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प्रतिक्रमण विधि संग्रह खमते हैं।" इसके अतिरिक्त गुरु से जो जाति आदि से श्रेष्ठतर होंगे वे ऐसा विचार न करेंगे कि यह नीचे है और हम उत्तम हैं, इसलिये गुरु भी शिर नवां कर खमाते हैं। ऐसे ही गुरु से उतरते नम्बर के साधु यथारालिकों को खमाते हैं। यावत् अन्तिम दो साधुओं को छोड़कर अन्तिम दो साधुओं में से भी उपान्त्य साधु अन्तिम साधु को खमाता है। ..
तब कृतिकर्म करके सब इस प्रकार कहें-"देवसियं आलोइयं पडिवकन्ता पक्खियं पडिक्कमामो" तब गुरु कहे “सम्म पडिक्कमहः ।
उक्त कथन पाक्षिकचूणि का है। इस विषय में 'आवश्यक' का अभिप्राय यह है-“गुरु उठेऊण जांहा रायणियाए उठ्ठिप्रो चेव खामेइ, इअरेवि जहारायणियाए" सव्वेवि अवणय उत्तमंगा भति "देवसियं पडिकल पक्खिन खामेमो पन्नरसह णं दिवसाणं" इत्यादि। एवं सेसाविजहा रायणियाए खामेन्ति । पच्छा वन्दित्ता भणंति."देवसियं पडिक्कन्तं पक्खियं पडिक्कमावेह"ति तमो गुरु गुरुसंदिट्ठो वा "पक्खियं पडिक्कमणणं सुत्तं कड्डई" सेसगा जहा सत्ति काउ सग्गाइसंठिया धम्मज्झाणो वगया सुणंति । तच्चेदं सूत्रं "तिथ्थंकरैयतिथ्थे' (पाक्षिक सूत्रवृत्तितः २-३) ___ इसका भाव यह है कि गुरु उठकर यथा रात्निक के क्रम से खड़े २ ही खमाते हैं दूसरे भो ज्येष्ठानुक्रम से सर्व शिर नवाँकर कहते हैं "देवसिक प्रतिक्रमण कर लिया, अब पाक्षिक प्रतिक्रमण करवाइये ।" बाद में गुरु अथवा गुरु संदिष्ट श्रमण पाक्षिक सूत्र पढता है दूसरे शक्त्यनुसार कायोत्सर्गादि मुद्रा से संस्थित हो धर्म ध्यान में लीन होकर सुनते हैं। वह पाक्षिक सूत्र "तीर्थकरे इत्यादि है।
(पाक्षिकसूत्र वृत्ति से २-३)