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________________ १०० ] प्रतिक्रमण विधि, संग्रह इस प्रकार सम्यक्त्व को शुद्ध करके "पुक्खरवरदी वढ्ढे" इत्यादि श्रुतस्तव पढ़े और श्रुतज्ञान की शुद्धि के निमित्त फिर २५ श्वासो - च्छ्वास परिमित कायोत्सर्ग करे, कायोत्सर्ग को विधिपूर्वक पारकर जिनको सकल कुशल क्रियाओं का फल प्राप्त हुआ है ऐसे सिद्धों का स्तव पढ़े ।।१६ - २० ॥ श्रुतज्ञान की समृद्धि के हेतु श्रुतदेवी का कायोत्सर्ग करे, कायोत्सर्ग में एक नमस्कार का चिन्तन कर श्रुतदेवी की स्तुति कहे प्रथवा सुने ॥२१॥ इसी प्रकार क्षेत्र देवी का कायोत्सर्ग करे और उसकी स्तुति बोले अथवा सुने, ऊपर पच मंगल पढ़कर सण्डास प्रतिलेखनापूर्वक बैठ जाय ||२२|| पूर्वोक्त विधि से ही मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना कर गुरु को वन्दनक देकर "इच्छामो प्ररसट्ठि" ऐसा कह कर दोनों जानुओं के बल बैठे ||२३|| गुरु के एक स्तुति पढ़ने पर दूसरे सभी वर्धमान' अक्षर और स्वर से तीन स्तुतियाँ बोलें, फिर शक्रस्तव पढ़कर प्रायश्चित्त का कायोत्सर्ग करे ॥२४॥ यह दैवसिक प्रतिक्रमण की विधि कही। इसी प्रकार रात्रिक प्रतिक्रमण की विधि भी समझ लेना चाहिए। उसमें जो विशेषता है वह यह - रात्रिप्रतिक्रमण में प्रथम "मिच्छामि दुक्कडं" कहकर शक्रस्तव पढ़े ||२५|| खड़ा होकर विधि से कायोत्सर्ग करे । कायोत्सर्ग में "लोगस्स . उज्जोनगरे” का चिन्तन करे। दूसरा दर्शनशुद्धि के लिये कायोत्सर्ग करे, उसमें भी 'उद्योतकर' का चिन्तन करे ॥ २६ ॥
SR No.002245
Book TitlePratikraman Vidhi Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherMandavala Jain Sangh
Publication Year1973
Total Pages120
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, Vidhi, & Paryushan
File Size8 MB
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