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________________ ___ प्रतिक्रमण विधि संग्रह विनयपूर्वक कृतिकर्म करें। वन्दनक सर्व प्रकार से शुद्ध शास्त्रानुसार करें। वन्दन करके फिर अर्धावनत (कुछ झुके हुए) क्रम से दोनों हाथों में रजोहरण और मुहपत्ति लेकर कायोत्सर्ग में चिंतित अतिचारों को गुरु के सामने प्रकट करे और उनको मार्ग के जानने वाले गुरु प्रायश्चित का उपदेश करे और जैसे मालोचना का प्रायश्चित हो वैसे ही अनवस्था को दूर रखते हुए साधु अनुसरण करे। गुरु के सामने दोषों को आलोचना कर और गुरु का दिया हुआ प्रायश्चित्त स्वीकार कर फिर सामायिकपूर्वक प्रतिक्रमण सूत्र पढ़े। प्रतिक्रमण सूत्र पूरा पढ़कर कृतिकर्म (वन्दनक) करे। बाद में गुरु आदि को खमावे। उसके बाद आचार्यादि सर्वको भाव से खमावे। जैसे सूत्र में कहा है-आचार्य, उपाध्याय, शिष्य, सार्मिक, कुल और गण में जिस किसी को मैंने कषाय उत्पन्न किया हो उन सर्व को मै मन वचन काया से खमाता हूं। सर्वश्रमण संघ को सिर पर हाथ जोड़कर अपनी तरफ़ के अपराधों की क्षमा मांगता हूं और जिस किसी ने मेरा भविनयादि किया हो उनको भी मैं क्षमता हूँ। भाव से धर्म में चित्त लगाकर सर्व जीवराशि को अपने अपराधों की क्षमापना मांगता हूं और जो मुझ से क्षमा मांगता है उनको मैं क्षमा करता हैं। इस प्रकार सब क्षमापन करके जो देवसिक में दुरालोचना की हो, दुष्प्रतिक्रमण किया हो उसके निमित्त कायोत्सर्ग करे। प्रथम सामायिक पाठपूर्वक चारित्रशुद्धि के निमित्त प्रियधर्मा, पापभीरु घमण पच्चास श्वासोच्छ्वास परिमित कायोत्सर्ग करे। कायोत्सर्ग को पूरा करके विधिपूर्वक शुद्ध हुआ है चारित्र जिनका ऐसे साधु, ऊपर चतुर्विंशतिस्तव कह कर फिर चैत्यवंदन दंडक पढ़कर कायोत्सर्ग करते हैं। यह कायोत्सर्ग दर्शनशुद्धि निमित्तक
SR No.002245
Book TitlePratikraman Vidhi Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherMandavala Jain Sangh
Publication Year1973
Total Pages120
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, Vidhi, & Paryushan
File Size8 MB
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