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प्राचीन स्तवन -योति
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MMRDS
प्रकाशक: श्री जैन साहित्य प्रकाशन मण्डल
('दिव्य दर्शन'-हिन्दी विभाग) विक्रम सं० २०२७)
मूल्य
१००० वीर सं० २४६७)
। २) रुपया
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॥ श्री वीतरागाय नमः ॥
प्राचीन स्तवन ज्योति
पुष्प- तीसरा
प्रकाशक श्री मेन साहित्य प्रकार.न के अन्तर्गत,
श्री दिव्य दर्शन प्रकाशन आत्मानंद जैन सभा भवन भी वालों का रास्ता, जयपुर-३
. प्राप्ति स्थान : दिव्य दर्शन कार्यालय | जेठालाल चुनीलाले चतुरक्षसः चिमालाल
घी वाला कालुशीती पोल,, अमदाबाद-११ .
३५५, कलबादेवी रोड
बम्बई-२ दिव्यादर्शन शास्त्रा संग्रह
पंकुबाई ज्ञाना मंदीरेबेबेवालीवासः-शिवगंज ( राजस्थान))
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"नैतिक व आध्यात्मिक साहित्य' पट कर राष्टोन्नति
में सहयोग प्रदान करें!
पंचवर्षीय योजना ३१) रु० में ४०) रु० की पुस्तकें प्राप्त करें
प्रकाशित पुस्तकें :(१) गणघस्वाद १)५० (२) जैन धर्म का संक्षिप्त परिचय २,७५ (३) प्राचीन स्तवन ज्योति २) (४) मदन रेखा ( प्रेस में) (५) आवश्यक सचित्र ( चार रंगों में प्रेस में )
प्रकाशक श्री जैन साहित्य प्रकाशन के अन्तर्गत
श्री दिव्य दर्शन प्रकाशन आत्मानंद जैन सभा भवन घी वालों का रास्ता; जयपुर-३
VvvvvvNAAVAAAAM
मुद्रक :: रेफिल आर्ट प्रेस, ३१, बड़तल्ला स्ट्रीट, कलकता-७
फोन : ३३-७६२३, ३३.९१६९
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प्रस्तावना भक्ति मुक्ति की दूती कैसे
परमात्म भक्ति ही मुक्ति की दूती है। अनादि अनंत काल से जीव कर्म तथा मोहवश अपनी मुक्तावस्था को देख नहीं सका । जो जीव कर्मशृङ्खला से बद्ध है वह मुक्तावस्था का अनुभव कैसे कर सकता ? मुक्ति खुद की ही सुन्दर अवस्था है, सुन्दरी है । लेकिन जीव के समक्ष वह मान कर बैठी है और जीव के सामने देखती तक नहीं। अरे ! वह तो अपनी दूती तक को भेजती नहीं । यदि उनकी दूती भी जीव के पास आजाय तब भी जीव को आश्वासन मिले कि अब थोड़ा मार्ग खुला है। मेरी मुक्ति सुन्दरी ने दूती भेजकर मेरे सम्मुख वह कुछ अनुकूल बनी है। यदि मैं इस दूती को विकसित कर दूं तथा पूर्ण विश्वास दिला दूं, तव इस दूती से संदेश पाकर तथा प्रसन्न होकर मुक्ति सुन्दरी मेरा आलिंगन करेगी। अथवा मुझे अपनी ओर आकर्षित करेगी।
यही बात बड़ी राजकुमारियों के बारे में चरितार्थ होती थी। वे राजकुमारी बहुत विश्वास पात्र दूती रखती जो कि किसी राजकुमार को परीक्षा कर उनकी ओर से संदेशा लाती, तभी वह राजकुमारी राजकुमार को वरण करती। राजकुमार भी उस दूती को प्रसन्न करने के लिये अपनी योग्यता तथा कला का प्रदर्शन करता। ठीक इसी प्रकार मुक्ति राजकुमारी के लिये एकमात्र विश्वास पात्र दूती परमात्म भक्ति है। यदि मैंने
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इस दूती को प्रसन्न कर दिया तभी मेरा शुभ समाचार मुक्ति सुन्दरी के पास मानों पहुँच गया तथा अनादि अंत काल से रूठी हुई मुक्ति कुमारी
आने सम्मुख हो जायगी। यदि इ स दूती रूप परमात्म भक्ति को हम प्रसन्न करें अर्थात् उसको पूर्ण विकसित - र दें और वह अपने में आत्मसात हो जाय तभी मुक्ति कुमारी शीघ्र वरण करेगी।
इसका कारण स्पष्ट है । द्रव्य भक्ति-पूजा, भावभक्ति तया प्रभु के गुणगान में वृद्धि करना ही परमात्म भक्ति को खूब विकसित करना है । द्रव्यभक्ति में अपना मूल्यवान द्रव्य तथा केशर, चंदन, कपूर, वादला, टीका रेशम धूप, दीप, घी इत्यादि का बड़ी प्रसन्नता से अर्पण व्यवहार करें। उपरोक्त वस्तुओं को कुपात्र, सामान्य पात्र में तथा सामान्य विशेष सुपात्र में भी नहीं, परन्तु परमात्म स्वरूप परम पात्र में अर्पित करें। तभी इस द्रव्य का सर्वोत्तम विनियोग हुआ। कहा जाए अतएव मुक्ति सुन्दरी को वरण करने के लिये भक्ति रूपी दूती को प्रसन्न करना आवश्यक है। क्योंकि :
"भक्ति विना नर सोहहि कैसे । लवण विना वहु व्यंजन जैसे ॥"
यह तभी हो सकता है जब हमें परमाततत्व से अन्य वस्तु मूल्यवान न लगे।
