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प्रतिक्रमण विधि संग्रह क्षायोपशमिकाद्भावा-दौयिकस्य वशं गतः । तत्रापि क्रम एवार्थः, प्रतिकूलगमात्स्मृतः ॥७६।। पडिकमणं पडिकमओ, पडिकमिअव्वं च आणुपुव्वोए। अतीए पुव्वुप्पन्न, अणागए चेव कालंमि ।८।। पडिकमणं देवसिग्रं, राइग्रं च इत्तरिअ माव कहिन च । पक्खिन चाउम्मासिअ, संवच्छर-उत्तमठ्ठप ॥१॥ जह गेहं पइदिअहंपि, सोहिरं पुण वि पक्खसंधीसु । सोहिल्लइ सविसेसं, एवं इहयं पि नायव्वं ॥२॥ प्रद्धाणे, पासाए, दुद्धकाय, विसतोअण, तलाए ।
दो कन्ना उ पइमारिआय ७ वत्थे अ अगए अ, ॥३॥ सामान्य प्रतिक्रमण विधि--
अर्थ-ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्य विषयक आचरणा करना उसका नाम आचार है। वह प्राचार इस प्रकार पांच प्रकार का है ॥१॥
उक्त पंचाचार की विशुद्धि के लिये साधु अथवा श्रावक प्रति क्रमण करता है । गुरु की विद्यमानता में गुरु के साथ और गुरु के हाजिर न होने पर अकेला भी श्रावक प्रतिक्रमण करे ॥२॥
यहां सामायिक से चारित्र को विशुद्धि की जाती है, क्यों कि सामायिक में सावध योगों का त्याग और निरवद्य योगों का सेवन होता है ॥३॥
चतुर्विंशतिस्तव से दर्शनाचार को विशुद्धि की जाती हैं, क्योंकि . चतुर्विंशतिस्तव में जिन वरेन्द्रों का अत्यद्भ त गुण कीर्तन किया जाता है ॥४॥