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________________ चौथा परिच्छेद आचारविधि-सामाचारोगत प्रतिक्रमणविधि प्रथम रात्रि प्रतिक्रमण विधि-- "इरिया-कुसुमिणुस्सग्गो, जिण-मुनि वंदण तहेव सन्झायो। सव्वस्सवि संक्कथयो, तिन्नि उस्सग्गउ कायव्वा ॥१॥ चरणे दंसण-नाणे, दुसुलोगुज्जोय तइय अइयारा । पुत्ती वंदण आलोग्र सुत्त तह वंद खामणयं ॥२॥ वंदण-तव उस्सग्गो, पुत्ती वंदणय पच्च खाणं तु । अणुसलुि तिन्नि थुई, वंदण-बहुवेल-पडिलेहा ॥३॥" सरलार्थ-'इरियावही.' प्रतिक्रमण करके कुस्वप्नका कायोत्सर्ग करे; फिर जिन तथा मुनिवन्दन कर स्वाध्याय करे। “सव्वसवि." बोलकर शक्रस्तव कहे और क्रमशः तीन कायोत्सर्ग करे । चारित्र शुद्धि के लिये, दशन शुद्धि के लिये और ज्ञान शुद्धि के लिये । प्रथम के दो कायोत्सर्गों में एक एक लोकोद्योतकर का चिन्तन करे और तीसरे में रात्रि अतिचारों का चिन्तन करे । कायोत्सर्ग पार कर मुख. चस्त्रिका की प्रतिलेखना करें, वन्दनक दे, रात्रिक अतिचारों की मालोचना करे । फिर प्रतिक्रमण सूत्र पढे । दो वन्दनक दे । अब्भुट्ठियो०
SR No.002245
Book TitlePratikraman Vidhi Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherMandavala Jain Sangh
Publication Year1973
Total Pages120
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, Vidhi, & Paryushan
File Size8 MB
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