यह बात तो सत्य है कि अधम योनियों में भटकते हुए हम भिखारी ने परमात्मा के प्रभाव से ही इस पूर्ण उच्च भव. को पाया है। ऐसे प्रभु को अनुकम्पा पर तो हम सर्वस्व न्योछावर कर दें ताकि उनके ऊपर असाधारण अनुराग हो जाय तथा उनकी सेवा भक्ति में तन्मयता प्राप्त हो जाय । यदि किसी भिक्षुक को करोड़ाधिपति बना दिया जाय तो उस
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व्यक्ति पर भिक्षुक अत्यधिक प्रसन्न हो जायगा तथा बड़े ही प्रेम से मांग देकर उसकी सेवा भक्ति करेगा। उसी प्रकार यदि हम द्रव्य भकि की भावना को पूर्ण विकसित कर दें तभी हमने भक्ति रूपी दूती को .. प्रसन्न कर ही तथा यह दूती मुक्ति को अवश्य आकर्षित करेगी। ऐसी द्रव्य भक्ति से ही धन का मोह कम हो जायगा। धन की अपेक्षा प्रभु को अधिक प्रिय बनाना है। अतः अधिक प्रेम से सुन्दर द्रव्यव्यय कर भक्ति करने का मन में भाव हो जायगा।
जैसे-जैसे धन का अत्यधिक भोग दे करके हम प्रभु भक्ति करते जॉय वैसे ही मन धन से हटकर प्रभु भक्ति में लीन होता जायगा । अन्त में एक समय ऐसा आयगा कि मन में परमात्मा आत्मसार हो जायगा । आत्मा रूपी वर मुक्ति रूपी वधू को वरण कर लेगी। ___ द्रव्य भक्ति की तरह भाव भक्ति से हो वीतराग प्रभु के साथ आत्मसात होना है, प्रभु को दिले में आत्मसात करना है। प्रभु का गणगान तो अमूल्य वस्तु है। इसमें संगीतमय भक्ति तो एक अपूर्व वस्तु है । यह संगीतमय भक्ति प्राचीन भावपूर्ण स्तवन, स्तुति आदि से तो और ही सुन्दर विकसित हो उठता है। यह अनुभव-सिद्ध है कि मन्दिर में सामान्य भाव से गये हो, लेकिन अर्थ का लक्ष रख कर पद्धति पूर्वक एकाग्रचित से प्राचीनतम स्तवन का श्रवण एवं गान करने से प्रभु भक्ति के भाव में वृद्धि होती है। इससे संवेग-वैराग्य तथा वीतरागता में प्रेम का रंग जमता है तथा हम मुक्ति के समक्ष अग्रसर होते हैं। इसी प्रकार भाव भक्ति भी मुक्ति के दूती का अद्भुत कार्य करती है।
प्रार्थना गीत, भक्तिगीत संसार के सभी धर्मो में भरे परे हैं, परन्तु नमुत्युणम् ( सक्रस्तव ) कल्याण मन्दिर और प्राचीन स्तवनों में जो प्रभु का गुण गान भक्ति प्रार्थना लोकोत्तर है। इन प्रत्येक गाथाओं के भावों की क्रमबद्ध संकलनायाद करने से, चिंतन करने से ध्यान की शक्ति में
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अतएव हमें प्रत्येक स्तवन के भाव क्रमबद्ध लिखकर लेना चाहिये। इसका वारंवार स्वाध्याय करने से, पुनराति करने से मन अनेक पापों से छूटकर प्रभु के भाव में ही रुका रहता और तभी मनःपवित्र एवं प्रसन्न होता है । "मनः प्रसन्नतामेति पूज्यामाने जिनेश्वरे ।"
प्रस्तुत पुस्तक में प्रभु भक्ति के भावपूर्ण स्तवनों का सुन्दर संग्रह किया गया है । फलतः इस प्रकार संघ को प्रभुभक्ति के लिए एक सुन्दर भाव भक्ति साधना का संग्रह करने का प्रयास किया गया है । इस भौतिकवादी युग में सम्पूर्ण विश्व भोगोन्मुख हो रहा है । लोग अनाचार, अत्याचार, भ्रष्टाचार और विविध दुराचारों को ही आनन्द समझ बैठें हैं । आज के युग में कालकूट से भरा सिनेना संगीत मानव को पथभ्रष्ट करते हैं । ऐसी विषम परिस्थिति में प्रस्तुत 'संग्रह' भक्ति - रस की पीयूषधारा प्रवाहित करता है जिसके श्रवण, मनन एवं गान स्वरूप पान कर मानव मुक्ति के पथ पर विकासोन्मुख हो सके यही एक शुभेच्छा है ।
६, केनिंग स्ट्रीट ज्ञानपंचमी २०२७
पन्यास भानुविजय गणिवर
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PANNYAS Shri Bhanuvijayji Maharaj
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(५) तुमे तो भले बिराजोजी (६) प्रथम जिनेश्वर प्रणामी अ
(७) हां हां गुण गाऊं गा
(८) आदि जिनंद मनाया
(ह) जगजीवन जगवाल हो (१०) दादा आदीश्वरजी
(११) बालूडो निःस्नेही थइ गयोरे
(१२) शेडुंजा गढना वासी रे
(१३) शांति समता शुद्ध तारी (१४) तुम अदिजिनंद मरुदेवानंद
(१) अजित जिणंदरां प्रीतडी
(२) प्रीतडी बंधाणी रे
(३) पंथडो निहालुं रे
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(२) श्री अजित जिन स्तवन
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(१) साहिब सांभलो रे
(२) संभव जिनवर विनती
(३) संभव जिनराज सुखकंदा
(४) श्री संभव जिन स्तवन
(४) श्री अभिनन्दन जिन स्तवन
(१) अभिनन्दन जिन दरिसण तरसीये (३) तमे जोजो जोजो रे
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५०.
