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दूसरा परिच्छेद
श्रमण-प्रतिक्रमण-विधि-- .. (पाक्षिकसूत्रचूर्ण्यनुसारी)
यहाँ 'सात्रु' सायंकालीन सर्व कर्त्तव्य करके सूर्यास्तमन वेला में सामायिका दिसूत्र पढ़कर दिवस सम्बन्धी अतिचारों के चिन्तन के लिए कायोत्सर्ग करते हैं। उसमें रात्रिक मुहपत्ति प्रतिलेखना से लगाकर अधिकृत चेष्टा कायोत्सर्ग पर्यन्त दिवस के अतिचारों का वि-तन करते हैं। उसके बाद नमस्कार से कायोत्सर्ग पाकर चतुर् . विशतिस्तव पढ़ते हैं. फिर संडाशक प्रतिलेखना करके उकड़ बैठकर मस्तकपर्यन्त ऊपर के शरीर का प्रमार्जन करते हैं और परम विनय पूर्वक त्रिकरण शुद्ध कृतिकर्म करते हैं। इस प्रकार बन्दना कर खड़े होकर दोनों हाथों में रजोहरण पकड़कर शरीर को कुछ नवा. कर पूर्व चिंतित दोषों को यथारात्निक-क्रम से साधु की भाषा में जिस प्रकार गुरु अच्छी तरह सुने, उस प्रकार प्रवर्धमान संवेग भाव वाले, कपट अहंकार से विमुक्त होकर विशुद्धि के निमित्त अपने अतिचारों की आलोचना करे। अगर अतिचार दोषायत्ति नहीं है तो शिष्य को “संदिसह०" यह कहना चाहिये इस पर गुरु "पडिक्कमह" इस प्रकार कहेंगे । यदि अतिचार दोष है तो उनका परिमार्धादि प्रायश्चित्त देते हैं, तब गुरुदत्त प्रायश्चित्त को स्वीकार कर साधु