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प्रतिक्रमण विधि संग्रह
सामाचारी कहता हूँ, जैसी मुझे स्मरण में है ॥१॥ - पंच प्रकार के प्राचारों की शुद्धि के निमित्त साधु अथवा श्रावक भी गुरु का योग होने पर उनके साथ प्रतिक्रमण करता है, गुरु के अभाव में अकेला भी गृहस्थ प्रतिक्रमण करता है ।।२॥ . चैत्यों का वन्दन करके चार क्षमाश्रमण देकर, मस्तक जमीन पर लगा के सर्व अतिचारों का मिथ्या दुष्कृत देता है. ॥३॥
सामायिक पाठपूर्वक "इच्छामि (ट्ठामि)" इत्यादि पाठ पढ़कर । दोनों भुजायें नीचे लम्बी कर कूपरों द्वारा पहरने का वस्त्र दबाकर खड़ा २ कायोत्सर्ग करे ॥४॥ _ घोटक आदि दोषों से रहित हो कायोत्सर्ग करे । संयती १ कपित्थ २ घन ३ लता ४ लंबोत्तर ५ खलिन ६ शबरी ७ वधू ८ प्रेक्षा ६ वारुणी १० भंवर ११ अंगुलि १२ शीर्ष १३ सूत १४ हय १५ काय १६ निगड १७ उद्धी १८ ॥५॥
स्तंभादि १६ दोषरहित, भाव और द्रव्य दोनों प्रकार से खड़ा हो कायोत्सर्ग करे। नाभि के नीचे और जानु के ऊपर चार अंगुल पहनने का वस्त्र रखकर कायोत्सर्ग करना ॥६॥
उसमें दिन में लगे हुए अतिचार यथाक्रम हृदय में धारण करके नमस्कारपूर्वक कायोत्सर्ग पारे और ऊपर चतुर्विंशतिस्तव सूत्र कहे ॥७॥
संडासक प्रमार्जन करके बैठकर दोनों बाहुओं को हृदय को न अड़ा कर मुहपत्ती और शरीर की २५ प्रकार से प्रतिलेखना करे ॥८॥
उठ कर खड़ा हुआ सविनय विधिपूर्वक गुरु को कृतिकर्म करे। कृतिकर्म में ३२ दोषों को टाले और २५ अावश्यक से विशुद्ध कृतिकर्म करे ।।६।।