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(५) श्री सुमती नाथ जिन स्तवन (१) सुमती नाथ गुणशुं मिलीजी - (२) सुमती नाथजी अर्ज उचलं - (३) तारू ध्यान घरे मस्तान मने - (४) सुमति जिन तुम चरणे चितदीनो
(६) श्री पद्मप्रभु जिन स्तवन (१) पद्मप्रभु प्राण से प्यारा - (२) हो अविनासी, शिववासी -
(७) सुपार्श्व जिन स्तवन (१) श्री सुपास जिन वंदिये (२) क्युं न हो सुनाई स्वामी - (३) श्री सुपास जिन साहिबा --
(८) श्री चन्द्रप्रभु जिन स्तवन (१) चाह लगी जिन चन्द्रप्रभु की (२) जिनजी चन्द्रप्रभु अवधारो के (३) चन्दा प्रभुजी से ध्यान रे (४) हारे मारे चंद्रवदन जिन (५) जीयारे चन्दा प्रभुजी को
(8) सुविधि नाथ जिन स्तवन (१) में कोनो नहीं (२) ताहरी अजबशी योगनी मुद्रा रे ,
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(१०) श्री शितलनाथ जिन स्तवन (१) शीतल जिन सहाजानंदी
- (११) श्री श्रेयांसनाथ जिन स्तवन १) तुमे बहु मैत्री रे साहिबा . . (२) श्री श्रेयांस जिन अंतरयामी
(१२) श्री वासुपूज्य जिन स्तवन (१) स्वामी तुमे कांई कामण की, (२) आवो आवो मुज मन मंदिर (३) वासुपूज्य जिन वंदोये (४) वासुपूज्य विलासी (५) पूजना तो कीजे रे
(१३) श्री विमल जिन स्तवन (१) दुःख दोहग दूरे टल्यां रे (२) सेवो भवियां ! विमल जिवेश्वर
. (१४) श्री अनंत जिन स्तवन (१) अनंत जिनंद शुं प्रीतडी (२) धार तलवारनी
(१५) श्री धर्मनाथ जिन स्तवन (१) धमं जीनेश्वर गाउं रंगशुं (२) हारे मारे धर्म जिणंद शृं (३) थाशुं प्रेम बन्यो छे राज
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(१६) श्री शांतिनाथ जिन स्तवन
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(१) शांति जिनेश्वर साचो साबिब (२) म्हारो मुजरो ल्यो ने राज (३) सुण दयानिधि । तुज पद पंकज (४) हम मगन भये प्रभु ध्यान में (५) शांति जिनेश्वर साहिबा रे (६) श्री शान्तिनाथ महाराज (७) शांति तेरे लोचन है अनियारे (८) मारू खोयुं में प्रभु सघलुं प्रमादमां । (8) सोमेश्वर स्वामी अंतरयामी
. (१७) श्री कुंथुनाथ जिन स्तवन (१) मनडुं किम हीन बाजे
___(१८) श्री अरनाथ जिन स्तवन (१) श्री अरजिन भवजलनो तारु (२) अरनायकुं सदा मेरी वंदना (३) अमें तो गाश्यां गाश्यां जी
'(१६) श्री भल्लिनाथ जिन स्तवन (१) पंचम सुरलोकना वासी रे (२) जिनराजा ताजा मल्लि बिराजे भोयणो गाममें -
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(२०) श्री मुनिसुव्रत जिन स्तवन
(१) मुनिसुव्रत कीजें माया रे (२) श्री मुनिसुव्रत स्वामी (३) श्री मुनिसुव्रत साहिबा रे
(२१) श्री नमिनाथ जिन स्तवन
(१) श्री नमिजिननी सेवा करतां (२) नमि जिनवर एकवीसमो हो राज (३) श्री नमिनाथ ने चरणे रमतां (४) मुजमन पंकज भमरले
(२२) श्री नेमिनाथ जिन स्तवन
(१) परमातम पूरण कला
२) में आजे दरिसण पाया
(२३) श्री पार्श्वनाथ जिन स्तवन
(१) अंतरयामी सुण अलवेसर (२) याता जेवां कूलडांने
(३) अब मोहे जैसी आय वनी
(४) देखी श्री पार्श्वतनी मूरति
(५) अहो ! अहो ! पासजी । मुज मलियारे
(६) पारस नाम पारस नाम
(७) सुनिये श्री संखेश्वर पार्श्वनाथ (८) अब मोहे तारो पारसनाथ
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(९) बिना प्रभु प्रार्च के देखे (१०) श्री नाकोडा स्वामी (११) पार्श्व प्रभुजी रे विनती मोरी मानना (१२) मुख बोल जरा यह कहदे खरा (१३) सांवरो सुखदाई (१४) बीशमो तीर्थकर . (१५) पास प्रभु शंखेश्वरा (१६) दादा पारस नाथ ने नित्य नमिये
(२४) श्री महावीर जिन स्तवन (१) सिद्धारथना रे नंदन विनवू (२) तार हो तार प्रभु ! (३) तेरो दरस मन भायो (४) वीर जिणंद जगत उपगारी (५) गिरूआरे गुण तुम तणा. (६) मारा मनना भावो प्रभुजो (७) वीर जीनेश्वर ने चरणे लागुं (८) सिद्धारथ राय कुल तिलाए (६) नारे प्रभु नहि मानु (१०) आवो आवो हे वीर स्वामी (११) वीर वीरनी धून जगावो (१२) वीर तारूं नाम वहालुं लागे (१३) महावीर स्वामी आप बिराजो
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श्री बीज का स्तवन , ज्ञानपंचमी का स्तवन , नवपदजी का स्तवन
श्री सामान्य जिन स्तवन ११) माज मारा प्रभुजी (२) प्यारो लागे मने सारो लागे (३) झनन झनन भनकारो रे (४) टम टम टम टम टीलडी ना टमकारे
