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________________ ६४] प्रतिक्रमण विधि मन अद्वदश" इत्यादि गाथा पढ़े, श्रुतदेवता का कायोत्सर्ग करे। 'अन्नत्थ' इत्यादि पढ़कर कायोत्सर्ग में नमस्कार का चिन्तन कर उसकी स्तुति पढ़े। इसी प्रकार क्षेत्रदेवता का भी स्मरण करे। जिसके क्षेत्र में ठहरे हों उस क्षेत्र देवता का कायोत्सर्ग करे । स्तुति पढ़कर पंच मंगल बोल कर संडाशक प्रमार्जन कर बैठे, मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना करे। दो वंदनक वेकरः "इच्छामो अणुसटिं" ये शब्द बोलकर जानुओं के बल बैठकर अजलिपूर्वक "नमोहंत्सिद्धति" पढ़कर स्तृतित्रय पढ़े। गुरु के एक स्तुति पढ़ने . पर दूसरे स्तुति बोलें। पाक्षिकादि प्रतिक्रमण में तो गुरु का विशेष बहुमान सूचन करने के लिये तीनों स्तुतियां गुरु के पढ़ने के बाद सर्व साधु और श्रावक साथ में पढ़ें। साध्वी और श्राविकाएँ . "नमोऽहत्सिद्धे०" इत्यादि न पढ़े । “नमोस्तुवर्धमानाय०" इत्यादि के स्थान में "संसारदावानल.'' इत्यादि स्तुतित्रय पढ़ती हैं और रात्रिक प्रतिक्रमण में "विशाल लोचनदलं" के स्थान में भी "संसार दावानल०" इत्यादि तीन स्तुतियां पढ़ती हैं। जब गुरु स्तुति पढ़ते हैं तब प्रतिस्तुति के अन्त में "नमो खमा समणाणं" इस प्रकार गुरु को नमस्कार करें, साधु तथा श्रावक स्तुतित्रय पाठ के बाद शक्रम्तव का पाठ बोले । फिर एक जैन उदार स्वर से श्री जिन स्तव कहे और दूसरे सब सावधान मन से कृताञ्जलि होकर सुने । स्तव पढ़ने के अनन्तर "वरकनक." इत्यादि पढ़के चार क्षमाश्रमणों द्वारा श्री गुरु आदि को वन्दन करे। यहां देवगुरुवन्दन “नमोऽहंतु इत्यादि से लेकर चतुर्थ क्षमाश्रमण के अन्त पर्यन्त जानना चाहिये। और श्रावक का गुरुवन्दन “अढाईज्जेसु०" इत्यादि पठनावधि जानना। देवसिक प्रायश्चित्त विशुद्धयर्थ कायोत्सर्ग करे । यह
SR No.002245
Book TitlePratikraman Vidhi Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherMandavala Jain Sangh
Publication Year1973
Total Pages120
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, Vidhi, & Paryushan
File Size8 MB
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