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प्रतिक्रमण विधि संग्रह
सुणिताणं कड्ढिज्जति, कहिज्जति यति । (२६४-२६६) पाभाति अ-आवस्सए य अंतिम का उस्सगां कातु पच्चाक्खातव्वं, हिदये ठवेत्ता उस्सारेतु चउवी सत्थय वंदणगाणि विधिए कातु पच्चक्खाणस्स उवट्ठा इज्जति ।" (२७१-२७२)
भावार्थ--पाक्षिक विनयातिचार का क्षामणक होने के बाद शिष्य जो शामणक करता है उनमें गुरु वचन निम्न प्रकार के हैं। दूसरे में गुरु कहते हैं “साहूहिं समं” तीसरे में गुरु प्रतिवचन-“अहंपि वंदामि" चतुर्थ में गुरु कहते हैं "आयरिय संतियं" अहवा “गच्छ संतियं" पंचम में गुरु कहते हैं "आयरिया नित्थारगा" इस प्रकार शेष सभी साधुओं के क्षामणक वंदनक होते हैं। यदि बहुत विकाल हो जाता हो, अथवा दूसरे आवश्यक कार्यों के सम्बन्ध में व्याघात पड़ता हो तो सात, पाँच अगर तीन साधुओं को क्षामणक करें बाद में शेष देवसिक प्रतिक्रमण करते हैं। प्रतिक्रमण के अन्त में गुरु को पंदन करने के बाद वर्धमान तीन स्तुतियाँ आचार्य कहते हैं और - शेष साधु हाथ जोड़े हुए एक-एक स्तुति के अन्त में 'नमो खमा
समणाणं" यह नमस्कार करते हैं. बाद में शेष साधु भी वर्धमान • स्तुतियाँ बोलते हैं। उस रोज सूत्र पौरुषी और अर्थ पौरुषी नहीं
करते हैं। जिनको जितने याद हों उतने स्तुति-स्तोत्र पढ़ते हैं । इसी प्रकार चातुर्मासिक प्रतिक्रमण में भी इतना विशेष है कि चातुर्मासिक प्रतिक्रमण में ५०० श्वासोच्छ वास परिमित कायोत्सर्ग करते हैं
और सांवत्सरिक में एक हजार आठ श्वासोच्छ वास का कायोत्सर्ग किया जाता है। सर्व साधुओं को मूलगुणों और उत्तरगुणों में लगे हुए दोषों की आलोचना करना चाहिये फिर प्रागे प्रतिक्रमण करे। चातुर्मासिक प्रतिक्रमण में उपाश्रय की देवता का एक कायोत्सर्ग