५) जनारू जाय छ जीवन (६) तुं प्रभु मेण में प्रभु तेरा (७) क्युं कर भक्ति करू प्रभु तेरी (८) होइ आनन्द बहार रे (e) नावरिया मेरा (१०) है जगत में नाम येरो (११) अजब जोत मेरे प्रभु की (१२) जिनवर नावरिया (१३) प्रभुजो पटा लिखा दो मेरा (१४) प्रभु भजले मेरा दिल राजो रे (१५) बसो जो मेरे नैन में महाराज (१६) शिवपुर जाना मोकु (१७) अवधू क्यो सोवे (१८) जगत रूठीने शुं करशे ६.१९) ऐसी दशा हो भगवन
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(२०) नजय टुंक मेहर की करके (२१) मेरी अर्जी ऊपर प्रभु ध्यान घो
श्री अष्टमी का स्तवन श्री एकादशी का
श्री चोवीश जिन स्तुति
श्री बीज का स्तुती
श्री पंचमी का स्तुती
श्री अष्टमी का
श्री एकादशी का
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स्तुति विभाग
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भावना
बधाई
प्रभु सन्मुख बोल ने की स्तुती
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मार जानना
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श्री तुलापट्टी जैन श्वे. पंचायती मन्दिर मूलनायक श्री आदेश्वर भगवान (ऊपर)
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स्नात्र में पाश्वनाथ भगवान की रचना
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स्नात्र में प्रभु भक्ती के दृश्य
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पंडित श्री वीरविजयजी महाराज कृत
|| श्री स्नान पूजा ॥
॥ काव्यम् ॥
॥ द्रुत विलंबित वृतम् ॥
सरसशांतिसुधारससागरं, शुचितरं गुणरत्न महागरं । भविकपंकज बोध दिवाकरं प्रतिदिनं प्रणमामि जिनेश्वरं ॥ १ ॥ ॥ दुहा ||
कुसुमाभरण उतारीने, पडिमा घरिय विवेक । मज्जन पीठे थापीने, करीए जल अभिषेक ||२|| ॥ गाथा || आर्या गीति ॥
जिण जन्म समये, मेरु सिहरे रयणकणय कलसेहिं ॥ देवा सुरेहिं हविउ, ते धन्ना जेहिं दिठ्ठोसि ॥ ३ ॥ प्रभुना जमणा अंगुठे कुसुमांजलि भूकपी ।
॥ कुसुमांजली || ढोल ॥
निर्मल जल कलशे न्हवरावे, वस्त्र अमूलख अंग धरावे ॥ कुसुमांजलि मेलो आदि जिणंदा ॥ सिद्ध स्वरुपी अंग पखाली, आतम निर्मल हुई सुकुमाली || कु०॥४॥
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( २ ) ॥ गाथा ॥ आयाँ गीति ॥ मचकूद चंपमालई -कमलाई पुष्फपंचण्णाई॥ जगनाह न्हवण समये, देवा कुसुमांजलि दिति ॥५॥ नमोहतसिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुभ्यः ॥
॥ कुसुमांजली॥ रयण सिंहासन जिन थापी जे, कुसुमांजलि प्रभु चरणे दीजे । कुपुमांजलि मेलो शान्ति जिणंदा ॥६॥
॥दुहा ॥ जिण तिहूँ कालय सिद्धनी, पडिमा गुण भंडार। तसु चरणे कुसुमांजलि, भविक दुरित हरनार ॥७॥ नमाहतसिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुभ्यः ।।
॥ कुसुमांजलि ॥ कृष्णागरु वर धूप घरीजे, सुगंधकर कुसुमांजलि दीजे ।। कुसुमांजलि मेलो नेमि जिणंदा ।।८।।
॥ गाथा॥ जसु परिमल बल दह दिसि, महुकर झकार सदसंगीया । जिण चलणोवरि मुक्का सुरनर कुसुभांजलि सिद्धा ॥६॥ नभोर्हत सिद्धाचार्योपाध्याय सर्व साधुम्य ॥
॥ कुसुमांजलि ॥ पास जिणेसर जग जयकारो, जल थल फुल उदक कर धारी। कुसुमांजलि भेलो पार्श्व जिणंदा ॥१०॥
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(
३ )
. ॥दुहा ॥ मूके कुसुमांजलि सुरा, वीर चरण सुकुमाल, ते कुसुमांजलि भविकनां, पाप हरे त्रण काल ॥११॥ नमोर्हत सिद्धाचार्यो पाध्याय सर्व साधुम्यः॥
॥ कुसुमांजलि ।। विविध कुसुम वर जाति गहेवी, जिन चरणे पणमंत ठवेवी ।। कुसुमांजलि मेलो वीर जिणंदा ॥१२॥
॥ बस्तु छन्द ॥ न्हवणकाले न्हवणकाले, देवदानव समुच्चिय ॥ कुसुमांजलि तही संठविय, पसरंत दिसि परिमल सुगंधीआ ॥१३॥ जिण पयकमले निवडेई, विग्घहर जस नमे मंतो॥ अनंत चउवीस जिन, वासव मलिय असेस ॥१४॥ सा कुसुभांजलि सहु करो, चउवीय संघ विसेस ॥ कुसुमांजलि भेलो चउवीस जिणंदा ॥१५।। __नमोहत सिद्धाचार्यो पाध्याय सर्व साधुभ्यः ।।
॥ कुसुमांजलि ॥ अनंत चउंवीसी जिनजी जुहारु, वर्तमान चवीसी संभारु ॥ कुसुमांजलि मेलो चोवीस जिणदा ॥१६
। दुहा ॥ महाविदेह संप्रति, विहरमान जिन वीश । . भक्ति भरेते पुजीया, करो संघ सुजगीश रणा
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॥ कुसुमांजलि ॥ अपच्छर भंडलि गीत उच्चारा, श्री शुभवीर विजय जयकारा॥ कुसुभांजलि मेलो, सर्व जिणंदा ॥१८॥
