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________________ [४१ प्रतिक्रमण विधि संग्रह ' है और पच्चीस श्वासोच्छ्वास परिमित होता है। कायोत्सर्ग पूरा करके विधिपूर्वक ऊपर श्रुतस्तव पाठ बोलते हैं और ध्रुतज्ञान का कायोत्सर्ग करते हैं। कायोत्सर्ग २५ श्वासोच्छ्वास परिमित होता है। श्रु तज्ञान के विशुद्धि निमित्तक २५ श्वासोच्छ्वास का कायोत्सर्ग विधिपूर्वक समाप्त करके जिनके सकल अतिचार शुद्ध हुए हैं ऐसे प्रतिक्रमण करने वाले अन्त में सिद्धों का स्तव पढ़ते हैं, बाद में पूर्वकथनानुसार विधि से गुरु को कृतिकर्म करते हैं। जिस प्रकार लोक में राजाज्ञा का पालन करके सेवक फिर उनके पास आकर हाजिर होते हैं, उसी प्रकार प्रतिक्रमण करने वाले श्रमण कृतिकम करके गुरु के समीप उपस्थित होते हैं और वर्धमान स्तुतियां बोलते हैं। प्रथम गुरु एक स्तुति बोल जाये, उसके बाद शिष्य भी ३ स्तुतियाँ बोलते हैं। स्तुतिमंगल गुरु द्वारा उच्चारित करने के बाद शेष साधु भी स्तुति बोलते हैं। बाद में थोड़े समय तक शिष्य गुरु के चरणों के सामने हाजिर खड़े रहते हैं। इसलिए कि शायद कुछ .: भूल हुई हो तो गुरु याद करायें, एक प्रकार से इस रीति से विनय . का भी पालन होता है। फिर आचरणा से श्रुतदेवता आदि का कायोत्सर्ग होता है उपर्युक्त गाथा के अधंभाग की टीका में प्राचार्य लिखते हैं कि आदि शब्द से क्षेत्र पोर भवनदेवता का ग्रहण करना चाहिये । चातुर्मासिक और वार्षिक प्रतक्रमणों में क्षेत्रदेवता का कायात्सर्ग होता है और पाक्षिक प्रतिक्रमण में भवनदेवी का कायोत्सर्ग करते हैं। - कोई प्राचार्य चातुर्मासिक प्रतिक्रमण में भो भवन देवता का कायोत्सर्ग करने का कहते हैं । दैवसिक प्रति- क्रमण के बाद प्रादोषिक काल ग्रहण आदि सव वातें विशेष सूत्र से
SR No.002245
Book TitlePratikraman Vidhi Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherMandavala Jain Sangh
Publication Year1973
Total Pages120
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, Vidhi, & Paryushan
File Size8 MB
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