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प्रतिक्रमण विधि संग्रह प्रकार का प्रत्याख्यान करने वाले ह', वे सब एक साथ उठे। पच्चक्खाण करके पीछे धीमे शब्द से तीन स्तुतियाँ बोलें, जिससे छिपकली आदि शिकारी प्राणी न उठे और बाद में वंदनपूर्वक काल निवेदन करे, यदि वहां जिन प्रतिमाएँ हों तो उनका वंदन करे। स्तुति की समाप्ति के बाद ही मुहपत्ति आदि की प्रतिलेखना करें "संदिसह मुहपतियं पडिलेहेमि" इस प्रकार आदेश ले । प्रतिलेखना के अंत में “बहुवेला" के भी आंदेश ले । इस प्रकार काल की तुलना करके प्रतिक्रमण किया जाय जैसे तीसरी स्तुति पढ़ने के अनंतर ही प्रतिलेखना का समय हो जाय। उपर्युक्त रात्रि प्रतिक्रमण की विधि कही है।
पाक्षिक विधि इस प्रकार है-दैवसिक प्रतिक्रमण करने के बाद गुरु के बैठने के बाद शिष्य कहते हैं-“हे क्षमाश्रमण ! पाक्षिक क्षामणक करना चाहते हैं" यह कह करके धामणक का पाठ बोले, "अब्भुट्ठियोमि" पाठ से कम से कम ३ को और अधिक से अधिक सबको क्षामणक करे बाद में गुरु उठकर यथारानिकतया खमाते हैं। दूसरे भी यथा रात्निकतासे खमाते हैं और सब कहते हैं "इमं
देवसियं पडिक्कतं" यह देवसिक प्रतिक्रमण किया। पाक्षिक प्रतिक्रमण · कराइये, तब पाक्षिक प्रतिक्रमण सूत्र कहते हैं-पाक्षिक प्रतिक्रमण कहकर मूल गुण उत्तर गुणों में जो खंडन विराधन किया हो उसके प्रायश्चित के निमित्त ३०० श्वासोच्छ वास का कायोत्सर्ग किया जाता है। कायोत्सर्ग पार कर “लोगस्स" कहते हैं। फिर बैठकर मुख वस्त्रिका को प्रतिलेखना करके वंदना करते हैं, बाद पाक्षिक विनयातिचारों को खवाते हैं। दूसरे में शिष्य काल गुण का संस्तवन करते हैं जैसे "पियं च जंभे हट्टाणं"x गुरुविभणंति साहूहिं समं ।