॥ अथ कलश ।। सयल जिणेसर पाय नमो, कल्याणक विधि तास ।। वर्णवतां सुणतांथकां, संघनी पूगे आश ॥१॥
॥ ढाल ॥ देशी एक दिन अचिरा हुलरावती॥ समकित गुणठाणे परिणम्या, वली ब्रतधर संयम सुख रम्या, वीश स्थानक विधिए तप करी, इसी भाव दया दिलमा धरी ।।१।। जो होवे मुज शक्ति इसी, 'सवि जीव करुं शासन रसी' शुचिरस ढलते तिहां बांधता, तीर्थकर नाम निकाचता ॥२॥ सरागथी संयम आचरी, वचमा एक देक्नो भव करी; घ्यवी, पन्नर क्षेत्रे अवतरे, मध्यखण्ड पण राजवी कुले ।। ३ ॥ पटराणी कूखे गुणनीलो, जेम मान सरोवर हंसलो सुख शय्याए रजनी शेषे, उतरतां चउद सुपन देखे ॥४॥
ढाल स्वप्नवी - पहेले गजवर दीठो, बीजे वृषभ पइट्ठो; त्रीजे केसरी सिंह चोथे लक्ष्मी अबीह ॥१॥ पांचमे फुलनी माला, छठे चन्द्र विशाला, रवि रातो ध्वज मोहोटो. पूरण कलश नहीं छोटो ॥२॥ दशमे पद्म सरो. वर, अगियारमे रत्नाकर; भुवन विमान रत्नगंजी, अग्निशिखा घुम
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( ५ ) वर्जी ॥३॥ स्वप्न लही जई रायने भासे, राजा अर्थ प्रकाशे; पुत्र तीर्थकर त्रिभुवन नमशे, सकल मनोरथ फलशे।
वस्तु छन्द अवधि नाणे, अवधि नाण; उपना जिनराज, जगत जस परमाणुआ, विस्तर्या विश्वजंतु सुखकार ॥ मिथ्यात्व तारा निर्बला, धर्म उदय प्रभात सुन्दर माता पण आन्नदिया, जोगती धर्म विधान, जाणती जगतिलक समो, होशे पुत्र प्रधान ॥१॥
दुहा - - शुभ लग्ने जिन जन मिया; नारकीमां सुख ज्योत, सुख पाम्या त्रिभुवन जना, हुओ जगत उद्योग ॥१॥
ढाल कडखानी देशी ___ सांभलो कलश जिन, महोत्सवनों ईहां, छप्पन कुमारी दिशि विदिश आवे तिहा; मायसुत, नमीय, आनन्द अधिको धरे, अष्ट संवर्त्त, वायुथी कचरो हरे ॥ १॥ वृष्टि गंधोदको, अष्ट कुमरी करे अष्ट कलशा भरी, अष्ट दर्पण धरे; अष्ट चामर धरे, अष्ट पंखा लही, चार रक्षा करी, चार दीपक ग्रही ॥ २ ॥ घर करी केलना, माय सत लावती, करण शुचिकर्म जल कलशे न्हवरावती; कुसूम पूजी अलंकार पहेरावती, राखडी बांधी जई शयन पधरावती ॥३॥ नमीय कहे माय तुज, बाल लीलावती, मेरु रविचन्द्र लगे, जीवजो जगपति; स्वामी गुण गावती। निज धर जावती, तेणे समे इन्द्र, सिंहासन कंपति ॥ ४॥
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( ६ )
ढाल एकवीशानी देशी
जिन जनभ्याजी, जिन वेला जननी घरे, तिण वेलाजी, इन्द्र सिंहासन थरहरे; दाहिणोत्तरजी जेता जिन जनमे यदा, दिशि नायकजी, सोहम ईशान बेहु तदा ॥ १ ॥ त्रोटक छंद
तदा चिंते ईन्द्र मनमां, कोण अवसर राबन्यो ? जिनजन्म अवधि नाणे जाणी, हर्ष आनन्द उपन्यो ॥ १ ॥ सुघोष आदे घंटघोषणा सुर में करे "सवी देवी देवा जन्म महोत्सवे आवजो सुर गिरिवरे" || २ ||
नादे
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ढाल ऐकवीशानी देशी
एम, सांभलीजी, सुरवर कोडी आवी मले, जन्म महोत्सवजी करवा मेरु उपर चले; सोहमपतिजी, बहु परिवारे आवीआ माय जिनमेजो, वांदी प्रभु ने वधावीआ ॥ ३ ॥ त्रोटक छंद
वधावी बोले "हे रत्नकुक्षि धारिणी ! तुज सुततणोः हुँ शक्र सोहम नाम करशुं जन्म महोत्सव अति घणो" एम कही जिन प्रतिबिंब स्थापी, पंचरूपे प्रभु ग्रही, देव देवी नाचे हर्ष साथे, गिरि आव्या सही ॥ ४ ॥
ढाल एकवीशानी देशी
मेरु उपरजी पांडुक वन में चिहुँ दिशे, शिला उपराजी, सिंहासन मन उल्लसे; तिहां नेसीजी, शक्रे जिन खोले धर्या, हरि त्रेसठजी, बीजा तिहां, आवी मल्या ॥ ५ ॥
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( ७ ) त्रोटक छंद
मल्या चोसठ सुरपति तिहां, करे कलश अड जातिना, मागधादि जल तीर्थ औषधि, धुपवली बहु भातिना, अच्युतपतिए हुकम कीनो, सांभलो देवा सवे, खोरजलधि गंगानीर लावो, फटिति जिन महोत्सवे ।। ६ ।।
(ढाल विवहलानी देशी)
राग - प्रभु पार्श्वनं मुखहुँ जोवा ।)
सुर सांभलीने संचरीआ, मागध वरदामे चलीआ; पद्म ग्रह गंगा आवे, निर्मल जल कलशा भरावे ॥ १ ॥ तीरथ फल औषधि लेती वली खीर समुद्र जातां; जलकलशा बहुल भरावे फूल चंगेरी थाला. लावे || २ || सिंहासन चामर धारी, धुपघाणा रकेबी सारी; सिध्घांतै भाख्यां जेह, उपकरण मिलावे तेह || ३ || ते देवा सुरगिरि आवे प्रभु देखी आनन्द पावे; कलशादिक सहु तिहां ठावे भक्ते प्रभुना गुण गावे ॥ ४ ॥
ढाल राग धनाश्री
