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प्रतिक्रमण विधि संग्रह अतिरिक्त दूसरे गच्छों में प्रतिक्रमण सामाचारी पूर्ववत् चलती थी। श्री जिनवल्लभ गणि तथा उनके सहचर कितनेक विद्वानों ने “ विधि धर्म " नामक सामाचारी प्रचलित की थी तो भी उन्होंने प्रतिक्रमण सामाचारी में कुछ भी भेद नहीं डाला था, यह बात श्री जिनवल्लभ गणिजी की "प्रतिक्रमण सामाचारी" से मालूम होती है।
विक्रम की बारहवीं शती के मध्य भाग में श्री चन्द्रप्रभ सूरि ने साधु को जिनबिम्ब की प्रतिष्ठा न करने का मत स्थापित कर अपना गच्छ अलग से निर्मित किया। वे पूर्णिमा को पाक्षिक और पंचमी की पर्युषणा प्रचलित करके दूसरे गच्छों से अलग हुए तो भी उन्होंने "प्रतिक्रमण सामाचारी" विषयक मतभेद खड़ा नहीं किया। इस तरह इनकी परम्परा में सवा सौ वर्षों के बाद मतभेद उत्पन्न हुआ। यह श्री तिलकाचार्य की “सामाचारी" पर से सिद्ध होता है। विधि धर्म सामाचारी से उत्पन्न 'खरतर गच्छ' और उसकी शाखाओं में भी प्रतिक्रमण सामाचारी के विषय में कुछ भी मतभेद नहीं था । यहः उनके प्राचीन सामाचारी ग्रन्थों से मालूम होता है। ____ अंचल- गच्छ से अवतरित प्रागमिक-गच्छ की “प्रतिक्रमणसामाचारी” में भी आचरण से चले आते "श्रुत-क्षेत्र" देवतादि के कायोत्सर्ग स्तुतियों के निषेध के उपरान्त दूसरा कुछ भी रद्दोबदल नहीं किया था। फिर भी अचल-गच्छ से अवतरित “लौंका" पावचन्द्र और विजामत के गच्छों में प्रतिक्रमण विधियाँ बहुत हो
परिवर्तित हुई ज्ञात होती हैं। .सामायिक ग्रहण में लगभग सभी नये गच्छ सामायिक
उच्चरने के बाद "ईर्यावही' करने के मत में थे, तब