, चिंतइ चरिमे अ किं तवं काहं । छम्मासा एकदिणाइ, हाणि जा पोरिसि नमो वा ॥४६६।। . XXX Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण विवि संग्रह तइए निसाइयार, चितिअ उकण पार ऊण विहिणाउ । सिद्धथयं पढित्ता, पडिक्कमंते जहा पुचि ।।५००। खामित्त करिति तओ, सामाइयपुव्वगं तु उस्सग्गं। तत्थ य चितिति इम, कत्थनिउत्ता वयं गुरुणा ॥५०२॥ जह तस्स न होइ च्चिय, हाणी कज्जस्स तह जयंतेवं । छम्मासाइकमेणं, जा सक असढभावारणं ॥५०३।। तं हियर काऊणं, किइकम्मं काउ गुरुसमीवंमि । गिण्हंति तओ तं चिय, समंगं नवकार माईप्र । ५०४।। (पंचवस्तुक. पत्र ७४ से ८२ पर्यन्त) दैवसिक प्रतिक्रमण विधि__ भावार्थ-यदि नियाघात प्रतिक्रमण हो तो सब साथ में प्रावश्यक करते हैं और श्राद्ध धर्मकथादि व्याघात हो तो शेष साधु स्थान पर जा बैठते हैं और बाद में गुरु भी आकर अपने स्थान पर बैठते हैं। व्याघात अवस्था में शेष सभी साधु गुरु को पूछकर स्वस्थान पर बैठ जाते हैं और सूत्रार्थों का स्मरण करते हैं। जब प्राचार्य आते हैं तब देवसिक प्रतिक्रमण शुरु करते हैं। यहां “करेमि भंते" इत्यादि सामायिक सूत्र कथन पूर्वक आचार्य सूत्रोच्चारण करें तब शेष साधु भी अपने २ स्थान पर रहे हुए सूत्र का मन में चिन्तन करने के लिए कायोत्सर्ग करें और गुरु उसमें अपने दिन भर को प्रवृत्तियों का दो बार चिंतन करेंगे, तब बहुप्रवृत्ति वाले दूसरे साधु कायोत्सर्ग में अपनी प्रवृत्तियों का एक ही बार चिंतन कर सकेंगे। कायोत्सर्ग की समाप्ति में गुरु के बाद नमस्कारपूर्वक सब कायोत्सर्ग पारें। ऊपर चतुर्विंशतिस्तव दण्डक का उपयोगपूर्वक पाठ बोले, फिर सण्डासक प्रतिलेखना करें शरीर का प्रमार्जन कर सब उपयोग Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ प्रतिक्रमण विधि संग्रह विनयपूर्वक कृतिकर्म करें। वन्दनक सर्व प्रकार से शुद्ध शास्त्रानुसार करें। वन्दन करके फिर अर्धावनत (कुछ झुके हुए) क्रम से दोनों हाथों में रजोहरण और मुहपत्ति लेकर कायोत्सर्ग में चिंतित अतिचारों को गुरु के सामने प्रकट करे और उनको मार्ग के जानने वाले गुरु प्रायश्चित का उपदेश करे और जैसे मालोचना का प्रायश्चित हो वैसे ही अनवस्था को दूर रखते हुए साधु अनुसरण करे। गुरु के सामने दोषों को आलोचना कर और गुरु का दिया हुआ प्रायश्चित्त स्वीकार कर फिर सामायिकपूर्वक प्रतिक्रमण सूत्र पढ़े। प्रतिक्रमण सूत्र पूरा पढ़कर कृतिकर्म (वन्दनक) करे। बाद में गुरु आदि को खमावे। उसके बाद आचार्यादि सर्वको भाव से खमावे। जैसे सूत्र में कहा है-आचार्य, उपाध्याय, शिष्य, सार्मिक, कुल और गण में जिस किसी को मैंने कषाय उत्पन्न किया हो उन सर्व को मै मन वचन काया से खमाता हूं। सर्वश्रमण संघ को सिर पर हाथ जोड़कर अपनी तरफ़ के अपराधों की क्षमा मांगता हूं और जिस किसी ने मेरा भविनयादि किया हो उनको भी मैं क्षमता हूँ। भाव से धर्म में चित्त लगाकर सर्व जीवराशि को अपने अपराधों की क्षमापना मांगता हूं और जो मुझ से क्षमा मांगता है उनको मैं क्षमा करता हैं। इस प्रकार सब क्षमापन करके जो देवसिक में दुरालोचना की हो, दुष्प्रतिक्रमण किया हो उसके निमित्त कायोत्सर्ग करे। प्रथम सामायिक पाठपूर्वक चारित्रशुद्धि के निमित्त प्रियधर्मा, पापभीरु घमण पच्चास श्वासोच्छ्वास परिमित कायोत्सर्ग करे। कायोत्सर्ग को पूरा करके विधिपूर्वक शुद्ध हुआ है चारित्र जिनका ऐसे साधु, ऊपर चतुर्विंशतिस्तव कह कर फिर चैत्यवंदन दंडक पढ़कर कायोत्सर्ग करते हैं। यह कायोत्सर्ग दर्शनशुद्धि निमित्तक Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४१ प्रतिक्रमण विधि संग्रह ' है और पच्चीस श्वासोच्छ्वास परिमित होता है। कायोत्सर्ग पूरा करके विधिपूर्वक ऊपर श्रुतस्तव पाठ बोलते हैं और ध्रुतज्ञान का कायोत्सर्ग करते हैं। कायोत्सर्ग २५ श्वासोच्छ्वास परिमित होता है। श्रु तज्ञान के विशुद्धि निमित्तक २५ श्वासोच्छ्वास का कायोत्सर्ग विधिपूर्वक समाप्त करके जिनके सकल अतिचार शुद्ध हुए हैं ऐसे प्रतिक्रमण करने वाले अन्त में सिद्धों का स्तव पढ़ते हैं, बाद में पूर्वकथनानुसार विधि से गुरु को कृतिकर्म करते हैं। जिस प्रकार लोक में राजाज्ञा का पालन करके सेवक फिर उनके पास आकर हाजिर होते हैं, उसी प्रकार प्रतिक्रमण करने वाले श्रमण कृतिकम करके गुरु के समीप उपस्थित होते हैं और वर्धमान स्तुतियां बोलते हैं। प्रथम गुरु एक स्तुति बोल जाये, उसके बाद शिष्य भी ३ स्तुतियाँ बोलते हैं। स्तुतिमंगल गुरु द्वारा उच्चारित करने के बाद शेष साधु भी स्तुति बोलते हैं। बाद में थोड़े समय तक शिष्य गुरु के चरणों के सामने हाजिर खड़े रहते हैं। इसलिए कि शायद कुछ .: भूल हुई हो तो गुरु याद करायें, एक प्रकार से इस रीति से विनय . का भी पालन होता है। फिर आचरणा से श्रुतदेवता आदि का कायोत्सर्ग होता है उपर्युक्त गाथा के अधंभाग की टीका में प्राचार्य लिखते हैं कि आदि शब्द से क्षेत्र पोर भवनदेवता का ग्रहण करना चाहिये । चातुर्मासिक और वार्षिक प्रतक्रमणों में क्षेत्रदेवता का कायात्सर्ग होता है और पाक्षिक प्रतिक्रमण में भवनदेवी का कायोत्सर्ग करते हैं। - कोई प्राचार्य चातुर्मासिक प्रतिक्रमण में भो भवन देवता का कायोत्सर्ग करने का कहते हैं । दैवसिक प्रति- क्रमण के बाद प्रादोषिक काल ग्रहण आदि सव वातें विशेष सूत्र से Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२] प्रतिक्रमण विधि संग्रह जान लेना चाहिए । अब प्राभा तक प्रतिक्रमण की विधि कहते हैं। रात्रिक प्रतिक्रमण विधि-- सामायिक सूत्र पढ़कर चारित्र शुद्धि के लिए प्रथम कायोत्सर्ग २५ श्वासोच्छ वाम परिमित करते हैं। कायोत्सर्ग पार कर शुद्ध चारित्रवन्त ऊपर चर्तु विशतिस्तव पढ़कर दर्शनशुद्धि के निमित्त दूसरा २५ श्वासोच्छ वास परिमित कायोत्सर्ग करते हैं । विधि से. कायोत्सर्ग पारकर बाद में श्रुतस्तव पढ़ते हैं और उपयोगपूर्वक अनियत परिमाण कायोत्सर्ग करते हैं। प्रादोषिक प्रतिक्रमण में पढ़ी हुई अन्तिम स्तुति से लेकर अधिकृत कायोत्सर्ग पर्यन्त की तमाम चेष्टाओं का इस अनियत परिमाण वाले तीसरे कायोत्सर्ग में रात्रिक अतिचारों का चिन्तन होता है। अन्तिम कायोत्सर्ग में कर्त्तव्य तप का चिन्तन करते हैं। आज मैं क्या तप करूं ? छः मासिक तप कर सकता हूँ ? नहीं, एक दिन कम इत्यादि कर सकता हूँ ? नहीं। इस प्रकार एक २ दिन घटाते हुए यावत् पौरुषी अथवा नमस्कार सहित जो प्रत्याख्यान करना हो वह मन में धारण करके कायोत्सर्ग विधिपूर्वक पारे। ऊपर सिद्धस्तव पढ़कर पूर्ववत् आगे प्रतिक्रमण करे। क्षामणक करके सामायिकपूर्वक कायोत्सर्ग करे और उसमें तप चिन्तन करते हुए अपनी स्थिति का विचार करे। गुरु ने हमको किस काम के लिये नियुक्त किया है - यह सोचकर गुरु-निर्दिष्ट कार्य की हानि न हो वैसा पाण्मासिक प्रादि क्रम से उतरते हुए जो तप शक्य हो वहाँ तक नीचे उतरकर हृदय में धारण करले, फिर कृतिकर्म करके गुरु के पास अपने २ चिन्तित तप का प्रत्याख्यान करें। (पंचवस्तुक पत्र ७२-८२ पर्यन्त) Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतिक्रमण विधि संग्रह प्रतिक्रमण गर्ने हेतु गाथा-कदम्बकगत प्रतिक्रमण विधि-- "नामि दंपणं मि अ, चरणमि तवंमि तह य विरिश्रमि । आयरणं पायारो, इअ एसो पंचहा भणिओ ।।१।। पंचविहायारविसुद्धि-हेउमिह सादु सावगो वावि । पडिकमणं सह गुरुणा, गुरु विरहे कुणइ इक्कोवि ॥२॥ "सावज्जजोगविरई १ उक्कित्तण २ गुणवप्रो अ पडिवत्ती ३। खलिअस्स निंदणा ४ वरण-तिगिच्छ ५ गुणधारणा चेव६ ॥३॥" चारित्तस्स. विसोही, कीरइ सामाइएण किल इहयं । सावज्जेअरजो . गाण, वज्जणाउ सेवणत्तणओ ॥४॥ दसणयारविसोही, चउवीसाइत्थएण किज्जइ अ। अच्चम्भु गुणकित्तण रूवेणं जिणवरिंदाणं ।।५।। नाणाईआउ गुणा, तस्संपन्नपडिवत्तिकरणाओ। वंदणएणं विहिणा, कीरइ सोही अ तेसि तु ।।६।। खलिअस्स य तेसि पुणो, विहणा जनिंदणा इ पडिक्मणं । तेण पडिक्कमणेणं, तेसि पि अ कोरए सोही ॥५॥ चरणाइअइआराणं, जहक्कम वणतिगिच्छ रूवेण । पडिकमणाऽसुद्धाणं, सोही तहे काउसग्गेणं ।।८।। . गुणधारणरूवेणं पच्चक्खाणेण तवाइबारस्स । विरिपायारस्स पुणो, सव्वेहि वि कीरए सोही ।।६।। विणयाहीसा विज्जा, दिति फलं इह परे अ लोगंमि । न फलंति विणयहीणा, सस्साणिव तोयहीणाणि ।।१०।। भत्तीइ जिणवराणं, खिज्जती पुष्व संचि मा कम्मा। आयरिअनमुक्कारेण, विज्जा मंता य सिझति ॥११।। Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४[ प्रतिक्रमण विधि संग्रह वंदित्त चेइ आइं, दाउ चउ राइए खमासमणे । भूनिहिअसिरो सयलाइ आर मिछ छुक्कउ हेइ॥११॥ जम्हा दंसणनाणा, संपुन्नफलं न दिति पत्तेअं। चारिनजुआ दिति अ विसिस्सए तेण चारित्तं ।।१२।। सामइअपुवपिछ छामि, ठाउ काउसग्गमिच्चाइ। सुत्तं भणिअ पलंबिप्रभुअकुप्पररिअ पहिरणो ।।१३॥ संजइ १ कविट्ठ २ घण ३ लय ४ लंबुत्तर ५:खलिण ६ मबरि ७ वहु ८ पेहा ६ वारुणि १० भमुहं ११ गुलि १२ सीस १३ पूअ १४ हय १५ काय १६ निअलु १७ द्धी १८ ।।१४।। थंभाइ १६ दोसरहिनं, तो कुणइ दुहुसिप्रो. तणुस्सग्गं । नाभिअहो जाणुढ्ढं चउरंगुलठविअडिपट्टी ॥१५।। काउस्सग्गंमि ठियो, निरेप्रकाओ निरुद्धवयपसरो। जाणइ सुहमेगमणो मुणि देवसि आइ अइआरं ॥१६॥ परिजाणिऊण य तो सम्म गुरुजरणपगासणेणं सो तो। सोहेइ अप्पंगं सो जम्हाय जिणेहिं सो भणियो ॥१७॥ काउस्सग्गं मुक्खपह-देसियं जाणिऊण तो धीरा। दिवसाइआर जाणण (ठया) ठाने ठंति उस्सग्गे ॥१८॥ सयणा सणन्न-पाणे चेइन-जइ-सिज्ज-काय-उच्चारे । समिई-भावण-गुत्ती, वितहायरणे अइारो ॥१९॥ गोसमुहणंतगाई, आलोए - देसिए अईमारे। सव्वे समाणइता, हिपए दोसे ठविज्जाहि ॥२०॥ काउ' हिनए दोसे, जहक्कम जा न ताव पारिति । ताव सुहमाण पाणु धम्म सुक्कं च झाइज्जा ॥२१॥ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४५ प्रतिक्रमण विधि संग्रह तत्थ य धरेइ हिगए, जहक कामं दिणकए अईपारे। पारेत्तु नमुक्कारेण पढइ चउवीसथयदंडं ।।२२।। सुत्तत्थ तत्तदिट्ठ १, दंसणमोहत्तिगं च ४ रागतिगं ७ । देवाईतत्त'तगं १०, तह य अदेवाइ भतितिगं १३ ।।२३॥ नाणा इतिगं १६ तह तश्विराहणा तिन्नि गुत्ति २२ दंडतिगं २५ । इग्रं मुहणंतगपडिलेहणाइ कमसो विचितिज्जा ॥२४॥ हासो रई अ अरइं३, भय सोग दुगं छया य वज्जिज्जा ६ । भुअजुअल पेहंतो, सीसं अपसत्थ लेस तिगं ६ ॥२५॥ गारगतिगं च १२ बयणे उरि सल्लतिगं १५ कसाय चउ प? १६ । पय जुगि छज्जीववहं २५, तणुपेहाये विहाणमिणं ।।२६।। जइवि पडिलेहणाए, हेऊ जिअ रक्खणं जिणाणाय । तहवि इमं मणमक्कउ, नियंतणत्त्थं मुणी बिति ।।२७॥ उठ्ठिन विऊ स विणयं, विहिणा गुरुणो करेइ किइकम्मं । बत्तोस दोसरहिरं, पणवीसावस्सविसुद्ध ॥२८॥ थद्ध १ पविद्ध २ मणाढिअ ३, परिपिंडिअ ४ मंकुसं ५ झसुवत्तं ६ । कच्छबरिंगिअ ७ टोलगइ ८ ढढ्ढरं है । बेइआबद्ध १० ॥२६॥ मणदुट्ठ ११ रुद्ध १२ तज्जिअ १३ सढं १४ हीलिअ १५ तेणिग्रं च १६। पडिणीअं १७ दिट्ठमदिट्ठ १८ सिंग १६ कर २० मोमण २१ मूण २२ मूत्र च २३ ॥३०॥ भय २४ मित्ती २५ गारव २६ कारणेहि २७ पलिचिनं २८ . भयंते च २६ । आलिद्धमणालिद्ध ३० चूलिअ ३१ चुडलित्ति३२ बत्तीसा॥३१॥ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६] प्रतिक्रमण विधि संग्रह पंचविंशतिरावश्यकानि चैतानि दुपवेस महाजायं ३ दुरणयं ५ पयउबारसावत्त १७, । इग निक्खमण १८ निगुत्त, चउसिरनमगं २५ ति पणवीसा ||३२|| ग्रह सम्ममवणयंगो. करजुअविहिधरि पुत्तिरयहरणो । परिचितिए अइमारे, जहक्कमं गुरुपुरो विअडे ||३३|| लोण १ पडिवकमणे २, मीस ३ विवेगे ४ तहा विउस्सग्गे ५ । तव ६ छेन ७ मूल ८ रणवट्ठिएण (य) ६ पारंचिए १० चेव ॥ ३४ ॥ स्वस्थानाद्यत्परं प्रमादस्य वशाद्गतः । . प्रतिक्रमणमुच्यते ।। ३५ ।। तत्रैव भूयः पडिकमणं १ पडिअरणा २, परिहरणा ३ वारणा ४ निअत्तीअ ५ । निन्दा ६ गरिहा ७ सोही ८, पडिकमरणं अट्ठा होइ || ३६ || स्थान, क्रमणं, कयपावो वि मरगुस्सो, प्रालोइअ निन्दिउ गुरुसगासे । होइ अइरेगलहुप्रो, ओहरिअ भंहव्व भारवहो ॥ ३७ ॥ अह उव वत्ति सुत्तं, सामाइअ माइश्रं पढ़िअ पयओ । अब्भुठिओमि इच्चाइ, पढाइ दुह उट्ठिओ विहिणा ||३८|| पडिकमणे सज्झाए, काउस्सग्ग वराह पाहुण ए. आलोण- संवरणे, उत्तम अ वंदरणयं ।। ३६ ।। दाऊण वंदणं तो, पणगाइमु जइषु खामए तिन्नि । किइकम्मं करि विऊ, सढ्डो गाहा तिगं पढइ ||४०|| इअ सामाइ गाइ- सुत्तमुच्चरिअ काउसग्गठिओ । चितइ उज्जोअदुगं, चरित्रसुद्धिकए ॥ ४१ ॥ आइमकाउसग्गो, पक्किमंतो अ काउसामइनं । तो कि करेइ बी, तइनं च पुणो वि उस्सग्गो (ग्गं ॥४२॥ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण विधि संग्रह समभावि ठिअप्पा, उस्सगं करिअ तो पडिक्कमइ । एमेवय समभावे ठिप्रस्स, तइओवि उस्सग्गो ||४३|| सज्झाय-कारण-तव-प्रो - सहेमु उवएसइयाणे सु । संतगुणकित्तरण, न हुति पुरुनदोमाउ ॥४४॥ विहिणा पारिअ सम्मत्त - मुद्धिहेउ च पढि उज्जो । तह सव्वलो अरहंतं-चेइ माराहगुस्सग्ग ॥४५॥ काउ उज्जोअगरं, चितिअ पारेइ सुद्धसम्मत्तो । पुक्खवरंदी बढ्ढे कहइ सुप्राहणनिमित्त ं ॥ ४६ ॥ पुण वीसुस्सा, उस्सग्गं कुरणइ पारए विहिणा । तो सकुसल कर आ-फलाण सिद्धाण पढइ थयं ॥ ४७ ॥ नमु करे चउव्वीसग "थयं । किइकम्मं नं दुरालोइय - दुप्पडिक्कन्ते अ उस्सग्गो || ४८ ॥ एस चरित्तस्सग्गो, दंसणसुद्वीइ तइअश्रो होइ । सुनारणस्स चउत्थो, सिद्धाण थुई अ किइकम्मं ।। ४६ ।। जिणधम्मो मुक्खफलो, सासयसुक्खो जिणेहिं पन्नत्तो । नरसुर सुहाई अणुसंगिआई इह किसिपलालुव्व ।। ५० ।। मूला उखंधप्प भवोदुमस्स, खंधाउं पच्छा समुविति साही । साहप्पसाहा विरुति पत्ता, तओसि पुष्पं च फलं रसो अ॥ ५ । ।। अह सुअ समिद्धिहेउ सुप्रदेवीए करेई उस्सग्गं । थुई ॥ ५२ ॥ चितेइ नमुक्कारं, सुरण व देई व तीइ एवं खेत्तसुरीए उस्सग्गं कुणइ सुणइ देइ थुइ । पढिउ च पंच मंगल - मुव विसइ पमज्ज संडासं ॥५३॥ पुव्वविहिणेव पेहिअ, पुत्ति दाऊण बन्द इच्छामो स ुत्त भणि जाहि तो ठाई ॥ ५४।। गुरुणो । 1 [४ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪૮] प्रतिक्रमण विधि संग्रह सुकयं आरणत्तं पिव लोए काऊण सुकय किइकम्मा । वढढंति आ थुई ओ, गुरुथुइ गहणे कए तिन्नि || ५५ । गुरुथुइगहणे थुइ तिन्नि, वद्धमाणक्खरस्सरा पढइ । सवकत्थवं पनि कुणइ, पच्छित उस्सग्गं ।। ५६ । । पारण वह मुसा वाए, अदत्त मेहुण परिग्गहे चेव । सममेगं व अणुथुइ तिन्नि वर ऊसासा गं हविज्जा हि ॥ ५७॥ पढमं पोरिसि सभायं, बिई झारणं झिआयई । तइआए निद्दमुक्खं तु, सज्झायं तु चतुत्थीए ।। ५८ ।। उक्कोसो सज्झाओ, चउदस पुव्वीण बारसंगाई । इत्तो परिहाणीए, जाव तयत्थो नमुक्कारो ॥ ५६ ॥ बारसविहंमिवि तवे, सब्भितरबाहिरे कुसल दिट्ठे । विवि अ होही, सज्झायसमं तवो कम्मं ।। ६० ।। एवं ता देवसिनं राइमवि एवमेव नवरि तहि । पढमं दाउ मिच्छामि, दुक्कडं पढइ सक्कथयं । । ६१ ।। उट्टि करेइ विहिणा, उस्सगं चितए चउवीस थयं । बीनं दंसण सुद्धीइ, चितए तत्थवि तमेव ||६२ || तइए निसाइआरं, जहक्ककमं चितिऊण पारे । सिद्धत्थयं पढित्ता, पमज्ज संडासमुत्रविसइ ।। ६३ ।। तत्य पढमो चरित्तायारि दंसणसुद्धीइ बीप्रश्रो होइ । सुअनाणस्स य तइओ नवरं चितेइ तत्थ इमं ॥ ६४॥ पुव्वं य व पुत्तिपेहण, वंदरणमालोअ सुत्तपढणं च । वंदण - खामण-वंदण, गाहातिगपढणमुग्गो ।। ६५ ।। वद्धमारण जिणचंदो । ओवमारणेणं ॥ ६६ ॥ " संवच्छरमुसभ जिणो, छम्मासा st विहरिका निरसरणा, जइज्जए Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण विधि संग्रह तत्थ य चितइ संजम, जोगाण न जेण होइ मे हाणी | तं पडिवज्जामि तवं छम्मासं ता न काउमलं ॥ ६७ ॥ गाइ इगुणत्तीसूणि पिन सहो उ पंच मासमपि । एवं चउतिदुमासं न समत्था एगमासं पि ॥ ६८ ॥ जातं पि तेरसूरणं चउतीसह माइतो दुहाणीए । जाव चउउत्थं तो अंबिलाई जा पोरिसि नमो वा ॥ ६६ ॥ जं सक्कइ तं हिअए, धरित्त पेहए पुति । दाउं वंदरणमसढो, तं चिअ पच्चक्खए विहिणा ॥ ७० ॥ इच्छामों सट्टत्तिभणिअ उव विसिअ पढइ तिन्नि थुई । मिउसद्द ेगं सक्क - त्थयं इन चेइए वदे ॥७१॥ किच्चाsकिच्चं गुरवो, वयंति विणय पडिवत्ति हेउं मा । ऊसासाइअ मुत्तुं तयणा पुच्छाइ पडिसिद्ध ॥७२॥ अह पक्खि चउद्दसि, दिगंमि पुव्वं व तत्थ देवसि । सुत्तंतं पडिक्कमिश्र तो सम्ममिमं कमं कुणइ ||७३ || मुहपोती वंदरणयं संबुद्धा खामणं तहा लोए । वंदण - पसे अक्खामरणाणि वंदणय पुत्तं च ||७४ || 1 सुत्तं अब्भुट्ठाणं, उस्सग्गो पुत्ति वंदरणं तह य पज्जति अक्खा मणयं, तह चउरो त्यो भवंदणयं ॥ ७५ ॥ पुव्व विहिरणे व सव्वं, देवसि वंदनाइ तो कुणइ । सिज्जसुरी उस्सग्गो, अजिय संतिथय पढणे अ ||७६|| एवं चिअ चउमासे, वरिसे अ जहकुमं विही नेप्रो । पक्ख - चउमास- वरिसेसु नवरि नामंमि नाणत्तं ॥७७॥ तह उस्सग्गेसु उज्जोया बारस वीसा स मंगलवत्ता । संबुद्धखामणं ति - परण- सत्त - साहूरण जह संखं ॥७८॥ [४e Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०] प्रतिक्रमण विधि संग्रह क्षायोपशमिकाद्भावा-दौयिकस्य वशं गतः । तत्रापि क्रम एवार्थः, प्रतिकूलगमात्स्मृतः ॥७६।। पडिकमणं पडिकमओ, पडिकमिअव्वं च आणुपुव्वोए। अतीए पुव्वुप्पन्न, अणागए चेव कालंमि ।८।। पडिकमणं देवसिग्रं, राइग्रं च इत्तरिअ माव कहिन च । पक्खिन चाउम्मासिअ, संवच्छर-उत्तमठ्ठप ॥१॥ जह गेहं पइदिअहंपि, सोहिरं पुण वि पक्खसंधीसु । सोहिल्लइ सविसेसं, एवं इहयं पि नायव्वं ॥२॥ प्रद्धाणे, पासाए, दुद्धकाय, विसतोअण, तलाए । दो कन्ना उ पइमारिआय ७ वत्थे अ अगए अ, ॥३॥ सामान्य प्रतिक्रमण विधि-- अर्थ-ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्य विषयक आचरणा करना उसका नाम आचार है। वह प्राचार इस प्रकार पांच प्रकार का है ॥१॥ उक्त पंचाचार की विशुद्धि के लिये साधु अथवा श्रावक प्रति क्रमण करता है । गुरु की विद्यमानता में गुरु के साथ और गुरु के हाजिर न होने पर अकेला भी श्रावक प्रतिक्रमण करे ॥२॥ यहां सामायिक से चारित्र को विशुद्धि की जाती है, क्यों कि सामायिक में सावध योगों का त्याग और निरवद्य योगों का सेवन होता है ॥३॥ चतुर्विंशतिस्तव से दर्शनाचार को विशुद्धि की जाती हैं, क्योंकि . चतुर्विंशतिस्तव में जिन वरेन्द्रों का अत्यद्भ त गुण कीर्तन किया जाता है ॥४॥ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण विधि संग्रह वंदन के विधि पूर्वक करने से ज्ञानादि गुणोंकी और ज्ञातादि गुण सम्पन्नों की प्रतिपत्ति होती हैं और ऐसा होने से ज्ञानादि गुणों की मद्धि होती है ॥५॥ ___ ज्ञानादि गुणों की प्राप्ति के लिये किये जाते प्रयास में होने वाली स्खलनाओं का गर्दा रूप से किये जाते प्रतिक्रमण से उक्त गुणों की शुद्धि होती है ॥६॥ ___ चारित्र आदि में लगने वाले अतिचारों की ब्रणचिकित्सा के रूप से कायोत्सर्ग करने से शुद्धि होती है ।।७।। गुणधारण रूप प्रत्याख्यान से अतिचारों की शुद्धि होती है और उक्त सर्व उपायों से वीर्याचार की शुद्धि होती है । विद्याएँ विनयाधीन होती है। विनय से पढ़ी हुई विद्या ही इस लोक और परलोक में फल देती हैं, विनयहीन को विद्या फल नहीं देती जैसे जलहोन सस्य फल नहीं देते ॥६॥ . जिनेश्वरों की भक्ति से, पूर्व सचित कर्माश क्षय होता' है मोर . विद्याचार्य को किये हुए नमस्कारसे विद्या और मंत्र सिद्ध होते हैं ।।१०।। .. चैत्यवन्दन करके चार क्षमाश्रमण देकर भूमि पर शिर रखकर सकलातिचारों का मिथ्या दुष्कृत करे ॥११॥ दर्शन, ज्ञान, प्रत्येक संपूर्ण फल नहीं देते, परन्तु चारित्र के मिलने से ही विशेष फल देते हैं। इसलिये तीनों गुणों में चारित्र में ही विशिष्ट गुण होता है ।।१२।। ___ सामायिकपूर्वक “इच्छामि ठामि क उस" इत्यादि सूत्र पढ़कर भुजाएँ नीचे लम्बित करके कुहुनियों से अधोवस्त्र को पकड़कर कायोत्सर्ग करे ।।१३।। Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण विधि मंग्रह कायोत्सर्ग में सयती १ कपित्थ २ घन ३ लता ४ लम्बोत्तर कोण ५ खलिन ६, शबरो ७, वधू ८, प्रेक्षा , वारुणी १०, भमुह ११, अंगुलि १२, शीर्ष १३, पूत १४, हय १५, काय १६, निगड १७, . . उद्धी १८ ॥१४॥ और स्तम्भ आदि दोषरहित कायोत्सर्ग करना चाहिये । नाभि के नीचे और जानुओं के ऊपर कटिपट्टक रहना चाहिये ।।१५।। ..' कायोत्सर्ग में स्थित मनुष्य को निष्प्रकम्प और मौन रहना चाहिये क्योंकि मनको एकाग्र करने से ही मुनि देवसिक अतिचारों को सुखपूर्वक जान सकता है ।।१६।। अतिचारों को जानकरके गुरु के पास उनको प्रकट करना चाहिये। ऐसा करने से वह अपने आत्मा और शरीर को शुद्ध करता है । ऐसा जिन भगवान ने कहा है ।। १७॥ . . कायोत्सर्ग मोक्षमार्ग का दर्शक है यह जानकर धीरपुरुष दिवसातिचारों को जानने के लिए कायोत्सर्ग में स्थिर रहते हैं ॥१८॥ शयन, आसन, अन्न, पान, चैत्य, यतिधर्म, मकान, कायिकी, उच्चार, समिति, भावना और गुप्ति इनके विषय में विपरीत आचरण करना, उसका नाम अतिचार है ।।१९।। प्राभातिक मुहपत्ती प्रतिलेखना करने के समय से लेकर दिनभर के अतिचारों की आलोचना करे, सर्व अतिचारों को याद करके हृदय में स्थापन करे। २०॥ तमाम दोषों को यथाक्रम हृदय में धारण करके कायोत्सर्ग को समाप्त करे, दोषों को क्रमशः हृदय में धारण कर जब तक प्राचार्य कायोत्सर्ग न पारे तब तक अन्य साधु शुभ मानसिक भव से धर्म्य और शुक्त ध्यान ध्यावे ॥२१॥ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५३ प्रतिक्रमण विधि संग्रह उस कायोत्सर्ग में क्रमशः दिनभर के अतिचारों को हृदय में धारण करके नमस्कारपूर्वक कायोत्सर्ग पारकर चतुर्विंशतिस्तव दण्डक को पढ़े ॥२२॥ · सूत्र, अर्थ, तत्त्व पर श्रद्धा करना, दर्शनमोह आदि त्रिक ४, रागत्रिक ७, और देवादि तत्वत्रिक १० तथा अदेवादि भक्ति त्रक १३, ज्ञानादित्रिक १६, तथा ज्ञानादि विराधनात्रिक १६, गुप्तित्रिक २२, दंडत्रिक २५ इस प्रकार मुखवस्त्र की प्रतिलेखना में क्रमशः चिन्तन करे ॥२३-२४॥ हास्य, रति, अरतिवर्जन ३, भय, शोक, दुगुञ्छा वर्जन ६, उपर्युक्त तीन-तीन दोष भुज युगल की प्रतिलेखना करता हुआ बोले और शीर्ष की प्रतिलेखना करता हुआ अप्रशस्त तीन लेश्याओं का त्याग करे ॥२५॥ । ... मुख की प्रतिलेखना करता हुआ गौरव त्रिक का त्याग १२ करे - और हृदय की प्रतिलेखना करता हुआ शल्यत्रिक १५ का त्याग करे और पीठ की प्रतिलेखना करता हुआ ४ कषायों का त्याग करे १६। दो चरणों की प्रतिलेखना करता हुआ छः जीव निकाय की रक्षा फरे २५ इस प्रकार शरीर प्रतिलेखना के समय बोलने के २५ बोलों का विधान हुआ।।२६।। यद्यपि प्रतिलेखना करने का कारण जीव-रक्षा और जिन-आज्ञा है तथापि मन-मर्कट नियंत्रित करने के लिए मुनि लोग उक्त प्रकार से बोल कहते हैं । उठकर विद्वान् विधिपूर्वक गुरु का विनय करते हैं ओर बत्तीस दोष रहित और २५ आवश्यक विशुद्ध गुरु-वन्दन करते हैं । २७.२८।। . Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४] प्रतिक्रमण विधि संग्रह वन्दन के दोष इस प्रकार हैं- स्तब्ध १, अपविद्ध २, अनादृत ३, परिपिंडित ४, अंकुश ५, भाषोत ६, कच्छपरिंगित ७, टोलर्गात ८, ढढ्ढर ६, वेदिकाबद्ध १०, ।।२६।। द्विष्ट ११, रुद्ध १२, तर्जित १३, शठ १४, हीलित १५, स्तैनिक १६, प्रत्यनीक १७, दृष्टादृष्ट १८, शृंगवत् १६, कर २०, मोचन. २१, ऊन २२, मूक २३ ।। ३० ।। भय २४, मैत्री २५, गौरव २६, कारण २६६ परिकुचित २८, . भजन्त २६, आलिद्ध - अनालिद्ध ३०, चूलिका ३१, चुटियां, ३२ M बत्तीस दोष हैं ||३१॥ पच्चीस आवश्यक आगे मुजब है - दो प्रवेश और यथा जात ३, दो अवनत ५, प्रगट द्वादशावर्त १७, निष्क्रमण १८, त्रिगुप्त २१, चारशिर नमन २५, ये पच्चीस आवश्यक हैं ||३२|| अब सम्यक् शरीर नवाँकर दो हाथों में विधिपूर्वक मुखवस्त्रिका रजोहरण ग्रहरण करके कायोत्सर्ग में याद किये हुए अतिचारों को यथाक्रम गुरु के आगे प्रगट करे ||३३|| श्रालोचना १, प्रतिक्रमण २, मिश्र ३, विवेक ४, व्युत्सर्ग ५, तप ६, छेद ७, मूल ८, अनवस्थाप्य है, और पारांचित १०, ये उपर्युक्त दश प्रायश्चित्त हैं || ३४॥ अपने स्थान से प्रमाद के वश होकर परस्थान में गये हुए जीव का फिर उसी स्थान पर माना यह प्रतिक्रमण कहलाता हैं ||३५|| प्रतिक्रमण के ८ नाम निम्न प्रकार है- प्रतिक्रमण १ प्रतिचरणा २ परिहरणा ३ वारण ४ निर्वृत्ति ५ निन्दा ६ गर्हा ७ और शोधि ८ इस प्रकार प्रतिक्रमण के ८ प्रकार होते हैं । ।। ३६ ।। Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५५ प्रतिक्रमण विधि संग्रह पापो मनुष्य भी गुरु के पास श्रालावना और निन्दा करके एकदम कर्मों के भार से हलका हो जाता है, जैसे ऊपर का बोझा उतार कर भारवाहक हलका होता है ||७|| बैठकर सामायिक श्रादि प्रयत्न पूर्वक सूत्र पढकर अब्भुट्टिओमि० " इत्यादि बोलता हुआ दोनों प्रकार से खड़ा हुआ क्षमापन सूत्र बोले ||३८| प्रतिक्रमण करते समय, स्वाध्याय करते समय, कायोत्सर्ग करते वक्त, अपराध गुरु के आगे प्रकट करते समय, आलोचना करते समय, प्रत्याख्यान करते समय और अनशन करते वक्त वन्दन करना चाहिए || ३ || पञ्चकादिसाधुओं की संख्या हो तब तीनों को खमाना चाहिए कृतिकर्म, वन्दन करके विद्वान् श्रद्धावान् तीन गाथा पढे ||४०|| इस प्रकार, सामायिक आदि सूत्र उच्चारण करके कायोत्सर्ग में रहे हुए चारित्राचार के अतिचारों की शुद्धि के लिये दो चतुर्विंशति स्तवों का चिन्तन करे ॥ ४१ ॥ प्रथम कायोत्सर्ग में प्रतिक्रमण करता हुआ सामायिक न करके दूसरा और तीसरा कायोत्सर्ग कैसे करता है ? जिसकी आत्मा समभाव में ही हुई है वह कायोत्सर्ग करके फिर प्रतिक्रमण करता है, इसी प्रकार समभाव में रहा हुआ तीसरा भी कायोत्सर्ग करता है ।। ४२-४३ ।। स्वाध्याय, ध्यान, तप, औषध, उपदेश, स्तुतिप्रदान और सद्गुणकीर्तन इतने कार्यों में पुनरुक्त (ष नहीं होते || ४४ || विधि से कायोत्सग पार कर सम्यक्त्व शुद्धि के हेतु ऊपर चतुर्विंशतिस्तव पढ कर और " सव्वलोए अरिहंत" इत्यादि चैत्याराधनार्थ कायोत्सर्ग करे उसमें लोगस्स का चितनकर शुद्ध हुआ है सम्यक्त्व जिसका ऐसा पुक्खर वरदी वढ्ढे यह कहें । श्रुत आराधना के निमित्त सूत्र बोले, फिर २५ श्वासोच्छवास का कायोत्सर्ग करें और विधि- पूर्वक Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६] प्रतिक्रमण विधि संग्रह सकल कुशल क्रिया का फल जिन्हें प्राप्त हुआ है ऐसे सिद्धों का स्तव पढ़े ॥४५-४६-४६।। नमस्कारपूर्वक कायोत्सर्ग पार कर ऊपर चतुर्विंशतिस्तव पढ़े, कृतिकर्म करे, अन्त में दुरालोचित-दुष्प्रतिक्रान्त का कायोत्सर्ग करे ॥४८॥ यह चारित्राचार का कायोत्सर्ग है। दर्शन शुद्धयर्थ तीसरा कायोत्सर्ग होता हैं । श्रुतज्ञान के निमित्त चौथा कायोत्सर्ग होता है फिर सिद्धों की स्तुति बोलकर कृतिकर्म करे ।।४६॥ __ जिन धर्म मोक्षफल और शाश्वत सुखदायक जिन भगवन्तों ने . कहा है, इसमें मनुष्य गति के और देव गति के सुख आनुषगिक होते हैं, जैसे कृषि के साथ पलाल (घास) ।।५०॥ वृक्ष के मूल से स्कंद की उत्पत्ति होती है, .बाद स्कंद से शाखाएं । उत्पन्न होती हैं। शाखा प्रशाखाओं से पत्र उत्पन्न होते हैं और पत्तों के बाद पुष्प फल तथा रस की उत्पत्ति होतो है ॥५१।। अथ श्रुतज्ञान की वृद्धि के हेतु श्रुतदेवो का कायोत्सर्ग करते हैं, कायोत्सर्ग में १ नमस्कार का चिन्तन करते हैं, बाद श्रुतदेवी की स्तुति बोली अथवा सुनी जाती है ॥५२॥ . इसी प्रकार क्षेत्रदेवी का भी कायोत्सर्ग करते हैं और उसकी स्तुति बोलते अथवा सुनते हैं । ऊपर पंच मंगल नमस्कार पढ़कर सण्डासक प्रमार्जन करके बैठते हैं ।।५३।। पूर्वोक्त विधि से मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना करके गुरु को वन्दन कर “इच्छामो अणुसठिं" यह बोलकर जानुओं के बल बैठे ॥५४॥ राजा के नौकर राजाज्ञा का प्रतिपालन करके आकर राजा को राजाज्ञा के प्रतिपालन की सूचना करते हैं उसी प्रकार साधु कृतिकर्म करके कुछ मिनटों तक बैठते हैं, वर्धमान स्तुति बोली जाती Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५७ प्रतिक्रमण विधि संग्रह है और गुरु के १ स्तुति कहने पर शेष सभी साधु तीन स्तुतियाँ 'बोलते हैं ।। ५५ ।। वर्धमान अक्षर और वर्धमान स्वर से स्तुतियां बोलते हैं। ऊपर शक्रस्तव पढ़कर दैवसिक प्रायश्चित्त का कायोत्सर्ग करते हैं || ५६|| हिंसा, मृषावाद, प्रदत्तादान, मैथुन और परिग्रह त्याग के व्रतों में स्वप्न आदि में दोष लगा हो तो एक सौ श्वासोच्छवास का कायोत्सर्ग करना ॥ ५७॥ प्रथम पौरुषी में स्वाध्याय करे, दूसरी में ध्यान करे, तीसरी में निद्रा का त्याग करे और चतुर्थ पौरुषी में फिर ध्यान करे ।। ५८ ।। चतुर्दश पूवंधरों के लिये उत्कृष्ट स्वाध्याय द्वादशांगी का पढ़ना होता है इसके नीचे कम होता हुआ कम से कम नमस्कार पढ़ने तक का स्वाध्याय होता है ॥ ५६ ॥ बारह प्रकार का तप जो प्राभ्यन्तर और बाह्य तपों के भेद से कुशल पुरुषों ने बताया है, वह भी स्वाध्याय रूप तप की बराबरी नहीं करेंगा ।। ६० ।। इस प्रकार दैवसिक प्रतिक्रमण कहा है, इसी प्रकार रात्रिक प्रति क्रमण भी किया जाता है। इसमें जो विशेषता है वह नीचे बताई जाती है, रात्रिक प्रतिक्रमण में सामूहिक रात्रिक अतिचारों का मिच्छामि दुष्कृत करके शक्रस्तव पढा जाता है ।। ६१ ॥ फिर उठकर विधि से कायोत्सर्ग किया जाता है उसमें चतुर्विंशति स्तव की चिन्तना होती है, दूसरा दर्शन शुद्धि के लिये कायोत्सर्ग किया जाता है और उसमें भी चतुविंशतिस्तव का ही चिन्तन होता हैं ।। ६२ ।। Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८] प्रतिक्रमण विधि संग्रह . .. तीसरे कायोत्सर्ग में रात्रि सम्बन्धी अतिचारों का यथाक्रम चिन्तन करके कायोत्मर्ग पारते हैं, ऊपर सिद्धस्तव पढ़कर फिर सण्डा सक प्रमाणित करके बैठा जाता है ॥६३॥. इनमें प्रथम कायोत्सर्ग चारित्राचार का, दूसरा दर्शन शुद्धि का और तीसरा श्रुतज्ञान का जिसमें उक्त प्रकार का चिंतन किया जाता है ॥६४॥ फिर पहले की तरह मुखवस्त्रिका प्रतिलेखना करके वन्दनकदे. फिर आलोचना करे और बाद में प्रतिक्रमण सूत्र पढ़े और फिर वन्दन, फिर क्षमापन और फिर वन्दन फिर तीन गाया पढ़ना और कायोत्सर्ग करना ॥६५॥ भगवान ऋषभदेव १ वर्ष पर्यन्त उपवासो रहे, भगवान् महावीर छः मास तक तपस्या में रहे और विहार किया इन दो तीर्थंकरों की तपस्या के उदाहरण से साधुओं को तप करने का उद्यम करना चाहिये ।।६६।। तप चिन्तवन के कायोत्सर्ग में यह सोचे कि मेरे तप करने से संयम के योगों में हानि न हो उस प्रकार का तप करूं', छमास से लगाकर एक-एक मास एक-एक दिन नोचे उतरता हुंआ ५ मास ४-३, दो मास तक नीचे उतरे । मास में भी दिन घटाता हुआ तेरह दिन कम करे फिर नीचे ३४ भक्त ३२ भक्त इस प्रकार. दो-दो भक्तों की हानि करता हुआ चतुर्थ भक्त तक नीचे उतरे। चतुर्थ भक्त के नीचे प्रायम्बिल यावत् पौरुषी और उसके नीचे नमुक्कार पर्यंत उतरे ॥६७-६८-६९।। नीचे उतरकर जो तप अपने लिये करना शक्य समझे उसको मन में धारण करके कायोत्सर्ग पार कर मुहपत्ति प्रतिलेखना करे Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ve प्रतिक्रमण विधि संग्रह और दो वन्दनक देकर प्रशठ भाव से मनः चिन्तित तप का विधिपूर्वक प्रत्याख्यान करे ||७|| किर "इच्छामो सट्ट" यह वाक्य पढ़कर बैठकर तीन स्तुतियां पढ़े, प्रभात समय में स्तुति पाठ मन्द स्वर से बोले, ऊपर शक्रस्तव पढ़कर चैत्यवन्दन करे ||१|| कृत्य, अकृत्य आदि विनय के हेतु जो गुरु बतावे उसके स्वीकार निमित्त 'बहुवेलं संदिवसामि " यह बोलकर रात्रिक प्रतिक्रमण पूरा करे ||७२ || अब पाक्षिक प्रतिक्रमण चतुर्दशी के दिन किया जाता है। पाक्षिक दैवसिक प्रतिक्रमण सूत्रपाठ पर्यन्त हमेशा की तरह देवसिक प्रतिक्रमण करके फिर इस प्रकार क्रिया करे । ७३ ।। पाक्षिक मुहपत्ति की प्रतिलेखना करके दो वन्दनक दे, फिर संबुद्ध क्षामणक करके पाक्षिक आलोचना करे । ऊपर दो वंदनक देकर प्रत्येक ग्रब्भुट्ठियो खामे क्षामणक करके दो वन्दनक करे फिर पाक्षिकसूत्र पढ़े ||७४ ।। उसके बाद पाक्षिक वंदित्ता सूत्र पढ़े और "अब्भुटिठयो खामे " खामकर पाक्षिक कायोत्सर्ग करे, कायोत्सर्ग के अन्त में मुहपत्ति • प्रतिलेखनापूर्वक दो वंदनक दें, फिर समाप्ति का अब्भुट्टिया खमावे बाद में चार स्तोभ वन्दनक दे ||७५ ॥ | स्तोभ वन्दन करके फिर पूर्ववत् अवशिष्ट दैवसिक प्रतिक्रमण करे शय्यादेवी का कायोत्सर्ग करे और स्तव के स्थान में अजित शांतिस्तव पढ़े, इसी प्रकार चातुर्मासिक और वार्षिक प्रतिक्रमण में भी यथाक्रम विधि समझना चाहिये । पक्ष चतुर्मास और वार्षिक प्रतिक्रमणों में उन उन प्रतिक्रमणों के नाम बोलने चाहिए ॥७४-७७।। Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण विधि संग्रह .. . ___ तथा तीनों प्रतिक्रमणों के कायोत्सर्गों में भी उद्योतकर-चिन्तन का फेरफार है, पाक्षिक में १२ उद्योतकर, चातुर्मासिक में २० उद्योतकर. और वार्षिक (सांवत्सरिक) प्रतिक्रमण के कायोत्सर्ग में ४० चतुर्विंशतिस्तव और १ नमस्कार का चिन्तन करना चाहिये, संबुद्ध क्षमापन में क्रमशः पाक्षिक में ३, चातुर्मासिक, में ५ और वार्षिक प्रतिक्रमण में ७ साधुओं को खमाना चाहिए ॥७८।। .. क्षायोपशमिक भाव से प्रौदयिक भाव के वश गये हुए प्रतिक्रामक को फिर औपशमिक भाव में आना इसका नाम प्रतिक्रमण है ॥६६॥ . प्रतिक्रमण प्रतिक्रामक और प्रतिक्रान्तन्य क्रमशः अतीत, प्रत्युत्पन्न (वर्तमान) और अनागत काल में होते हैं ।।८०।। प्रतिक्रमण : आठ प्रकारक होते हैं देवसिक, रात्रिक, इत्वरिक, यावत्कथिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक, सांवत्सरिक और उत्तमार्थक ॥८१॥ जैसे घर प्रतिदिन साफ किया जाता है फिर भी पक्ष की संधियों में विशेष प्रकार से झाड़ा जाता है उसी प्रकार यहाँ, भी समझ लेना चाहिए ॥२॥ प्रतिक्रमण के ८ दृष्टान्त हैं--मार्ग १, प्रासाद २, दूध ३, विषभोजन ४, तडाग ५, दो कन्याएं ६, पतिमारिका ७ और अगद ८ ये आठ दृष्टान्तों के नाम हैं ।।८३।। Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीमरा परिच्छेद प्रतिक्रमण गर्ने हेतु ग्रन्थोक्त प्रतिक्रमण विधि-- - ततो विधिनोपविश्य एकाग्रमनसा सर्वपंच परमेष्ठिनमस्कार पूर्वकं कर्म कर्त्तव्यमित्यादौ स पठ्यते - सामायिक सूत्रं करेमि भते x चत्तारि मंगलं - इच्छामि पडिमिउ जो मे देवसिओ अइयारो कओ x ईर्यापथिकी x मूल साधु प्रतिक्रमणसूत्रं जाव तस्स धम्मस्सत्ति श्राद्धस्तु आचरणादिना नमस्कारं, करेमि भंते सामाइयं, इच्छामि पडिकमिउ इति सूत्रपूर्वकं श्राद्ध प्रतिक्रमणसूत्रं कथयति x उत्त्थाय अब्भुट्ठिप्रोमि' इत्यादि सूर्य प्रान्ते यावत् पठति वदनक ४ पचप्रभृतिषु साधुषु सत्स त्रीन् श्री गुरुप्रभृतीन् क्षामयेत् ४वंदनकदान पूर्व अवग्रहाद्वहिनिःसृत्य आयरिय-उवज्झाय' सूत्र पठति X करेमि भते. सामाइयमित्यादिसूत्रत्रय पठति । चतुर्विशतिस्तवद्वयं चिन्तनं X चतुर्विंशतिस्तवभणनं, सबलोए अरिहंत चेइयाणमित्यादि सूत्र च पठित्वा तदर्थमेव कायोत्सर्गः एक चतुर्विंशतिस्तव चिन्तनरूपः । पारयित्वा "पुक्खर वरदी वड्ढे" इत्यादि सूत्र सु अस्स भगवनो करेमि' काउसग्गमित्यादि पठित्वा एक चतुर्विंशतिस्तव चिन्तन रूपं कायोत्सर्ग कुर्यात् ४ पारयित्वा सिद्धाणं बुद्धाणमिति - चतुविंशतिस्तव दय चिन्तनरूपः कायोत्सर्गः । सिद्धस्मरणं, वोरवन्दनं. Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ प्रतिक्रमण विधि संग्रह नेमिवन्दना, अष्टापद-नंदीश्वरादि बहुतीर्थनमस्काररूपां ‘चत्तारि अट्ठदसेत्यादि गाथां पठति । “सुप्रदेवयाए करेमि काउस्सग्गं, अन्नत्थे" त्यादि पठित्वा श्रुतदेवता कायोत्सर्ग कुर्यात् तत्र 'च' नमस्कारं चिन्तयति, पारयित्वा च तस्या स्तुतिं पठति एवं च क्षेत्र देवता पि स्मृतिमर्हति, यस्याः क्षेत्र स्थितिविधीयते ततस्तस्याः कायोत्सर्गानन्तरं स्तुति भणित्वा पंचमंगलभणनपूर्व संडासक, प्रमृज्यो पविशति X मुखवस्त्रप्रतिलेखनं ४ वन्दके दत्त्वाः इच्छामो अणुसठिमिति भणित्वा जानुभ्यां स्थित्वा कृताञ्जलिर्नमोऽर्हत्सिद्देति पूर्वकं .. स्तुतित्रयं पठति X श्रीगुरुभिरेकस्यां स्तुतौ पाक्षिकादि प्रतिक्रमणे तु . श्रीगुरुपर्वणों विशेषबहुमानसूचनार्थं तिसृष्वपि स्तुतिषु भणितासु सर्वे साधवः श्राद्धाश्च युगपत् पठन्ति X साध्वीश्राविकाश्च ‘नमोऽहत् सिद्धे' त्यादि न पठन्ति नमोऽस्तु वर्धमानायेत्यादि स्थाने संसारदावानलेत्यादि रूपं स्तुतित्रयं च पठति । रात्रिक प्रतिक्रमणे तु "विशाललोचनदलमित्यस्य स्थाने च । x श्री · गुरुकथनावसरे प्रतिस्तुतिप्रांते "नमोखमासमणाणं' इतिगुरुनमस्कारः । साधुश्राद्धादिभिर्भण्यते । Xस्तुतित्रयपाठानन्तरं शक्रस्तव पाठः । तत्र उदार स्वरेणैकः श्रीजिनस्तवं कथयति, अपरे च सर्वेसावधानमनसः कृतांजलयः शृण्वन्ति । स्तवभणनानंतरं “वरकनकेत्यादि" पठित्वा चतुभिः क्षमाश्रमणेः श्रीगुर्वादीन् वन्दते । अत्र च श्री देव गुरुवंदनं "नमोऽहंतु सिद्धाचार्यइत्यादेरारभ्य चतुःक्षमाश्रमणस्य प्रांतं यावत् ज्ञेयं । श्राद्धस्य तु अढ्ढाइज्जेसु इत्यादि भणनावधिज्ञयं देवसिक प्रायश्चित्तविशुद्ध्यर्थं कायोत्सर्ग कुरुते x अयं च कायोत्सर्गः सामाचारीवशेन कैश्चित् प्रतिक्रमणस्यान्ते, कैश्चिदादौक्रियते, पारयित्वा चतुर्विंशतिस्तवं च मंगलार्थं पठित्वा क्षमाश्रमणद्वयपूर्वमंडल्यामुपविश्य सावधानमनसा स्वाध्यायं कुरुते । मूलविधिना Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण विधि संग्रह पौरुषों यावत् संपूर्णी स्यात् X । संप्रति तु श्रीतपागच्छसामाचारीतो दैसिक प्रतिक्रमणानंतरं जघन्यतोऽपि पंचशती गुणनीया, पाश्चात्थायां निशि च त्रिशती। इति दैवसिक प्रतिक्रमण विधिरुक्ता। ... ... ... .. (प्रतिक्रमण गर्भहेतुः ५-६-१०) अर्थ-बाद में विधिपूर्वक बैठकर एकाग्र मन से “सर्व कर्तव्य परमेष्ठिनमस्कारपूर्वक करना चाहिये ।" इसलिये सर्वप्रथम नमस्कार. पढ़ना फिर सामायिक सूत्र “करेमि भंते०" इत्यादि पढ़े, बाद में "चत्तारिमगलं'' इत्यादि पढ़े, फिर "इच्छामि.पडिकमिउ जो मे देवसियो अइयारो को०" इत्यादि पढ़कर इरियापथिकी सूत्र पढ़, बाद में साधु प्रतिक्रमण सूत्र बोले, 'जाव तस्स धम्मस्स." यहां तक श्रावक आचरणादि से नमस्कार “करेमि भंते सामाइयं., इच्छामि पडिक्कमिउं०" इस प्रकार पूत्रपूर्वक श्राद्ध प्रतिक्रमण सूत्र .: पढ़े खड़ा होकर "प्रभुट्टिनोमिः'' इत्यादि सूत्र पाठ बोले। पांच आदि साधुओं में तीनों को खमावे। फिर वन्दनकदानपूर्वक अवग्रह ' से बाहर निकलकर "पायरिय-उवज्झाए०" सूत्र पढ़े, ऊपर "करेमि भंते." इत्यादि सामायिक सूत्र पढ़े और कायोत्सर्ग में दो उद्योतकरों का चिंतन करे। कायोत्सर्ग पारकर ऊपर चतुर्विंशतिस्तव पढ़े। 'सव्वलोए अरिहन्त चेइयारणं.' इत्यादि सूत्र पढ़कर अरिहंतचैत्यार्थ कायोत्सर्ग करे और एक चतुर्विंशतिस्तव का चिन्तन करे। कायोत्सर्ग पार कर "पुक्खरवरदी वढ्ढे०" इत्यादि सूत्र पढ़कर “सुअस्स भगवओ करेमि काउस्सग्गं." इत्यादि पढ़के एक चतुर्विंशतिस्तव चिन्तन रूप कायोत्सर्ग करे । कायोत्सर्ग पारकर "सि द्वारणं बुद्धाणं." .. कहकर चतुर्विशतिस्तव द्वय चिन्तन रूप कायोत्सर्ग करे। सिद्धस्मरण, वीरवदन, नेमिवंदन, अष्टापद, नन्दीश्वरादि नमस्कार रूप "चत्वारि Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४] प्रतिक्रमण विधि मन अद्वदश" इत्यादि गाथा पढ़े, श्रुतदेवता का कायोत्सर्ग करे। 'अन्नत्थ' इत्यादि पढ़कर कायोत्सर्ग में नमस्कार का चिन्तन कर उसकी स्तुति पढ़े। इसी प्रकार क्षेत्रदेवता का भी स्मरण करे। जिसके क्षेत्र में ठहरे हों उस क्षेत्र देवता का कायोत्सर्ग करे । स्तुति पढ़कर पंच मंगल बोल कर संडाशक प्रमार्जन कर बैठे, मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना करे। दो वंदनक वेकरः "इच्छामो अणुसटिं" ये शब्द बोलकर जानुओं के बल बैठकर अजलिपूर्वक "नमोहंत्सिद्धति" पढ़कर स्तृतित्रय पढ़े। गुरु के एक स्तुति पढ़ने . पर दूसरे स्तुति बोलें। पाक्षिकादि प्रतिक्रमण में तो गुरु का विशेष बहुमान सूचन करने के लिये तीनों स्तुतियां गुरु के पढ़ने के बाद सर्व साधु और श्रावक साथ में पढ़ें। साध्वी और श्राविकाएँ . "नमोऽहत्सिद्धे०" इत्यादि न पढ़े । “नमोस्तुवर्धमानाय०" इत्यादि के स्थान में "संसारदावानल.'' इत्यादि स्तुतित्रय पढ़ती हैं और रात्रिक प्रतिक्रमण में "विशाल लोचनदलं" के स्थान में भी "संसार दावानल०" इत्यादि तीन स्तुतियां पढ़ती हैं। जब गुरु स्तुति पढ़ते हैं तब प्रतिस्तुति के अन्त में "नमो खमा समणाणं" इस प्रकार गुरु को नमस्कार करें, साधु तथा श्रावक स्तुतित्रय पाठ के बाद शक्रम्तव का पाठ बोले । फिर एक जैन उदार स्वर से श्री जिन स्तव कहे और दूसरे सब सावधान मन से कृताञ्जलि होकर सुने । स्तव पढ़ने के अनन्तर "वरकनक." इत्यादि पढ़के चार क्षमाश्रमणों द्वारा श्री गुरु आदि को वन्दन करे। यहां देवगुरुवन्दन “नमोऽहंतु इत्यादि से लेकर चतुर्थ क्षमाश्रमण के अन्त पर्यन्त जानना चाहिये। और श्रावक का गुरुवन्दन “अढाईज्जेसु०" इत्यादि पठनावधि जानना। देवसिक प्रायश्चित्त विशुद्धयर्थ कायोत्सर्ग करे । यह Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६५ प्रतिक्रमण विधि संग्रह कायोत्सर्ग सामाचारी के अनुरोध से कोई प्रतिक्रमण के अन्त में करते हैं, तो कोई उस के आदि में । कायोत्सर्ग पारकर चतुर्विंशतिस्तव पढ़कर क्षमाश्रमण द्वयपूर्वक मण्डली में बैठकर सावधान मन से स्वाध्याय करें। मूल विधि से पौरुषी पर्यन्त स्वाध्याय पूर्ण होता है। वर्तमान में श्रीतपागच्छ की सामाचारी के अनुसार देवसिक प्रतिक्रमण के अनन्तर कम से कम भी पांच सौ माथा परिमाण स्वाध्याय करना चाहिये और पिछली रात्रि में तीन सौ परिमाण । यह दैवसिक विधि कही। (प्रतिक्रमण गर्भ हेतु त्र ६-१०) अथावश्यकारंभे साधुः श्रावकश्चादी श्रीदेवगुरुवंदनं विधत्ते। सर्वमप्यनुष्ठानं श्रीदेवगुरुवंदनविनयबहुमानादिभक्तिपूर्वकं सफलं भवति । x इतिहेतो-दशभिरथिकारैश्चैत्यवन्दना भाष्ये "पढम हिगारे वदे, भावजिणे बीअए य दवजिणे । इग चेइ अठवण जिणे, तइने ३ चउत्थं मि नाम जिणे ४॥१॥ तिहुअणडवणजिणे पुण, पंचमए ५, विहरमाण जिण छठे ६ । सत्तमए सुअनाणं, अट्ठमए सव्वसिद्धथुई ॥२॥ तित्थाहिव वीर थुई, नवमे ६ दसमे अ उज्जयंत थुई। अट्ठावयाइ इगदसि ११ सुदिद्विसुरसमरणा चरिमे ।।३।। नमु १, जे अइ २, अरिहं ३, लोग ४, सव्व ५, पुक्ख ६, तम ७, सिद्ध ८ जे दिवा ।। उज्जि १०, चत्ता ११ वेयावच्चग १२ अहिगार पढमपया ॥