आतमभक्ते मल्या केई देवा, केता भित्तानुजाई । नारी प्रेर्या वली निज कुलवट, धर्मी धर्म सखाई ॥ जोइस व्यंतर भुवनपतिता वैमानिक सुर आवे | अच्युतपति हुकमें धरी कलशा, अरिहाने नवरावे ॥ अ० ।। १ ।। अड जाति कलशा प्रत्येक, आठ आठ सहस प्रमाणों । चउसठ सहस हुआ अभिषेके, अढी सें गुणा करी जाणो ॥ साठ लाख उपर एक कोडी कलशानों अधिकार । बासठ ईन्द्रतणा तिहां बासठ, लोकपालना चार ॥ अ० ॥ चन्द्रनी पंक्ति छासठ छासठ र वि शशि नरलोकों । गरुस्थानक सुर केरो एकज,
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(5)
सामानिकनों एको । सोहमपति ईशानपतिनी, इन्द्राणीना सोल । असुरनी दश इन्द्राणी, नागनी, बार करे कल्लोल ।। आ० ।। ३ ।। ज्योतिष प्यंतर इन्द्रनी चउ चउ, पर्षदा त्रणनो एको । कटकपति अंगरक्षक केरो; एक एक सुविवेको ॥ परचुरण सुरनो एक छेल्लो, ए अढीसे अभिषेको ईशान ईन्द्र कहे भुज आपो, प्रभुने क्षण अतिरेको ॥ आ० ॥ ४ ॥ तव तस खोले ठवी अरिहाने, सोहमपति मनरंगे । वृषभ रूप करी श्रंग जले भरी, न्हवण करे प्रभु अंगे || पुण्पादिक पुजीने छांटे, करी केसर रंग रोले मंगल दीवो- आरती करतां सुरवर जयजय बोले ||०||५| भेरो भुगल ताल बजावत, वलीआ जिन कर धारी । जननी घर माताने सोंपी, एणी पेरे वचन उच्चारी | पुत्र तमारो स्वामी हमारो, अम सेवक आधार पंच छाई रंभादिक थापी, प्रभु खेलावणहार || आ० || ६ || बत्तीस कोड कनक मणि माणिक वस्त्रनी वृष्टि करावे । पूरण हर्ष करेवा कारण द्वीप नंदीश्वर जावे || करीय अठाई उत्सव देवा, निज निज कल्प सधावे । दीक्षा केवल ने अभिलाषे, नित नित जिनगुण गावे || आ० ||७|| तपगच्छ ईसर सिंहसूरीश्वर केरा शिष्ये वड़ेरा । सत्यविजय पंन्यास तणे पद, कपूर विजय गंभीरा ॥ खिमा विजय तस सुजस विजयना, श्री शुभ विजय सवाया। पंडित विरविजय तस शिष्ये जिन जन्म महोत्सव गाया ॥ आ० ॥ ८ ॥ उत्कृष्टा एकसोने संप्रति विचरे वीश अतीत अनागत काले अनंता तीर्थंकर जगदीश ॥ साधारण ए कलश जे गावे, श्री शुभवीर सवाई | मंगल लीला सुखभव पावे, घर घर हर्ष वधाई ॥ ७ ॥
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ईति पंडित श्री वीरविजया कृत श्नात्र पूजा स्माप्त
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श्री देवचन्दजी कृत
स्नान पूजा
॥पाखंडी गाथा ॥
चौतीसैं अतिशय जुओ, वचनातिशत संजुत । सो परमेश्वर देखि भवि, सिंघासन संपत्त ।
ढाल
सहासन बैठा जगभांण, देखि भवियण गुण मणि खाण।
तुझ निम्मल झाण, लहिये परम महोदय ठाण ॥१॥
कुसुर्माजलि मेलो आदि जिणंदां ॥ तोरा चरण कमल चौबीस पूजो रे, चौबीस सौभागी, चौबीस बैरागी, चौबीस जिणंदा!
(कुसुममांजलि हाथ में लेकर के यानी यह पढ़ते हुए चरणों में टीकी लगानी चाहिये ।)
गाथा जो निज गुण पज्जव रम्यो, तसु अनुभव ए गक्त । सुह पुग्गल आरोपतां, ज्योति सूरंग निरत्त ।।
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( १० )
गाथा जो निज मातम गुण आणदी, पुग्गल संगै जह अफंदी। जे परमेश्वर निज पद लीन, पूजो प्रणमो भव्य अदीन ॥१॥
कुसुमांजलि मेलो शांति जिणंदा॥
तेरा चरण कमल चौबीस पूजोरे, चौबीस सौभागी, चौबीस वैरागी जिणंदा।
कुसुमांजलि मेलो शांति जिणंदा( यह पढ़कर घुटनों पर टीकी लगानी चाहिये ) ॥२॥
गाथा निम्मल नाण पयास कर, निम्मल गुण संपन्न । निम्मल धम्म उवएसकर, सो परमप्या धन्न ।। ३ ।।
- ढाल लोका लोक प्रकाशक नाणा, भविजन तारण जेहनी वाणी। परमानन्द तणी नीसाणी, तसु भगते मुझ मति ठहराणी ॥१॥
कुसुमांजलि मेलो नेमि जिंणदा। तोरा चरण कमल चौबीस पूजोरे, चौबीस सौभागी, चौबीस वैरागी, चौबीस जिणंदा । ( यह पढ़कर दोनो हाथों पर टीकी लगानी चाहिये) ॥ ३ ॥
गाथा जे सिद्धा सिज्जन्ति जे, सिज्जिस्सन्ति अणंत । जसु आलंबन ठविय मन, सो सेवो अरिहन्त ॥ ४ ॥
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( ११ )
ढाल शिव सुख कारण जे त्रिकालें, सम परिणामें जगत निहालें। उत्तम साधन मार्ग दिखालें, इन्द्रादिक सु चरण पखालें ॥१॥
कुसुमांजलि मेलो पाव जिणंदा। तोरा चरण कमल चौबीस पूजोरे, चौबीस सौभागी, चौवीस वैरागी, चौबीस जिणंदा। कुसुमांजलि मेलो श्री पार्ब जिणंदा। (यह पढ़कर दोनों कन्धों पर टीको लगानी चाहिये)
गाथा सम दिट्टि देसजय, साहु साहुणी सार अचारिज उवझाय मुनि, जोनिम्मल आधार ॥ ५ ॥
ढाल चौविस संधै जे मन धारयो, मोक्ष तणो कारण निरधारयो । विविह कुसुम वरजात गहेवी, तसु चरणे प्रणमन्त ठवेवी ॥१॥
