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प्रतिक्रमण विधि संग्रह
- पर गुरु कहे - " दैवसि आलोइयं अर्थात् दैवसिक आलोचना प्रतिक्रमण किया। शिष्य कहे भगवन इच्छापूर्वक आदेश दीजिये। मैं पाक्षिक सम्बन्धी अपराध खमाने के लिए खड़ा हुआ है । प्रत्येक को क्षामणा करूंगा। गुरु के आदेश पर शिष्य ' इच्छ' ऐसा बोले । यहां सर्व प्रथम गुरु कहे " इच्छकारी अमुक तपोधन !" इस प्रकार गुरु संबोधन करने पर सबसे बड़ा शिष्य कहे - " मत्थए वंदामि " यह : कह कर क्षमाश्रमरण दे। तब गुरु कहे - " मैं प्रत्येक खामण से पाक्षिक खमाता हूँ ।" तब बड़ा शिष्य कहे " श्रहमपि खामेमि० ' । मैं भी आपको क्षमाता हूं।" यह कह कर जमीन पर शिर रखकर बोले- "इच्छ खामेमि पक्खियं पन्नरस राईणं दिवसाणं० जं किंचि अपत्तियं" इत्यादि पाठ कहे, तबगुरु भी " पनरसह ०" इत्यादि बोले, परन्तु गुरु “उच्चासने समासने०” ये दो शब्द न कहे। इसी प्रकार क्रमशः उतरते हुए एक दूसरे के बाद परस्पर साधुक्षमणा करे । लघु वाचनाचार्य के साथ प्रतिक्रमण करने वालों में ज्येष्ठ साधु प्रथम स्थापनाके चार्य को क्षमाये फिर सब साधु यथारात्निक को खमाए । गुरु अभाव में सामान्य साधु प्रथम स्थापनाचार्य को खमाते हैं । इसी प्रकार श्रावक भी । श्रावकों के सम्बन्ध में विशेष यह है कि बड़ा श्रावक कहे - " अमुक प्रमुख समस्त श्रावकों को वांदता हूँ२, दो बार बोले, या वृद्ध कहे- "अब्भुट्ठियोमि० " इत्यादि । दूसरे श्रावक कहें"अहमपि खामेमि" में भी खमाता हूं तुमको। दोनों कहें- "पन रस दिवसाणं पनरसङ्घ राईणं भण्यां भाष्यां मिच्छामि दुक्कडं" उसके बाद वंदनक दैकर वोले देवसिक आलोचना प्रतिक्रमण किया, हे भगवन् इच्छा. पूर्वक पाक्षिक प्रतिक्रमण कराइये । गुरु कहे - अच्छी तरह प्रतिक्रमिये, तब शिष्य 'इच्छ' कहकर "करेमि भंते सामाइयं०" इत्यादि पूर्वक