४॥" इति गाथोक्तेर्देववंदनं विधाय चतुरादि क्षमाश्रमणैः श्रीगुरून वन्दते ४ श्राद्धस्तु तदनु "इच्छकारि समस्त श्रावकों वंदु" इति Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण विधि सग्रह भणति । एवं च x भूनिहितशिराःX "सव्वस्सवि देवसिअ" इत्यादिसूत्रं भणित्वा मिथ्यादुष्कृतं दत्ते। इदं च सकल प्रतिक्रमणबीजकभूतं ज्ञेयं । ४ "करेमि भंते सामाइअमित्यादिसूत्रत्रयं" पठित्वाx कायोत्सर्ग कुर्यात कायोत्सर्गे च प्रातःप्रतिलेखनायाः प्रभृतिदिवसातिचारांश्चिन्तयति। मनसा संप्रधार्य “सयणासणे"त्यादिगाथा चिन्तनतः। एतदतिचारचिन्तनं मनसा संकलनं च श्रीगुरुसमक्षमालोचनार्थ x पारयित्वा चतुर्विशतिस्तवं पठेत् x ततश्च जानु पाश्चात्यभागपिंडिकादि प्रमृज्योपविश्य च श्रीगुरूणां वंदनक दानार्थ मुखवस्त्रिकां कायं च द्वावपि प्रत्येकं पंचविंशतिधा प्रतिलिखेत् तदनु वंदनके दद्यात् । एतद्वन्दनं च कायोत्सर्गावधारितातीचारालोचनार्थ x वंदनं प्रदाय सम्यगवनतांगः पूर्वकायोत्सर्गे स्वमनोवधारितान दैवसिकातीचारान् इच्छाकारेण संदिसह भगवन् देवसिनं आलोएमीत्यादिसूत्र उच्चारयन, श्री गुरुसमक्षमालोचयेत xएवं देवसिकातीचारालोचनान्तर मनोवचनकायसकलातीचारसंग्राहकं "सव्वस्सवि देवसिअ इत्यादि पठेत । इच्छाकारेण संदिसह इत्यनेनानंतरालोचितातीचार प्रायश्चित्तं च मार्गयेत गुरवश्च "पडिक्कमह" इति प्रतिक्रमणरूपं प्रायश्चित्तमुपदिशति । .. (प्रतिक्रमण गर्भहेतु पा ३-५) अर्थ-अथवा आवश्यक के प्रारम्भ में साधु और श्रावक प्रथम श्री देवगुरु का वन्दन करते हैं। सर्व प्रकार का अनुष्ठान श्रीदेवगुरु के वन्दन से और विनय बहुमानपूर्वक करने से ही सफल होता है । इसलिए बारह अधिकारों से चैत्य-वन्दन करे, बारह अधिकार चैत्य-वन्दन भाष्य में बताये है। प्रथम अधिकार में भावजिन, दूसरे . अधिकार में द्रव्य जिन, तीसरे अधिकार में स्थापना-जिन, चतथं में नाम-जिन, तीन लोक में जो स्थापना जिन है वे पंचम में, विहरमाण Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६७ प्रतिक्रमण विधि संग्रह जिन छठे में, सप्तम अधिकार में श्रुतज्ञान, अष्टम में सर्वसिद्धों की स्तुति, नवम में तीर्थपति वीरस्तुति, दशवें में उज्जयन्त स्तुति, ग्यारहवें में अष्टापदादि स्तुति और अन्तिम बारहवें अधिकार में सुदृष्टिदेवता का स्मरण करना चाहिए। इन बारह अधिकारों के प्रथम पद निम्न प्रकार से हैं-- "नमुत्थुणं १, जे अइया २, सिद्धा ३, अरिहंत चेइमाणं ४, लोग़स्स ५ । सव्वलोए ६ पुक्खरवरदी ७ समतिमिर ८ सिद्ध । जोदेवा ६ उज्जित १० चत्ता ११ वेत्रावच्चग १२॥" अधकारी के प्रथम पद हैं। इस गाथा के विधानानुसार देववंदन करके चार क्षमाश्रमणों से श्रीगुरु को वन्दन करना। श्रावक गुरु वन्दन के अनन्तर___ "इच्छुकारि समस्त श्रावको वन्दु०" ऐसा बोले, इसके बाद शिर जमीन पर लगाकर 'सव्वस्सवि देवसिअ" इत्यादि सूत्र पढ़कर मिथ्या दुष्कृत दे। यह सकल प्रतिक्रमण का बीजभूत समझना चाहिए । फिर “करेमि भन्ते सामाइयं०" इत्यादि तीन सूत्र पढ़कर के कायोत्सर्ग करे । कायोत्सर्ग में प्रभात की प्रतिलेखना से लगाकर दिवस भर के अतिचारों को चिन्तन करे। “सयणासण" इत्यादि गाथा के चिंतन से अतिचारों का मन में संकलन कर कायोत्सर्ग को पारकर चतुर्विंशतिस्तव पढ़े। संडाशक प्रतिलेखना कर गुरु वन्दन के निमित्त मुखवस्त्रिका और शरीर दोनों को २५ प्रकार से प्रतिलेखित करे । फिर २ वन्दनक दे । यह वन्दना कायोत्सर्ग में याद किये हुए अतिचारों की आलोचना के लिये समझना चाहिये। वन्दनक देकर शरीर नवाँकर कायोत्सर्ग चिंतित और अपने मन से याद रक्खे हुए अतिचारों की आलोचना करते हुआ कहे, "इच्छा Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण विधि संग्रह कारेण संदिसह भगवन् देवसिनं आलोएमि' इत्यादि सूत्र पढ़ता हुआ श्री गुरु के समक्ष अतिचार प्रकट करे। इस प्रकार देवसिक अतिचार आलोचना के बाद मन, वचन और कार्य सम्बन्धी तमाम अतिचारों का संग्राहक "सव्वसवि देवसि." इत्यादि पढ़े और "इच्छाकारण संदिसह" इस वचन से अनन्तर आलोचित अतिचारों का प्रायश्चित्त मांगे। गुरु “पडिक्कमह०" इस प्रकार प्रतिक्रमण सूत्रात्मक प्रायश्चित्त का उपदेश करें। (प्रतिक्रमण गर्भ हेतु पत्र.३-५). अब रात्रिक प्रतिक्रमण सम्बन्धी कुछ लिखते हैं-- "इदानीं रात्रिक-प्रतिक्रमणक्रमः कश्चिदुच्यते-- पाश्चात्य निशायामे निद्रां परित्यज्य x ईपिथिको प्रतिक्रम्यक्षमाश्रमणपूर्वक कुसुमिणदुस्सुमिण ओहडावणियं राइय पायच्छित्त विसोहणत्थं काउस्सग्गं करेमि" इत्यादि भणित्वा चतुर्विंशतिस्तवचतुष्कचिन्तनरूपं कायोत्सर्ग कुर्यात् । श्रावकस्तु अकृतसामायिकः सामायिकोच्चारपूर्व कायोत्सर्ग करोति चैत्यवंदनां विधाय स्वाघ्यायकायोत्सर्गादिधर्मव्यापार विधत्ते यावत् प्राभातिकप्रतिक्रमणवेला तदनु चतुरादि क्षमाश्रमणः श्रीगुर्वादीन् वंदित्वा क्षमाश्रमणपूर्व "राइयपडिक्कमणइ ठाउ" इत्यादि भरिणत्वा भूनिहितशिराः “सव्वस्सविराइअ" इत्यादि सूत्र भरिणत्वाशक्रस्तवं पठति X । उत्थाय "करेमि भंते सामाइअमित्यादि" सूत्रपाठपूर्व कायोत्सर्गत्रयं, करोति x सिद्धस्तवं पठित्वा संडासक प्रमार्जनपूर्वमुपविशति x पूर्ववन्मुखवस्त्रिकादि प्रतिलेखानपूर्वम् वन्दनकदानादिविधि विधत्त । तावद्यावत्प्रतिक्रमणानन्तरः कायोत्सर्गः ४ अत्र च कायोत्सर्गे श्रीवीरकृतं Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६ प्रतिक्रमण विधि संग्रह सिकश्विन्तयति कायोत्सर्ग पारयित्वा मुखवस्त्रिकादि प्रतिलेखनापूर्वं वन्दनकं दत्त्वा मनश्चिन्तित प्रत्याख्यान विधत्ते । तदनु. च "इच्छामो अरगुट्ठि ति भणित्वोपविश्य" स्तुतित्रयादि पाठपूर्व चैत्यानि वन्दते उभयोरप्यावश्यकयोराद्यन्तेषु मंगल्यार्थं चैत्यवन्दनेष्वधिकृतेष्वपि यदर्हमुखे प्रदोषे च विस्तरतो देववदनं तद्विशेषमंगल्यार्थं संभाव्यते । एवं च रात्रिक प्रतिक्रमणं विधाय साधुः कृतपौषधः श्राद्धश्च क्षमाश्रमणद्वयेन भगवन् ! बहुवेलं संदिसावे मि बहुवेलंकरेमि इति भणति ततश्चतुर्भिः क्षमाश्रमणैः श्री गुर्वादीन् वंदन्ते । श्राद्धस्तु प्रढ्ढा इज्जेसु इत्यादि च पठति । ततः प्रतिलेखनां विधत्ते X इतिरात्रिकप्रतिक्रमण विधिः ) ( प्रतिक्रमण गर्भ हेतु पत्र १० - ६ - १२) अर्थ - रात्रि के पिछले पहर में निद्रा का त्याग कर ईरियापथिकी प्रतिक्रमण करके क्षमाश्रमणपूर्वक "कुसुमिणदुसुमिण प्रोहडावरिणयं राइयपायच्छित्त विसोहरणत्थं काउस्सग्गं करेमि ० " इत्यादि पढ़कर चार उद्योतकरों का कायोत्सर्ग करे । श्रावक सामायिक न किया हो तो सामायिकोच्चारणपूर्वक कायोत्सर्ग करता है । चैत्य वंदना कर . स्वाध्याय कायोत्सर्गादि धर्मव्यापार करे जब तक रात्रिक प्रतिक्रमण का समय न हो । प्रतिक्रमण का समय होने के बाद चार क्षमाश्रमणों गुरु. आदि को वंदन कर क्षमाश्रमरणपूर्वक " राइप डिक्कमणइ ठाउ" इत्यादि पढ़कर पृथ्वी पर सिर नवांकर " सव्त्रसविराइय" इत्यादि सूत्र पढ़के शक्रस्तव पढ़े । खड़ा होकर 'करेमि भंते सामाइयं' इत्यादि सूत्रपाठपूर्वक तीन कायोत्सर्ग करे । सिद्धस्तव पढ़कर संडाशक प्रमार्जन पूर्वक बैठे और मुखवस्त्रिका दि प्रतिलेखनापूर्वक वन्दनक दान आदि विधि करे जो प्रतिक्रमण के अन्तिम कायोत्सर्ग तक समाप्त हो । इस कायोत्सर्ग से Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०] प्रतिक्रमण विधि संग्रह में श्री महावीरकृत पाण्मासिक तप की चिन्तना करे। कायोत्सर्ग पार कर मुखवस्त्रिका प्रतिलेखनापूर्वक वन्दनक दे और कायोत्सर्ग में चिन्तित तप का प्रत्याख्यान करे। उसके बाद " इच्छामो अणुसटुिं" कह कर बैठकर स्तुतित्रय बोले और चैत्यवंदन करे । दैवसिक और राशिक दोनों प्रतिक्रमणों के आदि और अन्त में मंगलार्थ चैत्य-वंदना के करने पर भी प्रभात में और सायकाल में जो विस्तार से देववंदन किया जाता है वह विशेष मंगल के लिये संभावित . है। इस प्रकार “रात्रिक प्रतिक्रमण करके साधु तथा पौषांधक श्रावक दो क्षमाश्रमण देकर “भगवन् बहुवेल संदिसावेमि, बहुवेलं करेमि०" यह पढ़े फिर चार क्षमाश्रमणों से गुरु आदि को वन्दन करे। श्रावक "अढ्ढाइज्जेसु." यह सूत्र भी पढ़े, बाद में प्रतिलेखना करे । यह रात्रिक प्रतिक्रमण की विधि कही। (प्रतिक्रमण गर्भ हेतु पत्र १०-१२) अथ पासिकम्-अब पाक्षिक प्रतिक्रमण की विधि कहते हैं-- "तत्र च पूर्ववद्द वसिक प्रतिक्रमण प्रतिक्रमणसूत्रान्तं विधत्तेx इच्छामि खमा० मत्थएण वंदामि । देवसिग्रं आलोइयपडिक्कन्ता इच्छाकारेण संदिसह भगवन् पाखी मुहपत्ती पडिलेहुं इत्युक्त्वा तां प्रतिलिख्य वंदनं संबुद्धान् श्रीगुर्वादीन क्षमयितु "अब्भुट्ठिओमि संबुद्धा खामणेण अभितर पक्खियं खामेउइति" भणि त्वा श्रीगुर्वादीन क्षमयति, श्रीन पंचवा यावद्विशेषान, तत उत्थाय इच्छाकारेण संदिसह भगवन पक्खिनं आलोएमि, इच्छं, आलोएमि पक्खिअं जो मे पक्खिो इत्यादि सूशं भणित्वा संक्षेपेण विस्तरेण वा पाक्षिकानतीचारानालोचयति "सव्वस्सवि पक्खिअ" इत्यादि भणित्वा Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [७१ प्रतिक्रमण विधि संग्रह उपवासादिरूपं प्रायश्चित्तं प्रतिपद्यते, ततो वंदनकदानपुरस्सरं प्रत्येकक्षामणकानि विधाय वंदनकदानपूर्व "देवसिय प्रासोइअं पडिक्कन्ता इच्छाकारेण भगवन् पक्खियं पडिक्कमावेह" 'इच्छं' इति भणित्वा "करेमि भंते सामाइअ" इत्यादि सूत्रद्वयपाठपूर्वकं क्षमाश्रमणं दत्त्वा कायोत्सर्गस्थितः पाक्षिकसूत्रं शृणोति एकश्च साधुः सावधानमना व्यक्ताक्षारं पाक्षिक सूत्रं पठति । x पाक्षिकसूत्रानंतरं "सुअदेवया भगवई" इति सूत्रं भणित्वोपविश्य विधिना पाक्षिक प्रतिक्रमणसूत्रं पठति, उत्त्थाय तच्छेषं कथयित्वा च करेमि भंते सामाइअमित्यादिसूत्रत्रयं पठित्वा प्रतिक्रमणेनाऽशुद्धानामतिचाराणां विशुद्धयर्थं द्वादश चतुर्विंशतिस्तवचिन्तनरूपं कायोत्सर्ग कुर्यात, x ततो मुखवस्त्रिका प्रतिलेख्य वंदनकपूर्व इच्छाकारेण संदिसह भगवन, अब्भुट्ठिओमि समाप्तखामणेरण अभितर पक्खियं खामेउमित्यादि भणित्वा क्षामणकं विधत्ते । ततश्चतुभिः क्षमाश्रमणैः सामाचारी यथोक्तविधिना चत्वारि पाक्षिकक्षामणकानि कुर्वन्ति । तदन्ते गुरवो भणंति नित्थारगपारगा होहत्ति, ततः सर्वे भणति • इच्छं । इच्छामो अणुसलुि ति, ततो वंदनक-क्षामणक-वंदनक-गाथात्रिकादिपाठक्रमेण देवसिकप्रतिक्रमणं कुर्यात्, "श्रुतदेवताकायोत्सर्गस्थाने भवनदेवता कायोत्सर्गः, स्तवस्थानेऽजितशांतिस्तवपाठश्च । (इति पाक्षिक प्रतिक्रमण विधि १२-१४) अर्थ---पाक्षिक में पूर्व की तरह दैवसिक प्रतिक्रमण प्रारम्भ करके प्रतिक्रमण सूत्र पर्यन्त देवसिक करले, फिर 'इच्छामि खमासमणो. मत्थएण वंदामि देवसिय पालोइ पडिकून्ता० इच्छाकारेण संदिसह भगवन पाक्षिक मुहपत्ती पडिलेहुं०" इस प्रकार बोलकर मुखवस्त्रिका को प्रतिले बना करे, फिर वन्दनक देकर गुरु आदि संबुद्ध पुरुषों को Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२] प्रतिक्रमण विधि संग्रह क्षमाए । "अब्भुट्टिओमि० संबुद्धा खामणेण अन्भिन्तर पक्खिनं . खामेउ" यह पढ़कर श्री गुरु आदि तीन अथवा पांच को खमाए। दो शेष रहे तब तक क्षमाना। बाद में खड़ा होकर "इच्छाकारेण संदिसह भगवन पक्खिग्रं आलोएमि” इच्छं आलोएमि पक्खिग्रं, जो मे पक्खिनो इत्यादि सूत्र पढ़कर संक्षेप से अथवा विस्तार से पाक्षिक अतिचारों की आलोचना करे। “सव्वस्सविपक्खिअ" इत्यादि पढ़कर प्रायश्चित्त ग्रहण करे। फिर वन्दनकदानपूर्वक प्रत्येक क्षमापन कर. वन्दनकदानपूर्वक "देवसिंगं आलोइयं पडिक्कन्ता इच्छाकारेण . भगवन पक्खिग्रं पडिक्कमावेह" गुरु आदेश से 'इच्छ' यह कहकर 'करेमि भंते सामाइय" इत्यादि सूत्र द्वय पाठपूर्वक क्षमाश्रमण देकर कायोत्सर्ग स्थित पाक्षिक. सूत्र सुने और एक साधु सावधान मन से व्यक्ताक्षरों में पाक्षिक सूत्र पढ़े। पाक्षिक सूत्र को समाप्ति के बाद तुरन्त "सुअदेवया भगवई' गाथा पढ़कर बैठकर विधि से निविष्ट पाक्षिक प्रतिक्रमण सूत्र पढ़े। प्रतिक्रमण के अन्त में उठकर शेष कहने योग्य कहकर "करेमि भन्ते सामाइयं” इत्यादि सूत्र पढ़के प्रतिक्रमण में अशुद्ध रहे अतिचारों की शुद्धि के लिये बारह चतुर्विंशतिस्तव चिन्तन रूप कायोत्सर्ग करे। कायोत्सर्ग को पूरा करके मुखवस्त्रिका प्रतिलेखन कर वन्दनकपूर्वक "इच्छाकारेण संदिसह भगवन अब्भुद्विोमि समाप्तखामणेणं अभितरपक्खियं खामेउ" इत्यादि बोलकर क्षामणक करे। बाद में चार क्षमाश्रमणों से चार पाक्षिक क्षामणक करे । तदनन्तर गुरु कहे "नित्थारग पारगा होह" तब सब साधु बोले-"इच्छामो अणुसटुिं" उसके बाद वन्दनकद्वय, क्षामणक, फिर वन्दन, गाथा त्रिक के पाठक्रम से दैवसिक प्रतिक्रमण कर। श्रुतदेवता के कायोत्सर्ग के स्थान पर "भवन Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [७३ प्रतिक्रमण विधि संग्रह देवता" का कायोत्सर्ग करे और स्तव के स्थान पर "अजितशान्तिस्तव" बोले, यह पाक्षिक प्रतिक्रमण की विधि समाप्त हुई। . ____ (इति पाक्षिक प्रतिक्रमण विधि: १२-१४) · चातुर्मासिक-सांवत्सरिक प्रतिक्रमणयोरपि क्रम एष एव नास्ति विशेषः । नवरं कायोत्सर्गे चातुर्मासिक प्रतिक्रमणे चतुर्विंशतिस्तव विशतिचिन्तनं, सांवत्सरिक प्रतिक्रमणे च चत्वारिंशच्चतुर्विशतिस्तवास्तदन्ते एको नमस्कारश्चिन्त्यते । क्षमणकं च पाक्षिक चातुर्मासिकयोः पंचाना, सांवत्सरिके च सप्तानां श्रीगुर्वादीनां यदि द्वौ शेषौ तिष्ठतः। इतिचातुर्मासिकसांवत्सरिकप्रतिक्रमणयोः क्रमविधिः संक्षेपत उक्तः (१२-१४) "श्री जयचन्द्रगणेन्दै प्रतिक्रमक्रमविधिर्यथावगमम् । लिखितस्तत्रोत्सूत्र, 'यन्मिथ्यादुष्कृतं तस्य ॥२॥ इति किंचित, हेतुगर्भः प्रतिक्रमण क्रमविधिः समाप्तः-- अर्थ-चातुर्मासिक और सांवत्सरिक प्रतिक्रमणों का भी यही क्रम है कोई ज्यादा अन्तर नहीं। अन्तर मात्र कायोत्सर्ग में है। . . चातुर्मासिक प्रतिक्रमण में २० उद्योतकरों का चिन्तन किया जाता · है, तो सांवत्सरिक प्रतिक्रमण में ४० उद्योतकर और उनके ऊपर एक नमस्कार का चिन्तन किया जाता है। अभुट्ठियो क्षामण में पाक्षिक और चातुर्मासिक में ५ जनों को अभुट्ठिया खमाते हैं और सांवत्सरिक में गुरु से लेकर यथारात्निक ७ साधुनों को अब्भुट्टियो से क्षामणक किया जाता है यदि शेष दो रहते हों। इस प्रकार चातुर्मासिक और सांवत्सरिक प्रतिक्रमणों का संक्षेप से विधि क्रम कहा। Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४] प्रतिक्रमण विधि संग्रह इस प्रकार श्री जयचन्द्र सूरि ने प्रतिक्रमण विधि अपनी जानकारी के अनुसार लिखी, इसमें कुछ उत्सूत्र भाषण हुआ हो उसका मिथ्या दुष्कृत हो । इस प्रकार प्रतिक्रमण गर्भहेतु समाप्त हुआ। श्रीपरमगुरु श्री तपागच्छनायक श्रीजयचन्द्रसूरिकृत । "एवं श्रीयुतसोमसुन्दरगुरु श्रीपट्टपूर्वाचलादित्य श्रीजयचन्द्र सूरि. गुरुभिः श्री.