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________________ [१७ प्रतिक्रमण विधि संग्रह शब्द का ग्रहण किया है । कायोत्सर्ग " नमो अरिहंताणं" यह पढ़कर पारते हैं और ऊपर चतुर्विंशतिस्तव पढ़ते हैं, फिर धर्मं विनयमूलक है इस कारण से वंदना करने की इच्छा वाला शिष्य संडाशक प्रतिलेखन करके बैठकर मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना करता है । मस्तक पर्यन्त उपरिकाय का प्रमार्जन कर परम विनय के साथ त्रिकरण विशुद्ध कृतिकर्म करे बाद खड़ा होकर यथारात्निक दोषों को गुरु के सामने प्रकट करें। अगर कोई प्रतिचार नहीं है तो शिष्य के "संदिसह " यह कहने पर गुरु को " पडिक्कमह" ऐसा कहना चाहिये । यदि कोई प्रतिचार हो तो उसका प्रायश्चित "पुरिमड्ड" आदि लेते हैं। जैसा गुरु प्रायश्चित दें उसको उसी तरह करना चाहिए । प्रायश्चित न करने से अनवस्थादि दोष होते हैं । वन्दन के अनन्तर आलोचना के बाद सामायिक सूत्र और उसके बाद ज्ञानदर्शनचरित्रों की विशुद्धि के लिये उपविष्ट प्रतिक्रमण सूत्र से प्रशस्त स्थानों में जैसे अपनी आत्मा स्थित हो वैसे करे । पूर्वोक्त विधि से वन्दन, Tarai पूर्वक "प्रतिक्रांत" इसी सूचनात्मक निवेदन करके आचार्य को वंदन कर शेष साधुओं को भी खमाना चाहिये । यहाँ यह सूत्र - गाथा बोले "आयरिय उवज्झाए XXX सव्वस्स समणसंघस्स. " इस सम्बन्ध से वन्दना के बाद क्षमापन करे फिर शेष जीवों को भी खमावे, बाद में चारित्राचार की विशुद्धि के लिए सामायिक सूत्र पढ़कर कायोत्सर्ग दण्डक यावत् " तस्स उत्तरीकरणेणं" यहाँ से लेकर 'वोसिरामि' कहकर कायोत्सर्ग करना, तीनों कायोत्सर्गों में श्वासोच्छवास एक सौ होते हैं, उनमें प्रथम चरित्र का कायोत्सर्ग होता है पच्चास श्वासोच्छवास होते हैं, उनको समाप्त करके नामोत्कीर्तना कर "सथलोए अरिहंत चेइयाणं वंदण वत्तिया ए० इत्यादि पढ़कर
SR No.002245
Book TitlePratikraman Vidhi Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherMandavala Jain Sangh
Publication Year1973
Total Pages120
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, Vidhi, & Paryushan
File Size8 MB
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