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________________ ३६] प्रतिक्रमण विधि संग्रह श्री हारिभद्रीय पञ्चवस्तुकोक्त प्रतिक्रमण विधिः "जइ पुण निव्वाघाओ, आवास तो करिति सव्वेवि । सढढाई कहणवाघा-2 याइ, पच्छा गुरु ठति ।४४५।। सेसा उ जहा सत्ति, आपुच्छिताण ठनि सट्ठाणे । सुत्तत्यपरणहेउ, पायरिये ठिमि देवसिग्रं ॥४४६।। एत्थ उ कय सामाइया, पुव्वं गुरुणो अ तय व साणंमि । अइयारं चितंती, तेगणेव भणंतदण्णे ॥४४॥ आयरियो सामइयं कढ्ढइ जाहे तहट्ठिया तेऽवि । ताहे अणु पेहंती, गुरुणा सह पच्छ देवसिय ॥४४६॥ जा देवसिग्रं दुगुणं, चितेइ गुरु. अहिंडिओ चिढें । बहुवावारा इअर एग गुणं ताव चितिति ।।४५०॥ उस्सग्ग समत्तीए, नवकारंण मह ते उ पारिति । चउवीसगं ति दंड, पच्छा कढंत उवउत्ता ।।४५४।। संडंसं पडिलेहिन, उवविसिअ तओ गवर मुहपोत्ति। पडिलेहिउ पमज्जिय, कायं सव्वेवि उवउत्ता ॥४५५।। . किइकम्मं वंदणगं, परेण विणएण तो पति । सव्वप्पगारसुद्ध, जह भणियं वीअरागेहिं ॥४५६।। वंदित्त, तओं पच्छा, अद्धावणया जह क्कमेणं तु । उभयकर-धरि अलिंगा, ते आलोएति उवउत्ता ।।४५८।। तस्स य पायच्छित्तं जं मग्गविउ गुरु उवइसंति । तं तह अणु चरियव्वं, अणवत्थ पसंग भीएणं ॥४६५॥ आलोइ ऊरण दोसे, गुरुणो पडिवन्नपायछित्ताओ। सामाइय पुव्वयं ते, कढिंढति तओ पडिक्कमणं ॥४६६।।
SR No.002245
Book TitlePratikraman Vidhi Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherMandavala Jain Sangh
Publication Year1973
Total Pages120
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, Vidhi, & Paryushan
File Size8 MB
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