मत्तपागच्छपैः । किंचित् हेतुमयः प्रतिक्रमविधिवर्षेरसद्योतिथि संख्येदक्षजनप्रबोधविधये क्लृप्तश्चिरं नन्दतात्।" . unita --श्राद्ध दैवसिक प्रतिक्रमण विधिश्री पार्श्वर्षि सरिकृत श्राद्ध प्रतिक्रमणसूत्रवृत्तौ-- ___ प्रथमं साध्वादि समीपे मुखवस्त्रिका प्रत्युपेक्ष्य विधिना सामायिक करोति, चैत्यवन्दनं च। ततः प्रतिक्रमणभुवं प्रमाय॑ च पादपुछनंप्रत्युपेक्षण-स्थापनाचार्यस्थापन-संदशकप्रत्युपेक्षणपूर्वमुपविष्य सामान्यातिचारस्य मिथ्यादुष्कृतं कृत्वा विधिना प्रणिपातदण्दकं पठित्वा दिवसाऽतिचारपरिज्ञानाय सामायिककायोत्सर्गदण्डकोच्चारणपूर्वक कायोत्सर्ग करोति। तत्र च ज्ञानाद्याचारातिचारान् देवसिकान, विचिन्त्य नमस्कारपूर्वकं पारयित्वा चतुर्विंशतिस्तवं च पठित्वा मुखवस्त्रिका विधिवत प्रत्युपेक्ष्य द्वादशावर्तवन्दनपूर्वकं तेनैव क्रमेण गुरोरालोच्य विधिवत, सूत्रं पठति । तच्च तेषामेवातिचाराणां संस्मृत-. विस्मृतानां प्राग्वंदन या प्रत्येकं निन्दार्थ पठित्वा च अभ्युत्थानदण्डकेनाभ्युत्थितो वन्दनकरणपूर्वकमेव च क्षामयित्वा समर्पणावंदनं Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [७५ १ . प्रतिक्रमण विधि संग्रह कृत्वाऽऽचार्यादिक्षामणार्थं प्रतिबद्धगाथात्रयसामायिककायोत्सर्ग दण्डक पठनपूर्व चारित्राचारविशुद्धये कायोत्सर्गं करोति । २ लो० प्र० लो०, सव्वलोए अरिहंतचेइयाणं ४ कायो• १ लो० । पुक्खर- वरदी० सुअस्स भगवरो०, १ लो० । सिद्धारणं बुद्धाणं०, सिद्धानां भावनासारं स्तुतित्रयमुच्चारयति । सांप्रतं शेषमपि आचार्यपरम्परागतं भणित्वा श्रु तदेवाः श्रुतसमृद्धयर्थं, अन्यासां च क्षेत्रादिदेवता समाधानापादनार्थ कायोत्सर्गान् करोति, स्तुतीस्तु शृणोति, ददाति वा। पुनःसंदंशकादिप्रमार्जनपुरस्सरमुपविश्य मुखवस्त्रिका प्रत्युपेक्ष्य समास्तिवदनं करोति । ततो:गुरुस्तुतिग्रहणे कृते स्तुतित्रयं वर्धमानं पठति । प्रणिपातदण्डादि च सर्व सामाचार्याऽऽगतं करोतीति-- उक्तो देवसिक प्रतिक्रमणविधिः । अर्थ--प्रथम साधु आदि के समीप मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना कर विधि से सामायिक और चैत्यवन्दन करे। इसके बाद जिस स्थान पर प्रतिक्रमण करना हो उस भूमिभाग की प्रतिलेखना, प्रमार्जना ' करके प्रतिलेखित पासन स्थापन करे, फिर स्थापनाचार्य स्थापन, सण्डाशक-प्रतिलेखनापूर्वक बैठकर सामान्य अतिचार का मिथ्यादुष्कृत करके विधि से प्रणिपातदण्डक-शक्रस्तव पढ़कर दिवस के तिचारों को याद करने के लिए कायोत्सर्ग दण्डक-उच्चारणपूर्वक कायोत्सर्ग करे, उसमें ज्ञानाचारादि के दिवस सम्बन्धी अतिचारों को याद कर नमो अरिहंताणं बोलकर कायोत्सर्ग पारे और प्रकट चतुर्विंशतिस्तव पढ़कर मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना कर द्वादशावर्तवन्दनपूर्वक उसी क्रम से गुरु के आगे चितित अतिचारों की आलोचना करे, फिर सूत्र पढ़े, उन्हीं कायोत्सर्ग में संस्मृत अतिचारों में जो कोई रह गया हो उन प्रत्येक के पश्चात्तापार्थ उठकर वन्दनकरणपूर्वक Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६] प्रतिक्रमण विधि संग्रह गुरु को क्षमाये । समर्पणा वन्दन कर प्राचार्यादि को क्षमाने के लिए "पायरियउवज्झाए" इत्यादि तीन गाथा पढ़कर करेमि भन्ते तथा कायोत्सर्ग दण्डकपठनपूर्वक चारित्राचार की विशुद्धि के लिए कायोत्सर्ग करे, कायोत्सर्ग में २ लोगस्स का चिन्तन करें ऊपर प्रकट लोगस्स कहकर 'सव्वलोए अरिहंत चेइयाणं करेमि काउस्सग्गं इत्यादि पाठपूर्वक एक लोगस्स का कायोत्सर्ग करे। पुक्खरवरदी., सुअस्स भगवमो०, १ लो० । 'सिद्धाणं बुद्धाणं' इस सूत्र से भावनापूर्वक सिद्धों की तीन स्तुतियां बोले वर्तमान काल में आचार्यपरम्परागत दूसरी . गाथाएं भी पढ़कर श्रुतज्ञानको समृद्धि के लिए श्रृतदेवता का : कायोत्सर्ग करे और क्षेत्रादि समाधान संपादन के लिए क्षेत्रदेवी का . कायोत्सर्ग करे और स्तुति पढ़े अथवा सुने, फिर संदंशकादि प्रमार्जनपूर्वक बैठकर मुख वस्त्रिका की प्रतिलेखना करके समाप्ति का वन्दन कर, फिर गुरु के एक वर्धमानस्तुति बोलने पर सभी स्तुतित्रय पढ़ें, फिर प्रणिपात दण्डकादि सर्वसमाचार्यागत विधान करे । यह देवसिक प्रतिक्रमण विधि कही। रात्रिकोऽप्येवमेव, नवरं का० १ लो० । १ लो.। निशातिचारचिन्तनं तृतीये। सिद्धस्तुति च विधाय x उपविश्य आलोचनसूत्रपठनक्षामणादिकं पूर्ववत् कृत्वा आचार्यादिसंघ-सर्वजीव क्षामणाप्रतिबद्धार्थगाथात्रयं ४ पठित्वा x पाण्मासिकायाः समारभ्य एकदिनादिहान्या तावद् नयति येन कृतेन गुरु नियुक्तस्वाध्यायादिप्रयोजन हानिर्नोपजायते तावन्माो एव संतिष्ठते । प्रतिपन्न प्रतिमोऽन्यो वा यथाशक्तिमानतो जघन्येनापि नमस्कारसहितं प्रतिपद्य तदेव विधिवत, गुरुसाक्षिकं प्रत्याख्याति, ततः स्तुत्यादिके पूर्ववत कृते चैत्यवन्दने च समाप्तिर्भवतीति। Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (৩৩ प्रतिक्रमण विधि संग्रह उक्तः ओवतः श्रावक प्रतिक्रमण विधिः । भावार्थ--रात्रिक प्रतिक्रमण विधि का विधान भी लगभग इसी प्रकार का है। विशेष इतना है-२ कायोत्सर्ग एक एक लोगस्स परिमित कर, तीसरे कायोत्सर्ग में राज्यतिचारों का चिन्तन करे । सिद्धों की स्तुति पढ़कर बैठ के आलोचनासूत्र पढ़ और क्षामणादि पूर्ववत् कर, फिर आचार्यादि, संघ, सर्वजीवक्षामणाप्रतिबद्ध गाथा तीन पढ़ें फिर पाण्मासिक तपस्या से प्रारम्भ कर एक २ दिन की हानि करता हुआ जो तप करना हो वहां तक नीचे उतर, फिर कायोत्सर्म पारकर चिन्तित नमस्कारसहित आदि कायोत्सर्ग चिन्तित तपका गुरुसाक्षिक प्रत्याख्यान करे, उसके बाद स्तुति आदि पूर्ववत् बोलकर चैत्यवंन्दन करे और प्रतिक्रमण पूराकरे। यह सामान्य रूप से श्रावक प्रतिक्रमण विधि कही है। श्री चन्द्र परिकृत सुवोधा सामाचारीगत प्रतिक्रमण विधिः• “साहु-सावयाणं" राइपडिक्कमण विही जहा "इरिया-कुसुमिणस्सग्गो, जिण-मुणिवंदण तहेव सज्झाओ । - सव्वस्सवि सकत्थउ तिन्नि उस्सग्गा उ कायव्वा ॥१॥ चरणे दंसण नाणे, दुसुलोगुज्झोय तइय अइयारा । पोत्ती वंदण आलोय सुत तह वंद-खामणयं ॥२॥ चंदण तव-उस्सग्गो, पोत्ती वंदणय पच्चखाणं तु। . अणुसट्टि तिन्नि थुई, वंदण-बहुवेल-पडिलेहा ॥३॥ (इति रात्रिकम्) Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण विधि संग्रह · जिण मुणि वंदण अइयारुस्सग्गो पुत्ति वंदण लोए । सुस वंदण-खामण-वंदण तिन्नेव उस्सग्गा ॥१॥ घरणे दंसण नाणे, उज्जोया दुन्नि एक्क एकको य । सुय देवया दुसम्गा, पोत्ती वंदण तिथुई थोत्तं ॥२॥ (इति देवसिक विधि) मुहपोत्ती वंदणय, संबुद्धखामणं तहाऽऽलोए। .. वंदण-पत्तय खामणाणि वंदणा य सुत्तं च ॥३॥ . सुत्तं अब्भुटाणं, उस्सग्गो पोत्ती वंदणं तहय। . पज्जते खावणयं, पियं च इच्चाइ तह जाण ॥४॥ . (इति पाक्षिक विधि) भावार्थ- साधु-श्रावक रात्रि-प्रतिक्रमण की विधि इस प्रकार है'इरिया वही' प्रतिक्रमण करके कुस्वप्न का कायोत्सर्ग करे। फिर जिन तथा मुनि वदन कर स्वाध्याय करे। स्वध्याय कर "सव्वस्सवि० इत्यादि बोलकर शक्रस्तव पढ़कर तीन कायोत्सर्ग करे। पहला चारित्र शुद्धि के लिये, दूसरा दर्शनशुद्धि के लिये; इन दो कायोत्सर्गों में लोकोद्योत एक एकका चिन्तन करे। तीसरे में रात्रिक अतिचारों का चिन्तन करे। फिर मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना कर वन्दना पूर्वक रात्रिक अतिचारों की आलोचना करे और प्रतिक्रमण सूत्र पढ़े, वन्दना करे, क्षामणक करे, फिर वन्दना कर तप चिन्तन का कायोत्सर्ग करे ।कायोत्सर्ग पार कर मुखवस्त्रिका प्रतिलेखना पूर्वक वन्दनक दे और प्रत्याख्यान करे। "इच्छामि अणुसटुिं" बोलने के बाद वर्धमान तीन स्तुतियां बोले । देववन्दन करे "बहुवेलं संदिसाहो". कह कर प्रतिलेखना करे। यह रात्रिक प्रतिक्रमण की विधि है । इस प्रकार रात्रिक प्रतिक्रमण करना चाहिये। Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [e प्रतिक्रमण विधि संग्रह अब दैवसिक प्रतिक्रमण की विधि कहते हैं प्रथम जिन तथा मुनि वन्दन करके प्रतिचारों की आलोचना का कायोत्सर्ग करे। फिर मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना कर वन्दनक दे | वन्दना करके दैवसिक अतिचारों की आलोचना करे । फिर प्रतिक्रमण सूत्र पढ़ े । वन्दना करे । 'अब्भुट्टियो० ' खमाये, फिर वन्दना कर तीन कायोत्सर्ग करे | चारित्र की शुद्धि के लिये, दर्शनशुद्धि के लिये और ज्ञानशुद्धि के लिये क्रमशः दो तथा एक एक उद्योतकरों के कायोत्सर्ग करे, . फिर श्रुतदेवी आदि के दो कायोत्सर्ग कर मुखवस्त्रिका प्रतिलेखना कर वन्दना करें और वर्धमान तीन स्तुतियां पढ़ और स्तव पाठ करे। यह दैवसिक प्रतिक्रमण की विधि है । अब पाक्षिक प्रतिक्रमण की विधि कहते हैं- दैवसिक प्रतिक्रमण सू : कर पाक्षिक मुखवस्त्रिका की प्रति• लेखनां करे। दो वन्दनक दे, संबुद्ध खामणा खमाये । पाक्षिक आलोचना करे फिर दो वन्दनक दे, फिर प्रत्येक क्षामरणक खमावे, वन्दनक - पूर्वक पाक्षिकसूत्र पढ़े पाक्षिकसूत्र पूरा करने के बाद प्रतिक्रमण सूत्र पढ़ कर खड़ा होकर कायोत्सर्ग करे, पाक्षिक कायोत्सर्ग के अन्त में मुखवस्त्रिका प्रतिलेखनपूर्वक वन्दनक देकर समाप्ति का प्रभुट्टियो खमावे, अन्त में "पियंच मे० " इत्यादि चार क्षामणक बोले । यह पाक्षिक आदि की विधि है । Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण विधि संग्रह पौर्णमिक-प्रतिक्रमण विधिःप्रतिक्रमण विधिगाथा-- "जिण-मुणि वंदण अइआ,-रुस्सग्गो पुत्ति वंदणा लोए। सुत्तं वंदण -खामण, - वंदरण तिन्नेव उस्सग्गा ॥२॥ चरणे दंसरण नाणे, उज्जोमा दुन्नि एक इक्को य । सुयदेवया दुस्सग्गा, पोत्ती वंदण तिथुइ थुत्तं ॥२॥ पाक्षिकदिने तु देवसिक प्रतिक्रमण मध्ये-- 'अब्भुढिग्रोमि । आराहणाए वंदामि जिणे चउवीसं इत्यनन्तरं पक्खियमुहपत्ती पेहीयं वंदण, संबुद्धा खामणं पाक्षिके त्रयाणां, चातुर्मासिके पंचाना, सांवत्सरिके सप्तानां साधूनाम्। .. ' अर्थ--पक्खियालोयणं-पाक्षिक-चातुर्मासिक-सांवत्सरिका लोचनेषु पडिक्कमह, चउत्थेण, छ8 ण, अट्ठमण, इत्यादेशेन क्षामणं गुरुददाति, ततो गुरुरुत्थाय वक्ति-"इच्छाकारेण अमुक तपोधन !” ततः स गुरून् वंदित्वा भणति-"इच्छामो अणुसटुिंx" गुरुर्भणति-"अब्भुलिओऽहं पत्त यखामणेणं अभितरपक्खिय, खामेउ ।” शिष्य"अहमवि खामेमि तुब्भे" इत्युक्त्वा, गुरुश्च किंचिन्नतवपु, खामेमि पविखय पन्नर सह दिवसाणं, पन्नरसल राईणं जं किंचि अपत्तियं परपत्तियं" इत्यादि सकलमपि क्षामणकं भरणति, अहो तपोधन ! अर्थत्तिउ असमाधानु, असंतोषु स्थातु काई उ जं तुब्भ किउ तं सर्व क्षमे, मिच्छामि दुक्कडउ । शिष्यस्तु भणति-प्रभो ! जं काई मइ अत्ति, अविनय, अवज्ञा, आशातना तुम्हकी तहिं सर्व हिं पसाउ करीउ खमेउ ' मिच्छामि दुक्कडं । एवं सर्वेऽपि साधवो यथा ज्येष्ठं क्षामणकं कुर्वन्ति । श्रावकस्तु एवं भणति प्रभो ! जं कांइ मइ अभत्ती अविनो Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [८१ प्रतिक्रमण विधि संग्रह अवज्ञा आशातना तुम्ह की तहि सव्वहिं पसाउ करी खमेउ मिच्छामिदुक्कडं । एवं सर्वेऽपि साधवो यथाज्येष्ठं क्षामणकं कुर्वन्ति । श्रावकस्त्वेवं भणति-क्षमा० अब्भुट्ठिोऽहं पत्ते य खामणेणं । अभितरपक्खिउ खामेउ। साधु-अहमवि खामेमि तुब्भे इति । ततः श्राद्धः साधुपादलग्नः खामेमि पक्खियं इत्यादि सकलमपि क्षामणकं भरणति । साधुस्तु परपत्तियं तिपदात् अविहिणा सारिया वारिया चोइया पडिचोइया मरणेण वा वायाए वा काएण वा मिच्छामि दुक्कडंति भणति ।" "श्रावकाणां तु मिथः क्षामणा एव-ज्येष्ठो भणति-इच्छाकारइ अमुक सराव (सरांवकः) वांदउ । कनिष्ठोऽप्याह-वांदउ, खामउ। ततो द्वावपि भणतः- "खामेमि पक्खियं” पन्नरसह दिवसाणं पन्नरसह्ण राईणं जं किंचि अपत्तियं परपत्तियं, अविहि सारिया वारिया, भणिया, भासिया मिच्छामि दुक्कडं।" लघुस्त्विति भणन् ज्येष्ठस्य • जानुनोर्लगति । पुनर्वदउ खामउं द्वावपि भरणतः । एवं सर्वेषु क्षमितेषु • उत्संघटितां मुखवस्त्रिका प्रतिलिख्य द्वे वंदनके दत्त्वा देवसिय पालोइयं पडिक्कंता इच्छाकारेण भगवन् पक्खियं पडिक्कमावहे इति गुरूक्तेऽन्येप्येतद् भणंति। ततो गुरुर्वक्ति-पाखियसुत्त काढिउ सकिसि ? स वंदित्वाह-तुम्हारइं पसाइ, पुनगुरुराह-इच्छाकारि . पाखियसूत्रउ काढउ। सोऽथ वंदित्वा ऽऽह-इच्छा० पाखिय सुत्तु काढउं, इच्छं, जिनमस्कारानुच्चार्य पाक्षिकसूत्र मूर्ध्वस्थो भति, शेष साधवस्तु पर्यंकवन-गोदोहिकादि चतुरशीत्यासनस्थाः कायोत्सर्गस्था वा यथाशक्ति शृण्वन्ति ।" - सारांश-जिनवन्दन और मुनिवन्दन के बाद अतिचार की आलोचना का कायोत्सर्ग, मुहपत्तिप्रतिलेखना, वंदना और आलोचना Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२) प्रतिक्रमण विधि संग्रह सूत्र पढ़ना । दो वंदन, क्षामरगा, फिर वंदन और बाद में ३ कायोत्सर्ग चारित्र, दर्शन और ज्ञानशुद्धि के निमित्तक, इनमें क्रमश: दो, एक और एक उद्योतकरों का चिन्तन करना, श्रुत-क्षेत्र देवता के दो कायोत्सर्ग, मुहपत्तिप्रतिलेखना, वन्दन, फिर त्रिस्तुति पाठ और स्तोत्रपाठ | पाक्षिक के दिन दैवसिक प्रतिक्रमण के मध्य में 'प्रभुश्रोमि आराहणार' यहाँ से लेकर 'वंदामि जिणे चउवीसं' तक बोलकर पाक्षिक मुहपत्ति प्रतिलेखना, वन्दन, संबुद्धाक्षामणा करना पाक्षिक प्रतिक्रमण में तीनों को, चातुर्मासिक में पाँचों को और सांवत्सरिक में सात साधुओं को खमाणा । अब पाक्षिक आलोचना चातुर्मासिक और सांवत्सरिक आलोचना में गुरु आदेश करे " पडिक्कमह चतुर्थ भक्त, षष्ठभक्त और अष्टम भक्त का गुरु प्रदेश करे, फिर गुरु क्षमाश्रमण देकर कहे - "इच्छाकारेण अमुक मुनि" यह सम्बोधन सुनकर आमन्त्रित मुनि वदनपूर्वक खड़ा होकर कहे - " इच्छामि अरगुर्साट्ठ", गुरु कहे "प्रभुट्टिमोऽहं पत्तेयखामणेणं अभ्यन्तर पक्खियं खामेउं" शिष्य कहे - " अहमवि खामे म तुम्भे", यह कहकर गुरु किंचित शरीर नमाकर "खामेमि पक्खियं पन्नरसह्यं दिवसाणं पन्नरस राईणं जं किंचि प्रपत्तियं परपत्तियं" इत्यादि सम्पूर्ण क्षामरणक पाठ बोले और कहे हे तपोधन ! अप्रीति, असमाधान, असंतोष, आदि हमारी तरफ से कुछ हुआ हो उन सबका "मिच्छामि दुक्कड” देता हूँ | तब शिष्य कहेप्रभो ! मैंने कुछ प्रभक्ति, अविनय अवज्ञा, आशातना आदि की हो उन सबको कृपा करके क्षमा करें, मैं मिथ्या दुष्कृत करता हूँ । इस प्रकार सर्व साधु यथाज्येष्ठ क्रम से क्षामणक करते हैं, श्रावक इस प्रकार कहता है - "प्रभो ! जो कोई मैंने आपकी अभक्ति, अविनय Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण विधि संग्रह अवज्ञा, पाशातना की हो तो कृपाकर क्षमा करना मैं अपना मिथ्या दुष्कृत करता हूँ।" श्रावक क्षमाश्रमण देकर के “अब्भुट्ठियोऽहं पत्तेयखामणेणं अभितर पक्खियं खामेउ", बोले तब साधु कहे "अहमवि खामेमि तुब्भे" उसके बाद श्रावक साधु के चरणों का स्पर्श करके सकल क्षामणक का सूत्र बोले, उसमें साधु परपत्तियं बोलते हैं, तब साधु. अविधि से सारणा, वारणा की चोइणा, प्रतिचोइणा की हो तदर्थ मन, वचन और काया से मिच्छामि दुक्कड करता है। ___ श्रावकों के परस्पर क्षामणे इस प्रकार होते हैं-बड़ा श्रावक प्रथम कहे-"इच्छाकारि अमुक श्रावक तुम्हें वांदता हूं।" छोटा श्रावक कहे-“मैं तुमको वांदता हूं, खमाता हूँ", उसके बाद दोनों कहे"खामेमि पक्खियं पन्नरसल दिवसाणं पन्नरसह राईणं जं किंचि अपत्तियं परपत्तियं, अविधि से सारिया, वारिया, भणिया, भाषिया .