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________________ [ ५ प्रतिक्रमण विधि संग्रह अर्थात- साधु और श्रावक का रात्रि, दिन के अन्त में अवश्य कर्तव्य प्रतिपादक होने से इसका नाम " आवश्यक" पड़ा है, इसी प्रकार आवश्यक के प्रत्येक अध्ययन के नाम भी सार्थक हैं, परन्तु इन सब अध्ययनों का विस्तृत विवरण करके हम इस प्रबन्ध को लम्बा नहीं करना चाहते । हमारा मुख्य उद्देश्य प्रतिक्रमण विधियों का निरूपण करने का है, इसलिए प्रतिक्रमण और इसकी कर्तव्य विधियों का ही प्रतिपादन करेंगे । प्रतिक्रमण का शब्दार्थ- "स्वस्थानाद् यत् परस्थानं, प्रमादस्य वशाद् गतः । तत्रैव क्रमणं भूयः, प्रतिक्रमणमुच्यते || १ || " अर्थात् 'अपने स्थान से अर्थात् कर्तव्य मार्ग से प्रमाद के वश होकर परस्थान अर्थात् कर्तव्य मार्ग में चला गया हो तो वहां से फिर कर्तव्य मार्ग में आना इसका नाम “प्रतिक्रमण ' है । प्रतिक्रमण आज किया जाता है और जिनकाल तथा स्थविर काल में भी किया जाता था । पूर्व कालीन और वर्तमान कालीन हमारे प्रतिक्रमण में कितना अन्तर पड़ा होगा ? इसका उत्तर देना अशक्य नहीं तो दुःशक्य तो अवश्य ही है । कारण कि कालातीत और क्षेत्रातीत परिस्थितियों का विचार वर्तमान परिस्थिति की दृष्टि से किया जाय तो वह विचार मौलिक परिस्थिति का स्पर्श नहीं कर सकता । जिनकाल अर्थात् भगवान महावीर के समय को आज ढाई हजार वर्ष व्यतीत हो चुके हैं । स्थविर काल को भी पन्द्रह सौ वर्षों से भी अधिक वर्ष हो गये हैं । इतने लम्बे काल की परिस्थिति का वर्तमानकालीन परिस्थिति से कई बातों में विषम होना स्वा
SR No.002245
Book TitlePratikraman Vidhi Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherMandavala Jain Sangh
Publication Year1973
Total Pages120
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, Vidhi, & Paryushan
File Size8 MB
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