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________________ प्रतिक्रमण विधि संग्रह अह पक्खियं चउद्दसि-दिणंमि पुव्वं च तत्थ देवसियं । सुत्ततं पडिकमिउ तो सम्ममिमं कमं कुरगइ ॥३४॥ मुहपुत्ती वन्दणय संबुद्धाखामणं तहा लोए। वदण पत्त यखामणाणि, वन्दणयमह सुत्त च ॥३५॥ सुत्त अब्भुट्ठाण उस्सग्गो पुत्ति-वन्दणं तहं य। पज्जंतिय-खामण य, तह चउरो' थोभवन्दणया ।।३६।। पुव्वविहिणे व · सव्वं, देवसियं वन्दणाइ तो कुणइ । सिज्जसुरीउस्सग्गो, भेओ । सन्ति थयपढणे अ ॥३७॥ एवं चिअ चंउमासे, वरिसे य जहक्कम विहीने ओ। पक्ख चउमास-वरिसेसु, नवरि नाम मि नाणत ॥३८।। . तह उस्सग्गोज्जोआ, बारस वीसा समंगलग चत्ता। संबुद्धाखामरण. ति-पण-सत्तसाहूण जह संखं ॥३९।। इयजिरणवल्लहगरिगणां, लिहियं जं सुमरियं अप्पमइणावि । उस्सुत्तमणाइन्न, जं मिच्छादुक्कडं तस्स ।।४।। (पडिकमण सामाचारी) (उपर्युक्त मूल ४० गाथाएँ श्री जिनवल्लभ गणि की प्रतिक्रमण सामाचारी की १५वीं शती की लिखी हुई प्रति के ऊपर से ली हैं ये गाथाएँ आचार्य श्री हेमचन्द्र सूरि के योगशास्त्र की टीका में दी हुई गाथाओं से अक्षरशः मिलती हैं। सामाचारी की प्रथम गाथा, कायोत्सर्ग दोष निरूपक गाथायें, वन्दनक दोष निरूपक गाथाएँ और अन्तिम गाथाएँ, ये गाथाएं योगशास्त्र की टीका में नहीं हैं। इन गाथाओं के सिवाय शेष सभी गाथाएँ अक्षरशः एक हैं।) भावार्थ--देवेन्द्रों के समूहों से जिनके चरण वंदित हैं ऐसे भगवान महावीर को सम्यक् प्रकार से नमन करके प्रतिक्रमण
SR No.002245
Book TitlePratikraman Vidhi Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherMandavala Jain Sangh
Publication Year1973
Total Pages120
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, Vidhi, & Paryushan
File Size8 MB
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