मिच्छामि दुक्कड ।" . . छोटा श्रावक इस प्रकार बोलता हुश्रा बड़े श्रावक के जानुओं में हाथ दे, फिर वन्दन कर क्षमापन कर दोनों आगे प्रतिक्रमण करे, इस प्रकार सर्व को क्षमाकर उत्संघट्टित मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना कर वंदनक देकर "देवसियं आलोइयं पडिक्कंता इच्छाकारेण भगवन् पक्खियं पडिक्कमावेह" ऐसा गुरु के कथन के बाद दूसरे भी इसी प्रकार कहें, तब गुरु कहे-अमुक पाक्षिक सूत्र पढ़ सकोगे ? वह वंदन करके बोले,--"आपके प्रसाद से", फिर गुरु कहे "इच्छाकारि सूत्र पढो।" वह साधु वंदन करके कहे-- "इच्छाकारेण संदिसह भगवन् पाक्षिक सूत्र पढू इच्छं, कहकर तीन नमस्कार मंत्र का उच्चारण कर खड़ा खड़ा पाक्षिक सूत्र बोले Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४] प्रतिक्रमण विधि संग्रह और शेष साधु पयंकवज्रगोदोहिका आदि चौरासी आसनों में से .. किसी भी आसन से कायोत्सर्ग में स्थित होकर सुने । श्रावकस्तु-क्षमा० इच्छा० पाक्षिक सूत्र सांभलउ, इच्छं इत्युक्त्वा शृण्वन्ति, केवलानां च श्रावकाणां प्रतिक्रामतां एकः स्थापनाचार्याने क्षमा० इच्छा० पक्खिय सुत्तु भणउ इच्छं, ऊर्ध्वस्थः प्रतिक्रमणसूत्रमेव पाक्षिकालापेन भणति, शेषाः शृण्वन्ति । तदनुसर्वेऽयुपविश्य प्रतिक्रमणसूत्रं भणंति, अब्भुट्ठिओमि आराहणाएवंदामि जिणे चउवीसं, करेमि भंते सामाइयं, इच्छामि ठाउकाउस्सग्गं० चतुर्विंशति-.. स्तवान चंदेसु निम्मलयरेत्यन्तान १२ चिन्तयन्ति । अथ वें सकलं भणित्वा मुहपत्तीपेहणं, वंदणयं, समाप्तिखामणा, पक्खियखामणाणि. चत्तारि, सावयासोचत्तारि खमासमणाणि दिति तत्राद्य पाक्षिकेक्षामणे-तुब्भेहि समं, द्वितीये-'अहमवि वंदावेमि चेइयाई' तइए'आयरियस्स संतियं' चउत्थे-'नित्थारगपारगा होहत्ति, गुरूक्त शिष्याः 'इच्छामो अणुसटुिं' इत्याहुः गुरुराह-देवसिणिजिउ एवं चातुर्मासिके, पक्खिय शब्दस्थाने चातुर्मासिकालापः सांवत्सरिके सांवत्सरिकालापः । मूलगुणोत्तर गुणकायोत्सगौं चातुर्मासिके विंशतिः, सांवत्सरिके चत्वारिशं चतुर्विशतिस्तवाः सनमस्काराश्चिन्तयन्ते । तथा श्रुतदेवता कायोत्सर्गस्थाने। भवनदेवताकायोत्सर्गः तदीय स्तुतिभणनं च -इति पाक्षिक प्रतिक्रमणविधिः ॥ अर्थ-श्रावक क्षमाश्रमण देकर 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन, पाक्षिक सूत्र साभलू' इच्छं यह कहकर सुने। अकेले श्रावक प्रतिक्रमण करे तब एक श्रावक स्थापनाचार्य के आगे क्षमाश्रमण देकर कहे-'इच्छाकारेण संदिसह भगवन पक्खियसूत्र भणु ।' इच्छं कहकर खड़ा २ प्रतिक्रमण सूत्र ही पाक्षिक के नाम से पढ़े। शेष सब सुनें । Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [८५ प्रतिक्रमण विधि संग्रह सूत्र की समाप्ति के बाद सब बैठकर प्रतिक्रमण सूत्र पढ़ते हैं। "अब्भुट्टिनोमि आराहणाए" इत्यादि से लेकर "वंदामि जिणे चउवीस" यहाँ तक प्रतिक्रमण सूत्र पूरा कर 'करेमि भंते सामाइयं इच्छामि ठामि' इत्यादि सूत्र पढ़कर कायोत्सर्ग करे । कायोत्सर्ग में चन्देसु निम्मलयरा यहाँ तक चतुर्विंशतिस्तव बारह चिन्तबे, कायोत्सर्ग करके प्रगट लोगस्स कहे, मुहपत्ति प्रतिलेखना करे, मुहपत्ति प्रतिलेखनां कर दो वंदनक दे। समाप्ति अब्भुट्ठियो क्षमावे, चार पाक्षिक खमासमण दे। पहले पाक्षिक क्षामणे में 'तुब्भेहिं समं' दूसरे में अहमवि वंदावेमि चे इयाई' तीसरे में 'पायरियस्स संतियं' चौथे में 'नित्थारग पारगा होहत्ति" गुरु के कहने पर सब शिष्य कहेंइच्छामो अणुसटुिं ? गुरु कहे 'देवसि णिजिउ' 'इसीप्रकार चातुर्मासिक प्रतिक्रमण में पक्खिय शब्द के स्थान में चातुर्मासिक का नाम लेना चाहिये और सांवत्सरिक में सांवत्सरिक नाम लेना, मूलगुण उत्तर गुण कायोत्सर्गों में चातुर्मासिक में २० और सांवत्सरिक में ४० चतुर्विंशतिस्तव और ऊपर एक नमस्कार चिन्तन किया जाता है । तथा श्रुतदेवता के कायोत्सर्ग के स्थान भवनदेवता का कायोत्सर्ग और उसकी स्तुति बोलनी चाहिये। इस प्रकार पाक्षिक प्रतिक्रमण -विधि समाप्त हुई। प्रतिक्रमण विधि की २ संग्रहगाथाएं नीचे दी जाती हैं-- "मुहपत्ती वंदणय, संबुद्धाखामणं तहा लोए। वंदण-पत्तेय-खामणाणि वंदणं सुत्त ॥१॥ सुत्तं अब्भुट्ठाणं, उस्सग्गो पुत्ति वंदणं चेव । सम्मत्त खामणाणि य चउरो तह थोभ वंदगया ॥२॥ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण विधि संग्रह - उपर्युक्त प्रतिक्रमण विधि और संग्रहगाथाएँ पौर्णमिक तिलकाचार्य की सामाचारी में से ली हैं। श्री तिलकाचार्य पौर्णमिक गच्छ के प्रादुर्भावक श्री चन्द्रप्रभ सूरि के शिष्य धर्मघोष आचार्य के शिष्य श्री चक्रेश्वर सूरि के पट्टधर थे। चक्रेश्वर सूरि के शिष्य शिवप्रभ सूरि हुए, उन शिवप्रभ सूरि के शिष्य थी तिलकाचार्य हुए जिन्होंने जीतकल्प की विवृत्ति संवत् . १२७३ के वर्ष में बनाई थी। Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा परिच्छेद आचारविधि-सामाचारोगत प्रतिक्रमणविधि प्रथम रात्रि प्रतिक्रमण विधि-- "इरिया-कुसुमिणुस्सग्गो, जिण-मुनि वंदण तहेव सन्झायो। सव्वस्सवि संक्कथयो, तिन्नि उस्सग्गउ कायव्वा ॥१॥ चरणे दंसण-नाणे, दुसुलोगुज्जोय तइय अइयारा । पुत्ती वंदण आलोग्र सुत्त तह वंद खामणयं ॥२॥ वंदण-तव उस्सग्गो, पुत्ती वंदणय पच्च खाणं तु । अणुसलुि तिन्नि थुई, वंदण-बहुवेल-पडिलेहा ॥३॥" सरलार्थ-'इरियावही.' प्रतिक्रमण करके कुस्वप्नका कायोत्सर्ग करे; फिर जिन तथा मुनिवन्दन कर स्वाध्याय करे। “सव्वसवि." बोलकर शक्रस्तव कहे और क्रमशः तीन कायोत्सर्ग करे । चारित्र शुद्धि के लिये, दशन शुद्धि के लिये और ज्ञान शुद्धि के लिये । प्रथम के दो कायोत्सर्गों में एक एक लोकोद्योतकर का चिन्तन करे और तीसरे में रात्रि अतिचारों का चिन्तन करे । कायोत्सर्ग पार कर मुख. चस्त्रिका की प्रतिलेखना करें, वन्दनक दे, रात्रिक अतिचारों की मालोचना करे । फिर प्रतिक्रमण सूत्र पढे । दो वन्दनक दे । अब्भुट्ठियो० Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८] प्रतिक्रमण विधि संग्रह खमावे, फिर दो वन्दनक देकर तप चिन्तन का कायोत्सर्ग करे। मुख वस्त्रिका की प्रतिलेखना कर दो वन्दनक दे और प्रत्याख्यान करे। "इच्छामो अणुसटुिं" कहकर तीन स्तुति बोले-देव वन्दन करे और बहुवेल कह कर प्रतिलेखना करे। देवसिकादि प्रतिक्रमण विधि--- "जिण मुणि वंदण अइया रुस्सग्गो पुत्ति वंदणा लोये। सुत्तं वंदरण खामण, वंदण चरणाइ उस्सग्गा ॥४॥ . उज्जो दु इक्किक्का, सुअखित्त स्सग्ग पुत्ति वंदणयं । थुइतिअ नमुत्यु थुत्त, पच्छित्त स्सग्गु सज्झामो । ५।। अर्थ-'देवसिक प्रतिक्रमण में जिनवन्दन और मुनिवन्दन कर अतिचारों की चिन्तना के लिये कायोत्सर्ग करना, कायोत्सर्ग पार कर मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना करना और दो वंदनक देना और "अब्भुट्ठियो०" खमाकर फिर दो वंदनक देना और चारित्रादि की शुद्धि के लिये कायोत्सर्ग करने । कायोत्सर्गों में क्रमशः दो; एक और एक उद्योतकरों का चिन्तन करना। फिर श्रुतदेवी और क्षेत्रदेवता के कायोत्सर्ग कर मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना करना और वन्दनक देकर वर्धमान तीन स्तुतियों का पाठ करना। शक्रस्तव बोलकर स्तोत्र पढ़ना। देवसिक प्रायश्चित्त का कायोत्सर्ग करके स्वाध्याय करना ॥४-५॥ पाक्षिकम् -- 'पुत्तिवंदण संबुद्धा,-खामणा लोए वंद पत्तेयं । खामण-वंदण समइय-दंडयसुत्त निसिन सुत्त ।।६।। सामाइयदंडय उस्सग्गा, पुत्ती वंदणय खाम चउथोभा। सुअठाणे सिज्जसुरुस्सग्गोऽजिअ संति थुत्तं च ॥७॥ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [८६ प्रतिक्रमण विधि संग्रह संबुद्धा खामणए, पण सग चउमास वच्छरे खामे। उस्सग्गुज्जोय बारस, वीसं चत्ता नमुक्कारो॥८॥ देवसिग्र पडिक्कमण सुत्ते भरिणए खमासमण पुव्वं भणइ-देवसिनं आलोए उ पडिक्कंता इच्छाकारेण संदिसह भगवन् पक्खियं मुहपत्तियं पडिलेहेमि । तो पुत्ति पेहिअ वंदणयं दाउँ इच्छाकारेण संदिसह भगवन ! अब्भुढिओमि संबुद्धाखामणेणं अभितरपक्खियं खामेउ इच्छं खामि पक्खियं--"पनरसा दिवसाण, पनरसल राइआणं, जं किंचि अप्पत्तियं" इच्चाइणा गुरुहिं ठवणायरिय खामिए सत्ताइमुणिसंभवे गुरुपमुहा पंच खामिज्जन्ति, आरओतिन्नि, तओ उठाय इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! 'पक्खिग्रं आलोएमि, इच्छं आलोएमि जो मे पक्खिओ" इच्चाइ भणिय अडयारेसु आलोइएसु सव्वस्सवि पक्खि० समुदायेण सावया भणंति पडिकमह चउत्थेणं, इच्छं • तस्स मिच्छामि दुक्कडं । तो वंदणे दिन गुरु भणइ-देवसिग्रं 'आलोइय पडिक्कन्ता इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! अब्भुट्टिओमि० .. पत्तेय खामणेण अन्भिन्तर पक्खिन खामे, इच्छ इच्छकारि अमुक तपोधन ! सो भणइ-"मत्थएण वंदामि'' खमासमण च देइ, गुरुराह-"अब्भुट्ठिओमि पत्ते अखामणेणं-अभितर पक्खि खामेउ सोवि-'अहमवि खामेमि तुम्भेत्ति भणिम भूनिहिअ सिरो भणइ-“इच्छ खामेमि पक्खियं, पनरसह्ण दिवसाणं, पनरसह्ल राईणं जं किंचि अप्पत्ति इच्चाइ, गुरुवि पनरसहं" इच्चाइ “उच्चासणे समासणे वज्ज" भणइ, एवं सव्वेवि साहुणो परस्परं खामेंति, लघुवायणायरिएण सह पडिक्कताण जिट्ठो पढम ठवणा यरियं खामेइ तओ सब्वे वि जहा रायणिए, गुरु प्रभावे सामन्न साहुणो पढमं ठवणा यरिय Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण विधि संग्रह खामिति, एवं सावया वि, नवरं "वुड्ढ साव भो भणइ-अमुक प्रमुख समस्त श्रावका ! वांदउ वांदउ वुड्ढो भणइ-अब्भुट्ठियोमि इच्चाइ, इअरे भणंति-अहमवि खामेमि तुब्भे। दोवि भणंति-"पनरसह दिवसाणं, पनरसह्ण राईणं, भण्यां भास्यां मिच्छामि दुक्कडं ।" तनो वंदणं दाउ भणंति-देवसिम आलोइअ पडिक्कंता इच्छा कारेण संदिसह भगवन् पक्खिग्रं पडिक्कमावेह गुरु भणइ-“सम्म पडिक्कमह" तनो इच्छ भणिन "करेमि भंते सामाइयं पुव्वं" इच्छामि पडिक्कमिउ जो मे पक्खियो” इच्चाइ भणिअ "खमासमण पुव्वं पक्खिन सुत्त संभलामित्ति भणिय जहा सत्ति काउस्सग्गाइठिंआकाउंसंभलंति, तओ उव विसिअ सुत्तं भणिअ करेमि भन्ते इच्चाइणां स्सग्गं करिअ' दुबालस उज्जोअगरे चितिति, पारिय चउवीसत्थयं भणइ-पुत्ति पेहिअ वंदणं दाउं इच्छाकारेण संदिसह भगवन् । अब्भुठ्ठिनोमि समाप्तिखामणेण अभितर पक्खिन खामेउ इच्चाइणा खामिम उठाय भणंति-इच्छाकारेण संदिसंह भगवन् ! पक्खी खामणां खामउ, इच्छ तओ साहुणो खमासमणपुव्वं भूमिट्टि असिरा "इच्छामि खमासमणो" पिनं च भे इच्चाइ. चत्तारि खामणाणि करिति, सवया पुण इक्किक्क नमुक्कारं भणंति इच्छामो 'अणुसढि भणिय पुव्वं व अग्गो देवसिन करिति । (प्राचीन सामाचार्या-पायारमयं वीरं इत्यादिना प्रारब्धायाम् पत्र १०-११) भावार्थ--अब पाक्षिक प्रतिक्रमण की विधि कहते हैं- . मुहपत्ति प्रतिलेखना, संबुद्धा-क्षामण, पाक्षिक अतिचारालोचन, वंदना प्रत्येक क्षामणक फिर वंदन, सामायिक सूत्र, पाक्षिक सूत्रबैठकर प्रतिक्रमण सूत्र, सामायिक सूत्र दण्डक, कायोत्सर्ग । मुख करिमका प्रतिलेखन, वन्दनक, क्षामणक चार, स्तोभवन्दन श्रु तदेवता Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण विधि संग्रह के कायोत्सर्ग के स्थान भवनदेवी का कायोत्सर्ग और अजितशांतिस्तव का पाठ। संबुद्धाक्षामणों में चातुर्मासिक में ५ और वार्षिक में ७ को खमाना । पाक्षिक कायोत्सर्ग में १२ उद्योतकरों का चिन्तन, और सांवत्सरिक कायोत्सर्ग में ४० उद्योतकर और १ नमस्कार का चिन्तन करना चाहिए ।।६-८॥ देवसिक प्रतिक्रमण सूत्र पढ़ने पर क्षमाश्रमणपूर्वक शिष्य कहता है-"देवसिक आलोचना कर प्रतिक्रमण किया है अब भगवन इच्छानुसार प्राज्ञा दीजिये, पाक्षिक मुहपत्ति को प्रतिलेखना करता हूँ।" बाद मुहपत्ति प्रतिलेखना कर दो वन्दनक दे के कहे-- "हे भगवन ! इच्छापूर्वक आदेश कीजिए मैं संबुद्धाखामणक द्वारा पाक्षिक के भीतर जो कुछ अपराध हुए हैं। उनको क्षमाने के लिये खड़ा हूं और मेरी इच्छा से क्षमाता हूं। पन्द्रह दिनों, पन्द्रहरात्रियों में जो कुछ भी अप्रीति आदि हुए हों" इत्यादि अब्भुट्टियो सूत्र का पाठ बोले, प्रथम गुरु स्थापनाचार्य को क्षमावे, बाद में सात आदि मुनियों की संख्या हो तो गुरु से लेकर ५ तक को क्षमाना । अगर ७ से कम हो तो ३ को खमाना, फिर उठकर “इच्छाकारेण संदिसह पाक्षिक आलोचना करूं, हे भगवन आदेश दीजिये, पाक्षिक अतिचारों की आलोचना करूं ?" गुरु का आदेश होने पर कहे--"इच्छं आलोएमि०" "जो मे पक्खियो०" इत्यादि पाठ पढ़कर अतिचारों की आलोचना करे। आलोचना करने के बाद "सव्वस्सवि० पक्खिय०" इत्यादि समुदाय के पढ़ने पर गुरु आदेश दे प्रतिक्रमह." अर्थात,-'प्रतिक्रमण करो'। फिर गुरुवचन"चउत्थेण." चतुर्थ भक्त इत्यादि होने पर तस्स मिच्छामि दुक्कडं अर्थात् शिष्य कहे-मेरा वह दुष्कृत मिथ्या हो। बाद में वन्दन देने Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ LY प्रतिक्रमण विधि संग्रह - पर गुरु कहे - " दैवसि आलोइयं अर्थात् दैवसिक आलोचना प्रतिक्रमण किया। शिष्य कहे भगवन इच्छापूर्वक आदेश दीजिये। मैं पाक्षिक सम्बन्धी अपराध खमाने के लिए खड़ा हुआ है । प्रत्येक को क्षामणा करूंगा। गुरु के आदेश पर शिष्य ' इच्छ' ऐसा बोले । यहां सर्व प्रथम गुरु कहे " इच्छकारी अमुक तपोधन !" इस प्रकार गुरु संबोधन करने पर सबसे बड़ा शिष्य कहे - " मत्थए वंदामि " यह : कह कर क्षमाश्रमरण दे। तब गुरु कहे - " मैं प्रत्येक खामण से पाक्षिक खमाता हूँ ।" तब बड़ा शिष्य कहे " श्रहमपि खामेमि० ' । मैं भी आपको क्षमाता हूं।" यह कह कर जमीन पर शिर रखकर बोले- "इच्छ खामेमि पक्खियं पन्नरस राईणं दिवसाणं० जं किंचि अपत्तियं" इत्यादि पाठ कहे, तबगुरु भी " पनरसह ०" इत्यादि बोले, परन्तु गुरु “उच्चासने समासने०” ये दो शब्द न कहे। इसी प्रकार क्रमशः उतरते हुए एक दूसरे के बाद परस्पर साधुक्षमणा करे । लघु वाचनाचार्य के साथ प्रतिक्रमण करने वालों में ज्येष्ठ साधु प्रथम स्थापनाके चार्य को क्षमाये फिर सब साधु यथारात्निक को खमाए । गुरु अभाव में सामान्य साधु प्रथम स्थापनाचार्य को खमाते हैं । इसी प्रकार श्रावक भी । श्रावकों के सम्बन्ध में विशेष यह है कि बड़ा श्रावक कहे - " अमुक प्रमुख समस्त श्रावकों को वांदता हूँ२, दो बार बोले, या वृद्ध कहे- "अब्भुट्ठियोमि० " इत्यादि । दूसरे श्रावक कहें"अहमपि खामेमि" में भी खमाता हूं तुमको। दोनों कहें- "पन रस दिवसाणं पनरसङ्घ राईणं भण्यां भाष्यां मिच्छामि दुक्कडं" उसके बाद वंदनक दैकर वोले देवसिक आलोचना प्रतिक्रमण किया, हे भगवन् इच्छा. पूर्वक पाक्षिक प्रतिक्रमण कराइये । गुरु कहे - अच्छी तरह प्रतिक्रमिये, तब शिष्य 'इच्छ' कहकर "करेमि भंते सामाइयं०" इत्यादि पूर्वक Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ९३ प्रतिक्रमण विधि संग्रह "इच्छामि पडिक्क मिउं जो मे पक्खिओ०" इत्यादि बोलकर क्षमा श्रमण देकर कहे - "पाक्षिक सूत्र सांभलु ।” फिर यथाशक्ति कायोत्सर्गस्थित सर्व साधु सांभले, सूत्र पूरा होने पर बैठ कर निविष्ट प्रतिक्रमण सूत्र पढ़े, सूत्र की समाप्ति में "करेमि भंते ० " इत्यादि पूर्वक कायोत्सर्ग करके बारह उद्योतकरों का चिन्तन करे । कायोत्सर्ग पार कर चतुर्विंशतिस्तव पढ़ के मुखवस्त्रिका प्रतिलेखनापूर्वक वन्दनक देकर कहे - "इच्छाकारेण संदिसह भगवन् अब्भुट्ठियोमि समाप्तिखामपेण अब्भितर पाक्खि खामे उं०" इत्यादि । क्षामणा कर उठकर कहे - " इच्छाकारेण संदिसह भगवन् पक्खी खामणां खामउ" गुरु के आदेश देने पर कहे - 'इच्छ' बाद साधु क्षमाश्रमणपूर्वक भूमि पर सिर नवांकर, "इच्छामि खमासमणो पिश्रं च मे० " इत्यादि चार खामणक बोले । श्रावक ! एक नमस्कार भरणे । बाद में " इच्छामो अरणुसट्ठि०” कह कर पहले की तरह आगे 'दैवसिक' प्रतिक्रमण करे । (प्राचारविधि सामाचारी पत्र १० - ११ ) " जिनवल्लभगणिकृता प्रतिक्रमण सामाचारी "सम्मं नमिउ देविन्द - विन्दवंदियपयं, महावीरं । पडिकमण समायारि, भणामि जह, संभरामि श्रहं ॥