________________
[७५
१
.
प्रतिक्रमण विधि संग्रह कृत्वाऽऽचार्यादिक्षामणार्थं प्रतिबद्धगाथात्रयसामायिककायोत्सर्ग दण्डक पठनपूर्व चारित्राचारविशुद्धये कायोत्सर्गं करोति । २ लो० प्र० लो०, सव्वलोए अरिहंतचेइयाणं ४ कायो• १ लो० । पुक्खर- वरदी० सुअस्स भगवरो०, १ लो० । सिद्धारणं बुद्धाणं०, सिद्धानां भावनासारं स्तुतित्रयमुच्चारयति । सांप्रतं शेषमपि आचार्यपरम्परागतं भणित्वा श्रु तदेवाः श्रुतसमृद्धयर्थं, अन्यासां च क्षेत्रादिदेवता समाधानापादनार्थ कायोत्सर्गान् करोति, स्तुतीस्तु शृणोति, ददाति वा। पुनःसंदंशकादिप्रमार्जनपुरस्सरमुपविश्य मुखवस्त्रिका प्रत्युपेक्ष्य समास्तिवदनं करोति । ततो:गुरुस्तुतिग्रहणे कृते स्तुतित्रयं वर्धमानं पठति । प्रणिपातदण्डादि च सर्व सामाचार्याऽऽगतं करोतीति--
उक्तो देवसिक प्रतिक्रमणविधिः । अर्थ--प्रथम साधु आदि के समीप मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना कर विधि से सामायिक और चैत्यवन्दन करे। इसके बाद जिस स्थान
पर प्रतिक्रमण करना हो उस भूमिभाग की प्रतिलेखना, प्रमार्जना ' करके प्रतिलेखित पासन स्थापन करे, फिर स्थापनाचार्य स्थापन,
सण्डाशक-प्रतिलेखनापूर्वक बैठकर सामान्य अतिचार का मिथ्यादुष्कृत करके विधि से प्रणिपातदण्डक-शक्रस्तव पढ़कर दिवस के तिचारों को याद करने के लिए कायोत्सर्ग दण्डक-उच्चारणपूर्वक कायोत्सर्ग करे, उसमें ज्ञानाचारादि के दिवस सम्बन्धी अतिचारों को याद कर नमो अरिहंताणं बोलकर कायोत्सर्ग पारे और प्रकट चतुर्विंशतिस्तव पढ़कर मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना कर द्वादशावर्तवन्दनपूर्वक उसी क्रम से गुरु के आगे चितित अतिचारों की आलोचना करे, फिर सूत्र पढ़े, उन्हीं कायोत्सर्ग में संस्मृत अतिचारों में जो कोई रह गया हो उन प्रत्येक के पश्चात्तापार्थ उठकर वन्दनकरणपूर्वक