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________________ २६] प्रतिक्रमण विधि संग्रह विधिपूर्वक बैठकर गुरु की तरफ ध्यान देकर यथार्थ उपयोग पूर्वक अनवस्था प्रसंग में डरते हुए प्रतिपद हृदय में संवेग भाव को प्राप्त करते हुए दंश-मशकादि के परीषहों को न गिनते हुए पद-पद के क्रम सामायिक आदि से लेकर प्रतिक्रमण सूत्र को पढ़े वा सुने "तस्स धम्मस" यह पद पूरा होने के बाद खड़े होकर " अब्बुट्ठियोमि प्राराहणाए" इत्यादि से लेकर यावत् "वन्दामि जिने चउव्वीसं" यहाँ तक पढ़कर गुरु 'विधिपूर्वक बैठ जावें तब साधु वन्दन करते हैं"इच्छामि खमासमरणो प्रभुट्ठियोमि प्रभिन्तर पक्खियं खामेॐ ।" गुरु कहते हैं- "हमवि खामेमि तुब्भे" तब साधु कहते हैं- "पन्नर-: सङ्खु दिवसाणं, पन्नरसह, गं राईणं जिकिंचि अपत्तियं परपत्तियं". इत्यादि, इस प्रकार से जघन्य से तीन अथवा पाँच चातुर्मासिक में और सांवत्सरिक में सात साधुओं को खमायें उत्कृष्टतया तीनों स्थानों में सर्व साधुओं को खमाया जाना है । यह 'संबुद्धाक्षामण' रात्निकों कोखमाने के लिये हैं । इसमें छोटा साधु बड़े साधु को खमाता है यह इसका तात्पर्य है बाद में कृतिक्रमं करके खड़' होकर प्रत्येक क्षामणा करते हैं । इसकी यह विधि है - गुरु, अन्य वा जो मण्डली में बड़ा हो प्रथम उठकर खड़े खड़े ही अपने से छोटे को कहते हैं 'अमुक नाम श्रमण "भितर पक्खियं खामेमो पनरसह णं दिवसाणं पनरसह राईणं इत्यादि । कनिष्ठ भी भूमितल में जानु और मस्तक लगाकर कृताञ्जलि होकर कहता है “भगवं श्रहमवि खामेमि तुब्भे पन्नरसह, गं" इत्यादि । यहाँ शिष्य पूछता है- गुरु उठकर क्यों खमाते हैं ? गुरु कहते हैं सर्वसाधुओं को यह जताने के लिये कि "ये महात्मा अहंकार को छोड़कर द्रव्य से उठकर खमाते हैं और भाव से भी उठकर
SR No.002245
Book TitlePratikraman Vidhi Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherMandavala Jain Sangh
Publication Year1973
Total Pages120
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, Vidhi, & Paryushan
File Size8 MB
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