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________________ [७ प्रतिक्रमण विधि संग्रह होगा भी तो वह वर्तमान पंचांगी में से प्रकीर्ण ग्रन्थों, चूणियों अथवा टीकाओं को छोड़कर अन्य अंगों, उपांगों में दृष्टिगोचर नहीं होता। आवश्यकचूणि लगभग विक्रम की ६ठी शती के अन्त में निर्मित प्राकृत टीका ग्रंथ है । इसमें साधु प्रतक्रमण को विधि का व्यवस्थित निरूपण है। श्रमण प्रतिक्रमण का निरूपण ब श्रुत आचार्य श्री हरिभद्र सूरिजो के पंचवस्तुक ग्रंथ में भी मिलता है। पर श्रावक प्रतिक्रमण की विधि का प्रतिपादन १०वीं शती के उत्तरार्ध में निर्मित श्राद्ध प्रतिक्रमण सूत्र को आचार्य जयसिंह सूरि कृत चूणि और श्रीचन्द्रकुलीन श्री पार्श्व ऋषि कृत श्राद्ध प्रतिक्रमण सूत्र विवृति में दृष्टिगोचर होता है। इससे प्राचीन किसी भी सूत्र तथा ग्रंथ में श्राद्ध प्रतिक्रमण विधि का निरूपण नहीं मिलता। इसी कारण से अंचल गच्छ के प्रवर्तक आचार्यों ने प्रारंभ में श्रावक प्रतिक्रमण का ही प्रतिषेध किया था, क्योंकि वे सूत्र पंचांगी के सिवाय किसी भी सुविहित परम्परा को प्रामाणिक नहीं मानते थे। इस गच्छ के • पिछले आचार्यों को अपने पूर्वजों की उक्त मान्यता भूल भरी ज्ञात हुई। उन्होंने अपने गच्छ की उन मान्यताओं में संशोधन किया। इस गच्छ की मौलिक और आज की अधिकांश मान्यतामों में ... आकाश-पाताल जितना अन्तर पड़ गया है। धर्मानुष्ठानों के विधानों में साधुओं की मुख्यता-- प्रत्येक धार्मिक अनुष्ठान में साधु की मुख्यता होने से उसका निरूपण भी साधु के उद्देश्य से ही किया जाता था, पर इसका अर्थ यह नहीं होता था कि यह अनुष्ठान केवल साधु का ही कर्तव्य है। अंचल गच्छ के आचार्यों ने प्रथम यह वस्तु लक्ष्य में नहीं ली, पर अंत में उन्होंने अपने विचारों में संशोधन करना उचित समझा।
SR No.002245
Book TitlePratikraman Vidhi Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherMandavala Jain Sangh
Publication Year1973
Total Pages120
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, Vidhi, & Paryushan
File Size8 MB
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