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________________ ५६] प्रतिक्रमण विधि संग्रह सकल कुशल क्रिया का फल जिन्हें प्राप्त हुआ है ऐसे सिद्धों का स्तव पढ़े ॥४५-४६-४६।। नमस्कारपूर्वक कायोत्सर्ग पार कर ऊपर चतुर्विंशतिस्तव पढ़े, कृतिकर्म करे, अन्त में दुरालोचित-दुष्प्रतिक्रान्त का कायोत्सर्ग करे ॥४८॥ यह चारित्राचार का कायोत्सर्ग है। दर्शन शुद्धयर्थ तीसरा कायोत्सर्ग होता हैं । श्रुतज्ञान के निमित्त चौथा कायोत्सर्ग होता है फिर सिद्धों की स्तुति बोलकर कृतिकर्म करे ।।४६॥ __ जिन धर्म मोक्षफल और शाश्वत सुखदायक जिन भगवन्तों ने . कहा है, इसमें मनुष्य गति के और देव गति के सुख आनुषगिक होते हैं, जैसे कृषि के साथ पलाल (घास) ।।५०॥ वृक्ष के मूल से स्कंद की उत्पत्ति होती है, .बाद स्कंद से शाखाएं । उत्पन्न होती हैं। शाखा प्रशाखाओं से पत्र उत्पन्न होते हैं और पत्तों के बाद पुष्प फल तथा रस की उत्पत्ति होतो है ॥५१।। अथ श्रुतज्ञान की वृद्धि के हेतु श्रुतदेवो का कायोत्सर्ग करते हैं, कायोत्सर्ग में १ नमस्कार का चिन्तन करते हैं, बाद श्रुतदेवी की स्तुति बोली अथवा सुनी जाती है ॥५२॥ . इसी प्रकार क्षेत्रदेवी का भी कायोत्सर्ग करते हैं और उसकी स्तुति बोलते अथवा सुनते हैं । ऊपर पंच मंगल नमस्कार पढ़कर सण्डासक प्रमार्जन करके बैठते हैं ।।५३।। पूर्वोक्त विधि से मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना करके गुरु को वन्दन कर “इच्छामो अणुसठिं" यह बोलकर जानुओं के बल बैठे ॥५४॥ राजा के नौकर राजाज्ञा का प्रतिपालन करके आकर राजा को राजाज्ञा के प्रतिपालन की सूचना करते हैं उसी प्रकार साधु कृतिकर्म करके कुछ मिनटों तक बैठते हैं, वर्धमान स्तुति बोली जाती
SR No.002245
Book TitlePratikraman Vidhi Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherMandavala Jain Sangh
Publication Year1973
Total Pages120
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, Vidhi, & Paryushan
File Size8 MB
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