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प्रतिक्रमण विधि संग्रह में श्री महावीरकृत पाण्मासिक तप की चिन्तना करे। कायोत्सर्ग पार कर मुखवस्त्रिका प्रतिलेखनापूर्वक वन्दनक दे और कायोत्सर्ग में चिन्तित तप का प्रत्याख्यान करे। उसके बाद " इच्छामो अणुसटुिं" कह कर बैठकर स्तुतित्रय बोले और चैत्यवंदन करे । दैवसिक और राशिक दोनों प्रतिक्रमणों के आदि और अन्त में मंगलार्थ चैत्य-वंदना के करने पर भी प्रभात में और सायकाल में जो विस्तार से देववंदन किया जाता है वह विशेष मंगल के लिये संभावित . है। इस प्रकार “रात्रिक प्रतिक्रमण करके साधु तथा पौषांधक श्रावक दो क्षमाश्रमण देकर “भगवन् बहुवेल संदिसावेमि, बहुवेलं करेमि०" यह पढ़े फिर चार क्षमाश्रमणों से गुरु आदि को वन्दन करे। श्रावक "अढ्ढाइज्जेसु." यह सूत्र भी पढ़े, बाद में प्रतिलेखना करे । यह रात्रिक प्रतिक्रमण की विधि कही।
(प्रतिक्रमण गर्भ हेतु पत्र १०-१२)
अथ पासिकम्-अब पाक्षिक प्रतिक्रमण की विधि कहते हैं--
"तत्र च पूर्ववद्द वसिक प्रतिक्रमण प्रतिक्रमणसूत्रान्तं विधत्तेx इच्छामि खमा० मत्थएण वंदामि । देवसिग्रं आलोइयपडिक्कन्ता इच्छाकारेण संदिसह भगवन् पाखी मुहपत्ती पडिलेहुं इत्युक्त्वा तां प्रतिलिख्य वंदनं संबुद्धान् श्रीगुर्वादीन क्षमयितु "अब्भुट्ठिओमि संबुद्धा खामणेण अभितर पक्खियं खामेउइति" भणि त्वा श्रीगुर्वादीन क्षमयति, श्रीन पंचवा यावद्विशेषान, तत उत्थाय इच्छाकारेण संदिसह भगवन पक्खिनं आलोएमि, इच्छं, आलोएमि पक्खिअं जो मे पक्खिो इत्यादि सूशं भणित्वा संक्षेपेण विस्तरेण वा पाक्षिकानतीचारानालोचयति "सव्वस्सवि पक्खिअ" इत्यादि भणित्वा