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________________ प्रतिक्रमण विधि संग्रह · जिण मुणि वंदण अइयारुस्सग्गो पुत्ति वंदण लोए । सुस वंदण-खामण-वंदण तिन्नेव उस्सग्गा ॥१॥ घरणे दंसण नाणे, उज्जोया दुन्नि एक्क एकको य । सुय देवया दुसम्गा, पोत्ती वंदण तिथुई थोत्तं ॥२॥ (इति देवसिक विधि) मुहपोत्ती वंदणय, संबुद्धखामणं तहाऽऽलोए। .. वंदण-पत्तय खामणाणि वंदणा य सुत्तं च ॥३॥ . सुत्तं अब्भुटाणं, उस्सग्गो पोत्ती वंदणं तहय। . पज्जते खावणयं, पियं च इच्चाइ तह जाण ॥४॥ . (इति पाक्षिक विधि) भावार्थ- साधु-श्रावक रात्रि-प्रतिक्रमण की विधि इस प्रकार है'इरिया वही' प्रतिक्रमण करके कुस्वप्न का कायोत्सर्ग करे। फिर जिन तथा मुनि वदन कर स्वाध्याय करे। स्वध्याय कर "सव्वस्सवि० इत्यादि बोलकर शक्रस्तव पढ़कर तीन कायोत्सर्ग करे। पहला चारित्र शुद्धि के लिये, दूसरा दर्शनशुद्धि के लिये; इन दो कायोत्सर्गों में लोकोद्योत एक एकका चिन्तन करे। तीसरे में रात्रिक अतिचारों का चिन्तन करे। फिर मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना कर वन्दना पूर्वक रात्रिक अतिचारों की आलोचना करे और प्रतिक्रमण सूत्र पढ़े, वन्दना करे, क्षामणक करे, फिर वन्दना कर तप चिन्तन का कायोत्सर्ग करे ।कायोत्सर्ग पार कर मुखवस्त्रिका प्रतिलेखना पूर्वक वन्दनक दे और प्रत्याख्यान करे। "इच्छामि अणुसटुिं" बोलने के बाद वर्धमान तीन स्तुतियां बोले । देववन्दन करे "बहुवेलं संदिसाहो". कह कर प्रतिलेखना करे। यह रात्रिक प्रतिक्रमण की विधि है । इस प्रकार रात्रिक प्रतिक्रमण करना चाहिये।
SR No.002245
Book TitlePratikraman Vidhi Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherMandavala Jain Sangh
Publication Year1973
Total Pages120
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, Vidhi, & Paryushan
File Size8 MB
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