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________________ २०] प्रतिकमण विधि संग्रह वेला य । एवं च कालं तुले तूणं पडिक्कमन्ति, जथा ततिया युती भाणिता पडिलेहण वेला य होति । XXएवं ता देवसिये भणितं।" . भावार्थ-प्रथम “करेमि भंते" इत्यादि सामायिक सूत्र पढ़कर चरित्र विशुद्धि निमित्तक का उस्सग्ग करें। दूसरा चतुर्विंशतिस्तव पढ़कर दर्शनविशुद्धिकारक कायोत्सर्ग करे, तीसरा श्रुतज्ञान विशुद्धि निमित्तक कायोत्सर्ग करे। उसमें रात्रि के अतिचार चिंतवे तथा । स्तुतियों की समाप्ति से लेकर यावत् यह तोसरा कायोत्सर्ग होता. है। इनमें श्वासोच्छ वासों का क्या प्रमाण है ? प्रथम कायोत्सर्ग में . २५, दूसरे में भी २५ और तीसरे में प्रमाण नहीं है । इसमें प्राचार्य अपने अतिचारों का चिन्तन करके कायोत्सर्ग पारते हैं, तब पूर्व स्थित सर्व साधु भी कायोत्सर्ग पारते हैं। फिर वंदन करते हैं फिर आलोचना और प्रतिक्रमण सूत्र पाठ फिर वंदना, क्षामणक, कायोत्सर्ग और बाद में प्रत्याख्यान गुण धारण निमित्तक कायोत्सर्ग में चिंतन करते हैं । गुरु ने किस कार्य में मुझको जोड़ा है इसका विचार करके सार्थक तप का चिंतन करना चाहिये ताकि आचार्य निर्दिष्ट कार्य की हानि न हो। " क्या छ मासिक उपवास करू ? यह नहीं होगा । एक दिन कम छ मास करू" यह भी नहीं होगा पञ्च मास, चार मास तीन मास, २-१ अर्धमास, चतुर्थ भक्त, आयंबिल, इसी प्रकार एक स्थान, एकाशन, पुरिमड्ढ, निर्विकृतिक, पौरुषी, नमस्कार सहित तक तप का चिंतन करें, जो तप करना हो वहाँ तक चिंतन करके कायोत्सर्ग पारे । आज जो तप किया है-उससे कल योगवृद्धि करनी चाहिये। जिससे वीर्याचार्य की विराधना न हो और आत्मा भी निर्धारित हो, फिर कायोत्सर्ग को पार कर “लोगस्स उज्जोयगरे" बोलकर वदना पूर्वक गुरु के पास प्रत्याख्यान करे। जितने भी एक
SR No.002245
Book TitlePratikraman Vidhi Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherMandavala Jain Sangh
Publication Year1973
Total Pages120
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, Vidhi, & Paryushan
File Size8 MB
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