१॥ पंच - विहायार - विसुद्धि, हेउमिह साहु सावगो वा वि । किम सह गुरुणा, गुरु विरहे कुणइ इक्कोवि ॥ २ ॥ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ex प्रतिक्रमण विधि संग्रह वंदित्तु चेइयाइ, दाउ चउराइए खमासमणे । भूनिहियसिरो सयला - इयार मिच्छुक्कड देइ ॥३॥ सामाइय पुव्व-मिच्छामि ठाइउ काउस्सग्गमिच्चाइ । सुत्तं भरिणय पलंविय भुयकुप्परधरियपहिरणओ ||४|| घोडगमाई दोसेहिं विरहिनिं तो करेइ उस्सगं । संजइ १ कविट्ठ २ घण ३ लय ४ लंबुत्तर ५ खलिण ६, सबरि ७ बहु ८ पेहा । वारुणि १० भममुह ११ गुलि १२ सीस १३ सूय १४ हय १५ काय १६ नियल १७ उद्धी १८।५।। थंभाइ १८ दोसरहियं तो कुणइ दुहूसिनो तरगुस्सग्गं ।। नाभि ग्रहो जागुद्ध, चउरंगुलिठवि कडि पट्टो ||६|| तत्थइ धरेइ हियए, जहक्कमं दिणकए श्रईयारे । पारित नमुक्कारेण, पढ़इ चउवीसथयदंडं ॥७॥ संडास पमज्जिय, उवविसिय अलग्गहियय बाहुजुओ । मुहुगं तयं च कायं च, पेह पंचवीस इहा ||८|| उठिय वि (ठ) ओ सविरणयं, विहिणा गुरुणो करेइ किइकम्मै । बत्तीस दोसरहिनं पणवीसावस्यविसुद्धि ॥९॥ थद्ध १ पविद्ध २ मणाढिय, ३ परिपिडिय ४ मंकुसं ५ सुव्यत्तं ६ |कच्छभ रिंगिय ७ टोलगय ८ ढढ्ढरं ६ वेइयाबद्ध ।। १० ।। मट्ठ ११ रुद्ध १२ ब्जिय १३ सढ १४ हीलिय १५ तेणियं पडिणीयं च १७ । दिट्ठमदिट्ठ १८ सिंगं १६, कर २० मोयण २१ मूण २२ मूयं च २३ ॥११॥ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण विधि संग्रह तप २४ मित्ति २५ गोरव २६ करेणेहिं २७ पलिय चियं २८ भयं २६ नि च । आलिद्धमणालिद्ध ३०, चूलिय ३१ चुडलित्ति ३२ बत्तीसं ||१२|| बारसावत्तं । दुपवेस - महाजायं, दुयं प इग निक्खमं तिगुत्तं चउसिर नमरणं ति पणवोसा ॥१३॥ अह सम्मभवणयंगो, करजुय विहि धरिय पुत्तिरय हरणो । परिचिंतिएंऽइयारे, जहक्कुमं गुरु पुरो वियडे ॥१४॥ ग्रह उवविसित्त सुत्तं, सामाइयमाइयं पढिय पयो । प्रभुट्टिओमि इच्चाइ पढइ दुहउट्ठियो विहिणा ।।१५।। दाऊणं वन्दणं तो पणगाइसु जइसु खामए तिन्नि । किइकम्मं करिय प्राथरियमाइ ठिप्रोसढ्ढो गाहातिगं पढइ || १६ || इह सामाइय- उस्सग्ग-सुत्त मुच्चरिय काउसरग ठिओ । चिन्तइ उज्जोयदुगं चरितअइयारसुद्धिकए || १७|| विहिणा पारिय सम्मत्त सुद्धिहेउ च। पढइ उज्जोत्रं । तह सब्वलोयअरहंत - चेइयाराहरणुस्वग्गं ॥१८ || चितिय पारेइ सुद्धसम्मत्तो । काउ उज्जोयगरं, पुक्रवरदी वढ्ढ कड्ढइ सुइसोहनिमित्त ॥ १६ ॥ पुण पणवीसुस्सास, उस्सग्ग करेइ पारए तो सकुसल किरिया - फललग सिद्धाण पढइ विहिणा । थयं ||२०|| [ex उस्सग्गं । 1 अह सुअस मिद्धिहेउ सुअदवी ग्रे करेइ चितेइ नमुक्कारं, सुई व देई व तीई थुई ||२१|| Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण विधि संग्रह एवं खित्तसुरीए, उस्सग्गं कुणइ सुणइ देइ थुः । पढिउ' च पचमगल, मुनविसइ पमज्ज सडासे ।।२२।। पुव्वविहिणेव पेहिय, पुत्तिदारूण वदरण गुरुणो। इच्छामो अणुसलुि ति भणिय जाणूहि तो ठाई ॥२३॥ गुरुथुइगहणे थुई तिन्नि वद्धमाणक्खरस्सरा पढइ । सच्कत्थव यवं पढिय कुणइ पच्छित्तउस्सग्ग ॥२४॥ एव ता देवसिय, राइयमवि एवमेव णवरि तहिं । पढमं दाउं मिच्छामि दुक्कड पढइ सक्कथय ।।२५।। उट्ठिय करेइ विहिणा उस्सग्ग चितए (अ) उज्जोय । बीय दंसणसुद्धीए, चितए तत्थ वि एमेव ॥२६॥ तइए निसाइयारं, जहक्कम . चितिऊण पारेइ । सिद्धत्थव पढित्ता, पमज्ज. सडासमुवविसइ ॥२७।। पुव्व च पुत्तिपेहण, वदणमालोयसुत्तपढण च । वंदण-खामण-वदण गाहातिगपढणमुस्सग्गो ॥२८॥ तत्थ य चिंतइ संजम-जोगाण न होइ जेणं मे हाणी। तं पडिवज्जामि तव, छम्मासं त न काउमल ॥२६॥ एगाइ-इगुणतीसूणिय पि न सहो न पचमासमवि । एवं च उ ति दुमासे, न समत्थो एगमासं पि ॥३०॥ जा तं पि तेरसूण, चुत्तीसइमाइतो दुहाणीए । जाव चउत्थं तो आयंबिलाइ जा पोरिसि नमो वा ॥३१॥ ज सक्कइ तं हियए, धरित्तु पारित्तु पेहए पुति । दाउ वंदणमसढो, त चिय पञ्चक्खए विहिणा ॥३२॥ इच्छामो अणुसट्ठि-ति, भणिय उवविसिम पढइ तिन्नि थुई । मिउ सद्देणं सक्कत्थयाइ तो चेइए वंदे ॥३३॥ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण विधि संग्रह अह पक्खियं चउद्दसि-दिणंमि पुव्वं च तत्थ देवसियं । सुत्ततं पडिकमिउ तो सम्ममिमं कमं कुरगइ ॥३४॥ मुहपुत्ती वन्दणय संबुद्धाखामणं तहा लोए। वदण पत्त यखामणाणि, वन्दणयमह सुत्त च ॥३५॥ सुत्त अब्भुट्ठाण उस्सग्गो पुत्ति-वन्दणं तहं य। पज्जंतिय-खामण य, तह चउरो' थोभवन्दणया ।।३६।। पुव्वविहिणे व · सव्वं, देवसियं वन्दणाइ तो कुणइ । सिज्जसुरीउस्सग्गो, भेओ । सन्ति थयपढणे अ ॥३७॥ एवं चिअ चंउमासे, वरिसे य जहक्कम विहीने ओ। पक्ख चउमास-वरिसेसु, नवरि नाम मि नाणत ॥३८।। . तह उस्सग्गोज्जोआ, बारस वीसा समंगलग चत्ता। संबुद्धाखामरण. ति-पण-सत्तसाहूण जह संखं ॥३९।। इयजिरणवल्लहगरिगणां, लिहियं जं सुमरियं अप्पमइणावि । उस्सुत्तमणाइन्न, जं मिच्छादुक्कडं तस्स ।।४।। (पडिकमण सामाचारी) (उपर्युक्त मूल ४० गाथाएँ श्री जिनवल्लभ गणि की प्रतिक्रमण सामाचारी की १५वीं शती की लिखी हुई प्रति के ऊपर से ली हैं ये गाथाएँ आचार्य श्री हेमचन्द्र सूरि के योगशास्त्र की टीका में दी हुई गाथाओं से अक्षरशः मिलती हैं। सामाचारी की प्रथम गाथा, कायोत्सर्ग दोष निरूपक गाथायें, वन्दनक दोष निरूपक गाथाएँ और अन्तिम गाथाएँ, ये गाथाएं योगशास्त्र की टीका में नहीं हैं। इन गाथाओं के सिवाय शेष सभी गाथाएँ अक्षरशः एक हैं।) भावार्थ--देवेन्द्रों के समूहों से जिनके चरण वंदित हैं ऐसे भगवान महावीर को सम्यक् प्रकार से नमन करके प्रतिक्रमण Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण विधि संग्रह सामाचारी कहता हूँ, जैसी मुझे स्मरण में है ॥१॥ - पंच प्रकार के प्राचारों की शुद्धि के निमित्त साधु अथवा श्रावक भी गुरु का योग होने पर उनके साथ प्रतिक्रमण करता है, गुरु के अभाव में अकेला भी गृहस्थ प्रतिक्रमण करता है ।।२॥ . चैत्यों का वन्दन करके चार क्षमाश्रमण देकर, मस्तक जमीन पर लगा के सर्व अतिचारों का मिथ्या दुष्कृत देता है. ॥३॥ सामायिक पाठपूर्वक "इच्छामि (ट्ठामि)" इत्यादि पाठ पढ़कर । दोनों भुजायें नीचे लम्बी कर कूपरों द्वारा पहरने का वस्त्र दबाकर खड़ा २ कायोत्सर्ग करे ॥४॥ _ घोटक आदि दोषों से रहित हो कायोत्सर्ग करे । संयती १ कपित्थ २ घन ३ लता ४ लंबोत्तर ५ खलिन ६ शबरी ७ वधू ८ प्रेक्षा ६ वारुणी १० भंवर ११ अंगुलि १२ शीर्ष १३ सूत १४ हय १५ काय १६ निगड १७ उद्धी १८ ॥५॥ स्तंभादि १६ दोषरहित, भाव और द्रव्य दोनों प्रकार से खड़ा हो कायोत्सर्ग करे। नाभि के नीचे और जानु के ऊपर चार अंगुल पहनने का वस्त्र रखकर कायोत्सर्ग करना ॥६॥ उसमें दिन में लगे हुए अतिचार यथाक्रम हृदय में धारण करके नमस्कारपूर्वक कायोत्सर्ग पारे और ऊपर चतुर्विंशतिस्तव सूत्र कहे ॥७॥ संडासक प्रमार्जन करके बैठकर दोनों बाहुओं को हृदय को न अड़ा कर मुहपत्ती और शरीर की २५ प्रकार से प्रतिलेखना करे ॥८॥ उठ कर खड़ा हुआ सविनय विधिपूर्वक गुरु को कृतिकर्म करे। कृतिकर्म में ३२ दोषों को टाले और २५ अावश्यक से विशुद्ध कृतिकर्म करे ।।६।। Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [RE प्रतिक्रमण विधि संग्रह स्तब्ध १ प्रविद्ध २ अनाहत ३ परिपिडित ४ अंकुश ५ मत्स्योद्वर्त ६ कच्छपरिंगित ७ टोलगति ८ ढढ्ढ र ६ वेदिकाबद्ध १० मनोदुष्ट ११ रुद्ध १२ लज्जित १३ शठ १४ होलित १५ स्तैनिक १६ प्रत्यनीक १७ दृष्टादृष्ट १८ शृग १६ कर २० मोचन २१ ऊन २२ मूक २३ ।।११॥ __तप २४ मैत्री २५ गौरव २६ कारण २७ पर्यंचित २८ भय २६ आलिद अनालिद्ध ३० चूलिका ३१ और चुडलिया ३२, ये वन्दन के बत्तीस दोष हैं ॥१२॥ वन्दन में दो प्रवेश, यथाजात, दो नमन, द्वादशावर्त, एक निष्क्रमण, त्रिगुप्त और चतुश्शिर नमन ये २५ ॥१३ । अब सम्यक् अवनताङ्ग हो (शरीर नमाकर) दोनों हाथों में मुखवस्त्रिका और रजोहरण धारण कर कायोत्सर्ग में विन्तित अतिचारों को यथाक्रम गुरु के सामने प्रकट करे ॥१४।। .. बाद में बैठकर सामायिक आदि प्रतिक्रमण सूत्र पढ़कर .."अब्भुडियोमि०" इत्यादि पढ़ता हुआ भाव और द्रव्य. से विधिपूर्वक . खड़ा होकर ॥१५॥ . फिर वन्दनक देकर पांच साधुओं में से तीनों को खमावे और कृतिकर्म करके "आयरिय उवज्झाए" इत्यादि श्रद्धावान होकर तीन '. गाथाएँ पढ़े, यहाँ सामायिक और कायोत्सर्ग सूत्र पढ़कर कायोत्सर्ग में स्थित होकर दो चतुर्विशतिस्तव चिन्तन करे, जिससे चारित्र के अतिचारों की शुद्धि हो ॥१६॥१७॥ __विधिपूर्वक कायोत्सर्ग पार कर सम्यक्त्वं शुद्धि के हेतु नामस्तव पढ़े और सर्वलोकगत अरहन्त प्रतिमाओं की आराधना के लिये कायोत्सर्ग करे। कायोत्सर्ग में "उद्योतकर" का चिन्तन करके कायोत्सर्ग पूरा करे ॥१८॥ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० ] प्रतिक्रमण विधि, संग्रह इस प्रकार सम्यक्त्व को शुद्ध करके "पुक्खरवरदी वढ्ढे" इत्यादि श्रुतस्तव पढ़े और श्रुतज्ञान की शुद्धि के निमित्त फिर २५ श्वासो - च्छ्वास परिमित कायोत्सर्ग करे, कायोत्सर्ग को विधिपूर्वक पारकर जिनको सकल कुशल क्रियाओं का फल प्राप्त हुआ है ऐसे सिद्धों का स्तव पढ़े ।।१६ - २० ॥ श्रुतज्ञान की समृद्धि के हेतु श्रुतदेवी का कायोत्सर्ग करे, कायोत्सर्ग में एक नमस्कार का चिन्तन कर श्रुतदेवी की स्तुति कहे प्रथवा सुने ॥२१॥ इसी प्रकार क्षेत्र देवी का कायोत्सर्ग करे और उसकी स्तुति बोले अथवा सुने, ऊपर पच मंगल पढ़कर सण्डास प्रतिलेखनापूर्वक बैठ जाय ||२२|| पूर्वोक्त विधि से ही मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना कर गुरु को वन्दनक देकर "इच्छामो प्ररसट्ठि" ऐसा कह कर दोनों जानुओं के बल बैठे ||२३|| गुरु के एक स्तुति पढ़ने पर दूसरे सभी वर्धमान' अक्षर और स्वर से तीन स्तुतियाँ बोलें, फिर शक्रस्तव पढ़कर प्रायश्चित्त का कायोत्सर्ग करे ॥२४॥ यह दैवसिक प्रतिक्रमण की विधि कही। इसी प्रकार रात्रिक प्रतिक्रमण की विधि भी समझ लेना चाहिए। उसमें जो विशेषता है वह यह - रात्रिप्रतिक्रमण में प्रथम "मिच्छामि दुक्कडं" कहकर शक्रस्तव पढ़े ||२५|| खड़ा होकर विधि से कायोत्सर्ग करे । कायोत्सर्ग में "लोगस्स . उज्जोनगरे” का चिन्तन करे। दूसरा दर्शनशुद्धि के लिये कायोत्सर्ग करे, उसमें भी 'उद्योतकर' का चिन्तन करे ॥ २६ ॥ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१० १ प्रतिक्रमण विधि संग्रह तीसरे कायोत्सर्ग में यथाक्रम रात्रिक अतिचारों का चिन्तन कर कायोत्सर्ग पारे और ऊपर सिद्धस्तव पढ़कर सण्डास प्रमार्जन करके बैठे ||२७|| पूर्वोक्त विधान से ही मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना कर वन्दना कर आलोचना सूत्र पढ़े। फिर वन्दनापूर्वक "अब्भुट्ठियोमि" सूत्र से क्षामणक करे ||२८|| · इस कायोत्सर्ग में चिन्तन करे कि जिस तप के करने से मेरे योगों की हानि न हो उस तपस्या को स्वीकार करू । षाण्मासिक तप करूँ तो षाण्मासिक तप करने की शक्ति नहीं है, एक एक दिन कम करते हुए २६ दिन कम छः मास करूँ ऐसा करने की भी शक्ति नहीं है । क्या, पञ्च मास करूँ ? यह करने की भी शक्ति नहीं है । इसी प्रकार ४ मास ३ मास २ मास और १ मास करने की भी शक्ति नहीं है ॥२६-३० । ♡ एक मास में से भी एक एक दिन कम करते हुए १३ दिन कम करने का चिन्तन करे । उसके बाद ३४ भक्त ३२ भक्त यावत चतुर्थ भक्त तप करने का चिन्तन कर उपवास करने की शक्ति भी न हो तो आयम्बिल आदि का चिन्तन करता हुआ पौरुषी अथवा नमस्कार सहित तप तक नीचा उतरे ||३१|| अपने लिये जो तप शक्य हो उसको हृदय में धारण करके कायोत्सर्ग पारे और बैठकर मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना करे । वन्दनक देकर निष्कपट भाव वाला होकर कायोत्सर्ग में चिन्तित तप का विधिपूर्वक प्रत्याख्यान करे ||३२|| फिर " इच्छामो अगुसट्ठि" यह बोल कर बैठके धीमें शब्द से शक्रस्तवादि पढे और चैत्य वन्दन करे ॥ ३३॥ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२] प्रतिक्रमण विधि संग्रह अब पाक्षिक प्रतिक्रमण की विधि कहते हैं पाक्षिक प्रतिक्रमण चतुर्दशी के दिन-किया जाता है। उसमें प्रतिक्रमण सूत्र पर्यन्त प्रथम देवसिक करके फिर सम्यग् रूपसे आगे लिखे क्रमसे करे ॥३४॥ मुख वस्त्रिका को प्रतिलेखना कर वन्दन दे, फिर “सम्बुद्धा' क्षामणक करे, पाक्षिक आलोचना करे, वन्दन देकर प्रत्येक क्षामणक करे । प्रत्येक क्षामणक के बाद फिर वन्दना, फिर पाक्षिक सूत्र पढे ॥३५॥ फिर प्रतिक्रमण सूत्र पढकर खड़ा होकर कायोत्सर्ग करे। कायोत्सर्ग पूरा कर मुखवस्त्रिका प्रतिलेखन पूर्वक वन्दनक दे तथा पर्यन्त क्षामणा करे । तथा चारथोभ वन्दन करे ।।३६॥ . . _ इसके बाद पूर्वोक्त विधिके अनुसार ही शेष दैवसिक प्रतिक्रमण विधि करे, वन्दनादि देकर भवन देवी का कायोत्सर्ग करे और अजित शांतिस्तव पढे-यह भेद है ।।३७॥ इसी प्रकार चातुर्मासिक और सांग्त्सरिक प्रतिक्रमण की विधियां यथाक्रम समझना चाहिये। एवं पाक्षिक, चातुर्मासिक, वार्षिक प्रतिक्रमणों में नाम मात्र की भिन्नता है ।।३।। पाक्षिकादि में क्रमशः बारह, बीस, नमस्कार मंगल सहित चालीस 'लोगस्स' का कायोत्सर्ग होता है। 'संबुद्धा' क्षामणक ३, ५ तथा ७ साधुओं को किया जाता है ॥३७॥ इस प्रकार अल्पमति जिन वल्लभगणिने जो याद था वह लिखा सूत्र विरुद्ध, अथवा आचरणा विरुद्ध लिखा हो उसका मिथ्या-. दुष्कृत देता हूं ॥