कुसुमांजलि मेलो श्री वीर जिणंदा। . . तोरा चरण कमल, चौबीस पूजोर, चौबीस सौभागी, चौबीस वैरागी, चौबीस जिणंदा। कुसुमांजलि मेलो श्री बीर जिणंदा(यह पढ़कर मस्तक पर टीची लगानी चाहिये) ॥५॥
॥ इति पाखंडी गाथा ॥
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१२ )
वस्तु सयल जिनवर सयल जिनवर नमिय मनरंग । कल्लाणक विह संथविय । करिय सुजम्म सुपवित्त सुन्दर । सय इक सत्तरि तित्थंकर। इक्क समैं विहरंत महियल। चवण समें इक-वीस जिण ! जन्म समें इकवीस। भत्तिय भावै पूजिया । करो संघ सुजगीस ॥१॥
(इकदिन अचिरा हुलरावती-ए देशी। ) भवतीजे समकित गुण रम्या, जिन भक्ति प्रमुख गुण परिणम्या। तजि इन्द्रिय सुख आसंसना, करि थानक वीसनी सेवना । अतिराग प्रशस्त, प्रभावता, मन भावना एहबी भावता। सवि जीव करूं शासन रसी, इसी भाव दया मन उल्लसी। लहि. परिणाम एहबं भलं, निपजावी जिन पद निरमलुं । आऊबन्ध विचै इक भव करि, श्रद्धा संवेगथी थिर घरी। तिहांत्थी चविय हैं नर भव उदार, भरते जिम ऐरवतेज सार । महा विदेह विजय प्रधान, मझ खंड अवतरे जिन निधान ।
ढाल पुण्ये सुपना ए देखें, मन में हर्ष विशेष । गजवर उज्जवल सुन्दर, निर्मल वृषभ मनोहर । निर्भय केसरी सिंह लखमी अतिह अबीह । अनुपल फूलनी माला, निर्मल शशि सुकमाल । तेज तरण अति दीप, इन्द्र ध्वजा जग जीपै ।
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( १३ )
पूरण कलश पंडूर पदम सरोवर पूर। इग्यारमे रयणायर, देखें माताजी गुण सायर । बारमें भुवन विमान, तेरमें रतन निधान । अग्नि शिखा निरधूम, देखे माताजी अनुपम । हरखी रायने भासे, राजा अर्थ प्रकाशें। जगपति जिनवर सुखकर, होस्] पुत्र मनोहर । इन्द्रादिक जसु नमस्य, सकल मनोरथ फलस्य ।
वस्तु पुण्य उदय पुण्य उदय ऊपना जिणनाह, माता तब रयणी समैं देखि सुपन हरषंत जागिय । सुपन कहि निज कंतने सुपन अरथ सांमलो सोभागिय, त्रिभुवन तिलक महागुणी, हौस्य पुत्र निधान । इन्द्रादि जसु पाय नमी, करस्य सिद्ध विधान ।
॥ ढाल चन्द्रा उल्लालानी॥ सोहम पति आसन कंपियो, दई अवधे मन आणंदियो। मुझ आतम निरमल करण काज, भव जल तारण प्रगट्यो जिहाज । भव अटवि पारग सन्थवाह, केबल नाणाइअ गुण अगाह । शिव साधन गुण अंकुर जेह, कारण उलट्यो, आषाढ़ मेह । हर विकसै तब रोम राय, बलियादिक मां निजतनु न माय । सिंहासन थी ऊठो सुरीद, प्रणमन्तो जिण आनन्दकन्द । सग अड़पय पमुहा आवितत्थ, करि अञ्जलि प्रणमिय मत्थ सत्थ ! मुख भाखें ऐ खिग आज सार, तियलोय पहु दीठो उदार ।
अर
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( १४ )
तसु
धाम ।
रे रे निसुणो सुरलोय देव, विषयानल तापित तनु समेव । शांति करण जलघर समान, मिथ्याविष चूरण गरूड़ समान । ते देव सकल तारण समत्थ, प्रगटयो तसु प्रणमी हुई सनत्थ । इम जम्पी, शक्रस्त्व करेवि, तब देव देवि हरखे सुणेवि । गावें तब रम्भा गीत गान, सुरलोक हुवो मंगल निधान । नर खेत्रें आरज वंश ठाम, जिनराज बधै सुर हर्ष पिता माता घरे उत्सव अलेख, जिन शासन मंगल अति सुरपति देवादिक हर्ष संग, संयम अरथी जनने शुभ वेला लगने तीर्थनाथ, जनभ्यां इन्द्रादिक हर्ष सुख पाभ्यां त्रिभुवन सर्व जीव, बधाई बधाई थई यह कह कर फूल और चावलों से बधाना और बाद में चैत्य वंदन करके और धुप देना चाहिये ।
विशेष ।
उमंग |
साथ ।
अतीव ।
॥ श्री शान्ति जिननो कलश कहसुं- ऐ देशी ।। त्रोटक
श्री तीर्थ पतिनो कलश मज्जन गाइये सुखकार, नरखेत मंडन गृह विहंडन भविक मन आधार । तिहां राब राणां हर्ष उच्छव थयो जग जयकार, दिसी कुमरि अवघि विशेष जाणी लह्यो हर्ष अपार । निय अमर अमरी संग कुमरी गावती गुण छन्द, जिन जननी पासें आवि पोंहती गहगहती आणंद । हे माय तें जिनराज जायो सुचि बघायो रम्म, अम जम्म निम्मल करण कारण करिस सुइय कम्म ।
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( १५ ) तिहां भूमिशोधन, दीप दर्पण, वाय विजण, धार, तिहां करिय कदली गेह जिनवर जननी मज्जनकार। वर राखड़ी जिन पाणी दियें ईम आसीस, जुग कोड़ा कोड़ी चिरंजीवो धर्म दायक ईश ।
ढाल इकवासानी जगनायकजी, त्रिभुवन · जनहित कारए। परमातमजी चिदानन्द घनसारए । जिन रयणीजी, दश दिश उज्जलताधरै। शुभ लगनेजा, ज्योतिष चक्रते संचरै। जिन जनम्याजी, जिन अवसर माता धरै। तिण अवसरजी, इन्द्रासन पिण थर हरै।
त्रोटक थरहरे आसन इन्द्र चितें कवण अवसर ए बण्यो । जिन जन्म उच्छव काल जाणों अतिही आनन्द्र ऊपन्यो। निज सिद्ध सम्पति हेतु जिनवर जाणि भगते ऊमह्यो । विकसंत वदन प्रमोद बधत देव नायक गह गह्यो ।
