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________________ १०४] प्रतिक्रमण विधि संग्रह आवश्यक क्रिया पूर्व तरफ अथवा उत्तर तरफ मुख करके करते हैं । प्रतिक्रमण की मण्डली श्रीवत्स के आकार की बनाकर बैठते हैं । इस मण्डली में प्राचार्य सबके आगे उनके पीछे दो साधु, उनके बाद ३ साधु, उनके बाद दो और उनके पीछे फिर एक यह क्रम नव सख्यक साधुनों की प्रतिक्रमण मण्डली का है ॥४२-४६।। .. KORBA जिनप्रभसूरीय विधिमार्गप्रपा की प्रतिक्रमण विधि देवसिक प्रतिक्रमण विधिः-- ___ श्रावक गुरु के साथ अथवा अकेला 'जावंतिं चेहयाइ' ये गाथाएँ और प्रणिधान पाठवर्जित चैत्यवन्दन करके चार क्षमाश्रमणों से प्राचार्यादि का वंदन कर जमीन तल पर मस्तक लगाकर “सव्वस्सवि देवसिय" इत्यादि पाठ से सर्वातिचारों का मिथ्या दुष्कृत करे, उठकर "करेमि भंते" पाठ पढ़कर "इच्छामि ठामि काउस्सग्गं" इत्यादि सूत्र पढ़े, दोनों भुजाएँ लम्बीकर कुहनियों से परिधान को धारण कर नाभि के नीचे और जानुओं के ऊपर चार अंगुल चोलपट्टक रखकर 'संयतिकपित्थादि' दोषरहित कायोत्सर्ग कर यथाक्रम दिनकृत अतिचारों को हृदय में यादकर नमस्कार से कायोत्सर्ग पारे, चतुर्विशतिस्तव कहकर संदंशक प्रमार्जन कर बैठके विस्तृत बाहु युग से शरीर को न छूता हुआ मुहपत्ती और शरीर की २५-२५ प्रतिलेखनाएँ करे । श्राविका पृष्ठ, सिर, हृदय, सिवाय १५ अंगों की प्रतिलेखनायें करें। मुखवस्त्रिका प्रतिलेखनानन्तर खड़ा हो बत्तीस दोषरहित, पच्चीस आवश्यक विशुद्ध कृतिकर्म (वंदन) करके अवन
SR No.002245
Book TitlePratikraman Vidhi Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherMandavala Jain Sangh
Publication Year1973
Total Pages120
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, Vidhi, & Paryushan
File Size8 MB
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