४०॥ (पडिक्कमणसामाचारी का भाषांतर) Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१०३ प्रतिक्रमण विधि संग्रह श्रीहरिप्रभसूरिरचित यति दिनकृत्य की प्रतिक्रमण विधि "अर्द्ध निमग्ने बिम्बे, भानोः सूत्र भणन्ति गीतार्थाः । इतिवचनप्रामाण्यावसिकावश्यके कालः ॥४२॥ अथवाप्येतन्निाघाते, मुनयस्तथा प्रकुर्वीरन् । आवश्यके कृतेसति, यथा प्रदृश्येत तारिकात्रितयम् ॥४३।। धर्मकथादिव्यग्रे, गुरौ तु मुनयः स्थिता यथास्थानम् । सूत्रार्थस्मरणपरा-श्चापृच्छय गुरुं प्रतीक्षन्ते ॥४४॥ आवश्यकं विदधते, पूर्वमुखास्तेऽथवोत्तराभिमुखाः। श्रीवत्साकारस्थापनां समाश्रित्य तिष्ठन्तः ॥४५।। प्राचार्या इह पुरतो द्वौपश्चात्तदनु त्रयस्तस्मात् । द्वौ तत्पश्चादेको, रचनेयं नवकगणमानात् ॥४६॥ (हरिप्रभकृत यतिदिनकृत्ये पत्र. ८-8) भावार्थ--सूर्य मण्डल प्राधा अस्त हुआ हो उस समय गीतार्थ "करेमि भन्ते" इत्यादि प्रतिक्रमणसूत्र पढते हैं। उक्त वचन की प्रमाणिकता से देवसिक प्रतिक्रमण का समय भी यही समझना चाहिये । ' परन्तु यह प्रतिक्रमण समय निर्व्याघात प्रतिक्रमण का समझना चाहिए। इस समय में मुनि निर्व्याघात प्रतिक्रमण करते हैं और इस के समाप्त होने पर आकाश में दो तीन तारे दीखने लगें तब इस की समाप्ति का समय होता है धर्म कथादि करने में गुरु व्यग्न हो उस समय शेष साधु प्रतिक्रमण की मण्डली में अपने अपने स्थानों पर गुरु को आज्ञा लेकर बैठ जाते हैं और सूत्र अर्थका स्मरण करते हुए गुरु की प्रतीक्षा करते हैं। Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४] प्रतिक्रमण विधि संग्रह आवश्यक क्रिया पूर्व तरफ अथवा उत्तर तरफ मुख करके करते हैं । प्रतिक्रमण की मण्डली श्रीवत्स के आकार की बनाकर बैठते हैं । इस मण्डली में प्राचार्य सबके आगे उनके पीछे दो साधु, उनके बाद ३ साधु, उनके बाद दो और उनके पीछे फिर एक यह क्रम नव सख्यक साधुनों की प्रतिक्रमण मण्डली का है ॥४२-४६।। .. KORBA जिनप्रभसूरीय विधिमार्गप्रपा की प्रतिक्रमण विधि देवसिक प्रतिक्रमण विधिः-- ___ श्रावक गुरु के साथ अथवा अकेला 'जावंतिं चेहयाइ' ये गाथाएँ और प्रणिधान पाठवर्जित चैत्यवन्दन करके चार क्षमाश्रमणों से प्राचार्यादि का वंदन कर जमीन तल पर मस्तक लगाकर “सव्वस्सवि देवसिय" इत्यादि पाठ से सर्वातिचारों का मिथ्या दुष्कृत करे, उठकर "करेमि भंते" पाठ पढ़कर "इच्छामि ठामि काउस्सग्गं" इत्यादि सूत्र पढ़े, दोनों भुजाएँ लम्बीकर कुहनियों से परिधान को धारण कर नाभि के नीचे और जानुओं के ऊपर चार अंगुल चोलपट्टक रखकर 'संयतिकपित्थादि' दोषरहित कायोत्सर्ग कर यथाक्रम दिनकृत अतिचारों को हृदय में यादकर नमस्कार से कायोत्सर्ग पारे, चतुर्विशतिस्तव कहकर संदंशक प्रमार्जन कर बैठके विस्तृत बाहु युग से शरीर को न छूता हुआ मुहपत्ती और शरीर की २५-२५ प्रतिलेखनाएँ करे । श्राविका पृष्ठ, सिर, हृदय, सिवाय १५ अंगों की प्रतिलेखनायें करें। मुखवस्त्रिका प्रतिलेखनानन्तर खड़ा हो बत्तीस दोषरहित, पच्चीस आवश्यक विशुद्ध कृतिकर्म (वंदन) करके अवन Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१०५ प्रतिक्रमण विधि संग्रह तांग होकर दोनों हाथों में विधिपूर्वक रजोहरण मुखवस्त्रिका पकड़कर देवसिक अतिचारों को गुरु के आगे प्रकट करने के लिये आलोचना पाठ पढ़े । बाद में मुहपत्तिः से कटासन अथवा पाद प्रोंछन की प्रतिलेखना कर बायाँ पग नीचे और दाहिना जानु ऊँचाकर दोनों हाथों से मुखवस्त्रिका पकड़ कर प्रतिक्रमण सूत्र पढ़े । सूत्र की समाप्ति में दो वंदनक देकर द्रव्य भाव से खड़ा होकर "अब्भुट्ठियोमि आदि पाठ से मंडली में ५ साधु हों तो तीन को क्षमाना, प्रतिक्रामक साधु सामान्य हों तो स्थापनाचार्य को खमाने के बाद ३ साधूओं को "अब्भू ट्ठियो" खमाना चाहिये । फिर कृतिकर्म करके खडा हो सिर पर हाथ जोड़ करके "आयरिय उवज्झाए" इत्यादि तीन गाथाएँ पढ़ । सामायिक सूत्र और कायोत्सर्ग दंडक पढ़कर चारित्राचार की विशुद्धि के लिए दो चतुर्विंशतिस्तव का कायोत्सर्ग करे । गुरु के कायोत्सर्ग . पारने पर कायोत्सर्ग पारे, सम्यक्त्व शुद्धयर्थ उद्योतकर पढ़कर • सव्वलोए अरिहत" चैत्याराधनार्थ कायोत्सर्ग करे, उद्योतकर का चिन्तन करे । पारकर श्रु तशुद्धयर्थ "पुक्खरवरदीवढ्ढे' पढ़े, फिर उद्योतकर १ का कायोत्सर्ग कर, पारकर सिद्धस्तव पढ़ के श्रुतदेवता का १ नमस्कार का कायोत्सर्ग कर उसकी स्तुति बोले, अथवा सुने । इसी प्रकार क्षेत्र देवता का कायोत्सर्ग कर १ नमस्कार का चिन्तन करे । पार कर स्तुति कहे वा सुने और नमस्कार मंगल पढ़कर संदंशक प्रमार्जन पूर्वक बैठकर प्रथम की तरह मुहपत्ति प्रति लेखनाकर वंदनक दे "इच्छामो अणुसटुिं" यह बोलकर दोनों जानुअों के बल बैठकर वर्धमान अक्षार स्वर से तीन स्तुतियां पढ़कर शक्रस्तव तथा स्तोत्र पढ़के प्राचार्यादि को वन्दन करे । प्रायश्चित्तविशोधनाथ कायोत्सर्ग करके उद्योतकर ४ का चिंतन करें। (इति देवसिक प्रतिक्रमण विधि, Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६] प्रतिक्रमण विधि संग्रह पातिक प्रतिक्रमण विधि-- पाक्षिक प्रतिक्रमण चतुर्दशी को करना चाहिये । उसमें “अब्भुट्ठियोमि पाराहाणाये" इत्यादि सूत्र पर्यन्त दैवसिक प्रतिक्रमण करके फिर दो क्षमाश्रमणों से पाक्षिक मुहपत्ति की प्रतिलेखना करे । पाक्षिक नाम से वन्दनक देकर संबुद्धक्षामणा करके खड़ा होकर . पाक्षिकालोचना सूत्र से “सव्वस्सविपक्खिय” पर्यंत पढ़के वन्दनक देकर कहे "देवसिनं आलोइयं पडिक्कतं पत्तेयखामणेणं अब्भुट्ठियोहं ' अन्भिन्तरपक्खियं खामेमि" यह कहकर यथारात्निक क्रम से साधु । और श्रावक खमावें । मिच्छामि दुक्कडं देकर सुख तप पूछे । सुख पाक्षिक साधुओं को ही पूछे श्रावकों को नहीं। बाद मंडली में यथा स्थान खड़े होकर वंदन देकर कहे "देवसिधे आलोइयं पडिक्कतं पक्खियं पडिक्कमावेह" तब गुरु कहे सम्मपडिक्कमह यह कहने पर शिष्य "इच्छ" कह कर सामायिकसूत्र और कायोत्सर्ग सूत्र पढ़कर क्षमा श्रमण देकर पक्खियसुत्तं संदिसावेमि, दूसरा क्षमा श्रमण देकर "पक्खियसुत्तं कढ्ढेमि" । इस प्रकार आदेश पूर्वक तीन नमस्कार पढ़कर पाक्षिक प्रतिक्रमण सूत्र पढ़े, अन्य सुनने वाले कायोत्सर्ग में सुनें, सूत्र के बाद तस्सूत्तरी करणेणं" इत्यादि पढ़कर कायोत्सर्ग में खड़े रहे। सूत्र की समाप्ति में खड़ा पढ़ने वाला तीन नमस्कार पढ़के बैठे और नमस्कार सामायिक सूत्र तीन बार पढ़कर "इच्छामि पडिक्कमिउ जो मे पक्खिनो अइयारो कओ" इत्यादि सूत्र बोलकर उपविष्ट प्रतिक्रमण सूत्र पढ़े, सूत्र के उपान्त्यमें अब्भुढिओमि आराहणाए इत्यादि पाठ बोल कर क्षमाश्रमण देके मूलगुण उत्तरगुण"मइयार विसोहणत्थ करेमि काउस्सगं०" यह कहकर करेमि भन्ते०, इच्छामि ठामि काउस्सग्गं इत्यादि पाठ पढकर बारह लोगस्स का Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१०७ प्रतिक्रमण विधि संग्रह • कायोत्सर्ग करे, कायोत्सर्ग पार करके ऊपर उद्योतकर पढ़के मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना करे और वन्दनक देके समाप्तिक्षामणा कर चार स्तोभ वन्दनों से तीन तीन नमस्कार कर नत मस्तक होकर पढ़े, आगे शेष देवसिक प्रतिक्रमण करे । विशेष यह है कि श्रुत देवता की स्तुति के बाद भवन देवता का कायोत्सर्ग ८ श्वासोच्छ्वास परिमति कर उसकी स्तुति बोले या सुने, स्तव के स्थान में अजित शांति स्तव पड़े। इसी प्रकार चातुर्मासिक, सांवत्सरिक प्रतिक्रमणका नाम बोले । पाक्षिक कायोत्सर्ग में जहां १२ उद्योतकरों का चिन्तन होता है वहां चातुर्मासिक में २० का और सांवत्सरिक में ४० उद्योतकर १ नमस्कार का चिन्तन होता है तथा पाक्षिक में ५ साधुत्रों में से ३ को सबुद्धक्षामणा किया जाता है। चौमासी में ७ में से ५ को और सांवत्सरिक में आदि में से ७ को क्षमाया जाता है । २ साधु शेष अवश्य रहने चाहिये । तथा सांवत्सरिक में भवन देवता का कायोत्सर्ग नहीं किया जाता, न स्तुति बोली जाती है। अस्वाध्यायिक का कायोत्सर्ग नहीं किया जाता । रात्रिक देवसिक में 'इच्छामोऽणुसद्धि" पढ़ने के बाद गुरु के एक स्तुति कहने बाद मस्तक पर अंजलि करके "नमो खमा समणाणं' यह कहकर अथवा सिर पर हाथ जोड़कर अन्य साधु वर्धमान ३ स्तुतियां बोलते हैं, तब पाक्षिक में गुरुद्वारा तीनों स्तुतियां बोलने के बाद शेष साधु वर्धमान ३ स्तुतियां बोलते हैं। यह पाक्षिक प्रतिक्रमण की विधि हई। प्रतिक्रमण में प्रक्षेपों की परम्परा आचार्य जिनप्रभसूरिजी कहते हैं-देवसिक प्रतिक्रमण में प्राय. श्चित्त का कायोत्सर्ग करने के बाद क्षुद्रोपद्रव ओहडा वणिय शत Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८] प्रतिक्रमण विधि संग्रह परिमित श्वासोच्छ्वास का कायोत्सर्ग करके दो क्षमाश्रमणों से स्वाध्याय के आदेश मांगकर जानुओं के बल बैठकर तीन नमस्कार पढ़ने के बाद विघ्न के अपहारार्थ श्रीपार्श्वनाथ को नमस्कार, शक्रस्तव और “जावंति चेइयाई” यह गाथा पढ़कर क्षमाश्रमणपूर्वक " जावंत hs वाहू" यह गाथा और पार्श्वनाथ का स्तव योगमुद्रा से और प्रणिधान की दो गाथायें “मुक्ताशुक्ति मुद्रा से" पढ़के क्षमाश्रमणपूर्वक सिर नवाँकर "सिरिथंभणयपुरद्वियपास सामिणो इत्यादि दो गाथायें पढ़कर "वंदरण वत्तियाए" इत्यादि पाठ बोले और ४ लोगस्स का कायोत्सर्ग कर चतुर्विंशतिस्तव पढ़े । यह प्रतिक्रमण विधि शेष पूर्व पुरुष परंपरागत है । "प्रायरणा विहु आरणा" इस वचन से कर्तव्य ही है । जैसे स्तुति त्रिक पठनानंतर शक्रस्तव, स्तोत्र, प्रायश्चित्त का कायोत्सर्ग करते हैं। पूर्वकाल में गुरु द्वारा एक स्तुति बोलने पर सर्व साधुओं के वर्धमान स्तुतित्रय पठनपर्यंत प्रतिक्रमण था । इसीलिए स्तुतित्रय पाठ के बाद में छिन्दन (डों) का दोष नहीं माना जाता । श्री जिनप्रभुसूरिजी ग्राड के अर्थ में "छिन्दन" शब्द लिखते हैं और इसके एकार्थक नाम - "छिन्दन, अन्तरणि, आगलि" बताते हैं । छिन्दन पर विवेचन करते हुए आचार्य कहते हैं- छिन्दन दो प्रकार का होता है - आत्मकृत और परकृत | अपने शारीरिक अंग आदि का बीच में चलना "आत्मकृत छिन्दन" है और मार्जारी आदि अन्य प्राणी का बीच में होकर निकलना उसे "परकृत छिंदन" कहते हैं ।" पाक्षिक प्रतिक्रमण में प्रत्येक क्षामरणक करने वालों को पृथकु आलोचक को छोड़ किसी का “छिन्दन दोष नहीं होता" । इसी कारण से तो Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१०६ प्रतिक्रमण विधि संग्रह हमारी सामाचारी में प्रत्येक क्षामणा के बाद मुहपत्ती पडिलेही नहीं जाती । यदि कभी मार्जारी छिन्दन कर दे तो। "जासा करडी कब्बरी, अंखिहिं कक्कडि यारि । मंडलि मांहि संचरीय, हय-पडिहय मज्जारि ६।" . .. उपर्युक्त गाथा का चौथा पद 'तीन बार' पढ़कर क्षुद्रोपद्रव अपद्रावणार्थ कायोत्सर्ग करना और शांतिनाथ के नमस्कार की उद्घोषणा करना। कारण विशेष से जुदा प्रतिक्रमण अथवा पालोचना करने वाले साधु प्रतिक्रमण के बाद तुरंत गुरुवंदन करके पालोचना क्षामणक प्रत्याख्यान कर लें। प्रतिक्रमण पूर्वाभिमुख अथवा उत्तराभिमुख होकर करना चाहिये। ___प्रतिक्रामक श्रमणों की मंडली श्रीवच्छाकार होनी चाहिए। श्रीवच्छ मण्डली का आकार निम्नलिखित गाथा में बताया है। . "मायरिया इह पुरओ, दो पच्छा तिन्नि तयण दो तत्तो। - तेहिं पि पुणो इक्को, नवगणमाणा इमा रयणा ॥१॥ . अर्थ--मंडली में "आचार्य सबके आगे, प्राचार्य के पीछे दो . साधु, दो के पीछे तीन, तीन के पोछे फिर दो और दो के पीछे एक" इस प्रकार की प्रतिक्रमण मण्डली साधुओं के समुदाय की होती है। • स्थापना इस प्रकार है Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण विधि संग्रह रात्रिक प्रतिकमण विधि-- ___ देवसि. नातक्रमण रात्रि के पहले प्रहर तक करना सूझता है, रात्रिक प्रतिक्रमण आवश्यक चूणिक अभिप्राय से दिवस के प्रथम प्रहर तक और व्यवहार के अभिप्राय से पुरिमार्ध तक हो सकता है । "जो वट्टमाण मासो, तस्स य मासस्स होई जो तइयो। तन्नामयनक्खत्त, सीसत्थे गोस पडिकमणं ।।१।।"...' अर्थ-जो मास चलता हो उससे तीसरे मास के नाम का नक्षत्र , मस्तक पर आये तब रात्रिक प्रतिक्रमण होता है। जैसे वर्तमान मास श्रावण है तो आश्विन मास उसका तीसरा हुआ, आश्विन का नाम नक्षत्र अश्विनी है, वह मध्याकाश में आये तब समझना कि रात्रिक प्रतिक्रमण का समय हो गया। - रात्रिक प्रतिक्रमण में आचार्यादि ४ को वांदकर भूमि तलपर शिर रखके “सव्वस्सवि राइय" इत्यादि पाठ बोलकर शक्रस्तव पढ़े और खड़ा होकर सामायिक, कायोत्सर्ग सूत्र पढ़ कायोत्सर्ग करे उद्योतकर का चिन्तन कर पार ऊपर उद्योतकर पढ़कर दूसरा कायोत्सर्ग करे, दूसरे में भी उद्योतकर का चिन्तन कर श्रुतस्तव पढ़कर तीसरा कायोत्सर्ग कर यथाक्रम रात्रिक अतिचारों को याद करे, सिद्धस्तव पढ़ के संडाशक प्रमार्जन कर बैठके मुहपत्ति की प्रतिलेखना करे, वन्दनक दे और पूर्ववत् पालोचना सूत्रपठन वन्दनक, क्षामणक, वन्दनक, गाथात्रिक पठन, कायोत्सर्ग सूत्रोच्चारणादि करके पाण्मासिक तप चिन्तन का कायोत्सर्ग करे उसमें विचारे"श्रीवर्धमान जिनके तीर्थ में पाण्मासिक तप वर्तमान है, पर मैं इसे कर नहीं सकता-इसी प्रकार एक एक दिन कम करता हुषा उनतीस दिन कम कर उनतीस दिन कम छः मास भी नहीं कर Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१११ प्रतिक्रमण विधि संग्रह सकता, ऐसे पांच, चार, तीन, दो, एक मास भी नहीं कर सकता, यावत् तेरह दिन कम मास, चोतीस भक्त बत्तीस भक्त आदि दो दो भक्त कम करता हुआ यावत् चतुर्थ भक्त आयंबिल, निर्विकृतिक एकाशनादि से उतरता हुआ पौरुषी, नमस्कार सहित पर्यन्त में से जो तप कर सकता हो वह मन में निश्चित कर कायोत्सर्ग पारे। उद्योतकर पढ़कर मुखवस्त्रिका प्रतिलेखनापूर्वक वंदनक देकर कायोत्सर्ग में चिंतित तपका गुरु-मुख से अथवा स्वयं प्रत्याख्यान करे, बाद में "इच्छामोऽणुसटुिं" कहता हुआ जानुषों के बल बैठकर तोन वर्धमान स्तुतियाँ पढ़कर मंद स्वर से शक्रस्तव पढ़े । खड़ा होकर "अरिहंत चेइयाणं" इत्यादि पाठपूर्वक चार स्तुतियों से चैत्यवन्दन करे। "जावंति चेइयाई" इत्यादि दो गाथायें, स्तव और प्रणिधान गाथाएं म पढ़े" बाद आचार्यादि को वंदन करे, समय होने पर प्रतिलेखनादि करे । इति रात्रिक प्रतिक्रमण विधि । (प्रतिक्रमरण सामाचारी समाप्ता) Page #119 --------------------------------------------------------------------------  Page #120 -------------------------------------------------------------------------- _