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[३१ प्रतिक्रमण विधि संग्रह ___"पज्जो सवणकप्पस्स समप्पावणियं करेमि काउस्सग्गं, जखंडियं, जविराहियं, जं नपडिपूरि अं (सव्वोदंडो कड्ढियव्वो) जाव वोसिरामित्ति। लोगस्सुजोयगरं चिंतेऊण उच्चारित्ता पुणो लोगस्सुजोयगरंकटुता सव्वेसाहबोनिसीयंति । जेणकड्ढिओ सो तहिं कालस्सडिक्कमइ। ताहे वरिसा कालट्ठवणा ठविज्जइ, तं जहा"उणोयरिया कायव्वा, गिइ-णवगपरिच्चाओ काययो जम्हा निधोकालो बहुपा गा मेइणी, विज्जुगज्जियाईहिं मय गो दिप्पइ, पीठफलगाइ संथारगाणं, उच्चार-पासवण-खेलमत्तगाण य परिभोगो कायव्वो, निच्चं लोओ कायव्वो सेहो न दिक्खियव्वो, अभिनवो उवही न गेहयो , दुगुणं वरिसो वगरणं धरेयव्वं, पुव्वगहियाणं छार उगलाईणं परिच्चाओं कायव्वो, इयरेसि धारणं कायव्वं, पुवावरेणं सकोस जोयणाओ परओ न गंतव्वं” इत्यादि ।
जिसने सूत्र पढ़ा है वह काल प्रतिक्रमण करे फिर वर्षा काल की स्थापना करे जैसे ऊनोदरी तप करना, नव विकृतियों का त्याग करना, क्योंकि काल स्निग्ध हैं पृथ्वी जीवाकुल होती है, विद्युत - गर्जनादि से काम दीप्त होता है पोठ, फलक, संस्तारक का उपभोग करना, उच्चार, प्रश्रवण, खेलमात्रकों का जयणा से परिभोग करना, - नित्य लोव करना शिष्य को दीक्षा नहीं देना नवीन उपधि को न लेना, द्विगुण वर्षा के लिये उपकरण ग्रहण करना, पूर्व गृहीत रक्षा उगलके का त्याग करना अोर नये ग्रहण करना, पूर्व-पश्चिम होकर सवा योजन के बाहर न जाना इत्यादि वर्षाकाल की स्थापना करना पक्ष, चतुर्मास और सांवत्सरिक पर्यो में यथाक्रम चतुर्थ, षष्ठ, अष्टम तप करना, चैत्य वन्दन परिपाटी करना श्राबकों को धर्मोपदेश करना। .. .