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प्रतिक्रमण विधि संग्रह वंदन के विधि पूर्वक करने से ज्ञानादि गुणोंकी और ज्ञातादि गुण सम्पन्नों की प्रतिपत्ति होती हैं और ऐसा होने से ज्ञानादि गुणों की मद्धि होती है ॥५॥ ___ ज्ञानादि गुणों की प्राप्ति के लिये किये जाते प्रयास में होने वाली स्खलनाओं का गर्दा रूप से किये जाते प्रतिक्रमण से उक्त गुणों की शुद्धि होती है ॥६॥ ___ चारित्र आदि में लगने वाले अतिचारों की ब्रणचिकित्सा के रूप से कायोत्सर्ग करने से शुद्धि होती है ।।७।।
गुणधारण रूप प्रत्याख्यान से अतिचारों की शुद्धि होती है और उक्त सर्व उपायों से वीर्याचार की शुद्धि होती है । विद्याएँ विनयाधीन होती है। विनय से पढ़ी हुई विद्या ही इस लोक और परलोक में फल देती हैं, विनयहीन को विद्या फल नहीं देती जैसे जलहोन सस्य फल नहीं देते ॥६॥ . जिनेश्वरों की भक्ति से, पूर्व सचित कर्माश क्षय होता' है मोर . विद्याचार्य को किये हुए नमस्कारसे विद्या और मंत्र सिद्ध
होते हैं ।।१०।। .. चैत्यवन्दन करके चार क्षमाश्रमण देकर भूमि पर शिर रखकर सकलातिचारों का मिथ्या दुष्कृत करे ॥११॥
दर्शन, ज्ञान, प्रत्येक संपूर्ण फल नहीं देते, परन्तु चारित्र के मिलने से ही विशेष फल देते हैं। इसलिये तीनों गुणों में चारित्र में ही विशिष्ट गुण होता है ।।१२।। ___ सामायिकपूर्वक “इच्छामि ठामि क उस" इत्यादि सूत्र पढ़कर भुजाएँ नीचे लम्बित करके कुहुनियों से अधोवस्त्र को पकड़कर कायोत्सर्ग करे ।।१३।।