ढाल तव सुरपतिजी, घंटानाद करावए । सुरलोकजी, घोषणा . एह दिरावए । नर क्षेत्रंजी, जिनवर जन्म हुवो अछ । तसु भगतेजी, सुरपति मन्दिर गिरि पर्छ ।
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( १६ )
त्रोटक
गछ मंदर शिखर ऊपर भुवन जीवन जिन तणों। जिन जन्म उच्छवकरण कारण आवज्यो सवि सुर गणों ।। तुम शुद्ध समकित थास्यें निर्मल । देवाधिदेव निहालतां । आपणा पातिक सर्व जास्य नाथ चरण पखालतां ॥
ढाल इम सांभलिजी, सुरवरकोड़ी बहु मिली। जिन वंदनजी, मन्दर साहमी चली। सोहमपतिजी, जिन जननी घर आविया । जिनमाताजी, वंदी स्वामी वधाविया ।
ढाल बधाविया जिनवर हर्ष बहुलै धन्य हूँ कृत पुण्य ए। त्रैलोक्य नायक देव दीठा मुझ समोकुण अन्य ए॥ हे जगत जननी पुत्र तुमचो मेरु मज्जन वर करी । उछग तुम चै वालिय थापिस अत्मां पुन्य भरी॥
ढाल सुरनायकजी, जिन निजकर कमले ठव्या। पांचरूपेजी, अतिशय महिमायें स्तव्या।। नाटकविधजी तव बत्तीस आगल बहै। सुरकोडीजी, जिन दरशणनें ऊम है।
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( १७ )
त्रोटक
सुरकोडा कोड़ी नाचती वलि नाथ शुचि गुण गावती। अपछरा कोड़ी हाथ जोड़ी; हाव भाव दिखावती ॥ जय जयो तूं जिनराज जग गुरु एम दे आसीस ए। अमत्राण शरण आधार, जीवन एक तूं जगदीस ए।
ढाल
सुर गिरवरजी, पांडुक वन में चिहुँ दिसें। गिरि शिलपरजी, सिंहासन सासय वसे ।। तिहांआणीजी, शक्र जिन खोले ग्रह्मा। चउसठेजी तिहां सुरपति आवी रह्या ॥
त्रोटक
आविया सुरपति सर्व भगत कलश श्रेणि बणावए । सिद्धार्थ पमुहा तीर्थ औषधि सर्व वस्तु अणावए । अच्चुयपति तिहां हुकुम कीनो देव कोड़ा कोड़ी ने । जिन मज्जनारथे नीर लाओ सबै सुरकर जोडिने ।।
( जल का कलश लेकर खड़े रहें और पढ़ें) ॥ शांति ने कारण इन्द्र कलश भरे-ए देवी।।
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(१८ )
ढाल आत्म साधन रसी देव कोड़ी हसी।
उल्लसी ने धसी खीर सागर दिशी। पउमदह आदि दह गंग पमुहा नई।
तीर्थ जल अमल लेवा भणी ते गई। आति अड़ कलश करि सहस अठोत्तरा।
छत्र चामर सिंहासणे शुभ तरा॥ उप्पगरण पुफ्फ चगेरि पमुहा सवें।।
आगमें भासिया तेम आणि ठवें तीर्थ जल भरिय करि कलश करि देवता ।
गावता भावता धर्म उन्नति रवा ।। तिरिय नर अमरनें हर्ष उपजवता ।
घन्य श्रम शक्ति शुचि भक्ति इम भावता । समकितें बीज निजआत्म आरोपतां ।
कलश पाणी मिस भक्ति जल सींचता। मेरु सिंह रोबरे सर्व आव्या वही।
शक्र उच्छण्ड जिन देखि मन गहगही।
गाथा हंहो देवा अणाई कालो, अदिट्ठ पुब्वो तिलोय कारण । तिलोय बन्धु मिच्छन मोह बिद्धसणे । आणाइति हण विणा सणों, देवाहि देवो दिद्वन्वो हिय कामेहिं ।।
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( १६ )
ढाल. एम पमणंत वण भुवन जोईसरा, देव वेमाणिया मति धम्मायरा । केवि कप्प-ट्टिया केवि मित्ताणुगा। केवि वर रमण वयणेण अइ उच्छगा।
वस्तु तत्थ अच्युय तत्थ अच्युय इन्द्र आदेश । कर जोडि सब देव गण लेई कलश आदेश पामिय । अद्भुत रूप सरूप जुयकवण एह पुच्छन्त समिय ?
इन्द्र कहे जग तारणो पारग अम्ह परमेस । दायक नायक धर्म निधि करिये तसु अभिषेक ॥
( इस समय जल की थोड़ी सी धारा देना) । तीर्थ कमलवर उदक भरनें पुष्कर सागर आवै-ए देशी ॥
ढाल पूर्ण कलश शुचि उदकनी धारा, जिनवर अंगे नाम । आतम निर्मल भाव करंता बघतें शुभ परिणमैं ॥ अच्युतादिक सुरपति मज्जन, लोकपाल लोकांत । सामानिक इन्द्राणी पमुहा, इम अभिषेक करत ॥पूर्भ कलश
गाथा - तब ईशाण सुरिंदो, सक्कं पमणेइ करि सुपसाउ तुम अंके महनाओ, खिणमितं अम्ह अप्पेह ।
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ता सकिकन्दो पभणई, साहिम्म बच्छ लम्मि बहुलाओ आणा एवं तेणं, गिन्हई होउ कयत्था भो। (यह कह कर सभी कलशों के जलसे भगवान को स्नान करानी चाहिये)।
_ ढाल सोहम सुरपति वृषभ रूप करि न्हवण करें प्रभु अंगे। करिय विलेपन पुष्पमाल ठवि पर आभरण अभगे ।सोहम० ॥ तव सुरवर बहु जय जय रव करि निश्चै धरि आणन्द । मोक्ष मारग सारथ पति पाम्यों भांजस्य॒ हि भव वन्ध । सो। कोड़ बत्तीस सोवन्न उवारी वाजंतै वरनाद । सुरपति संघ अमर श्री प्रभु ने जननीने सुप्रसाद ।। आणी थापी एम पयंपे अम्ह निस्तरिया आज । पुत्र तुम्हारो धणिय हमारो तारण तरण जिहाज । सोहम० ३ ॥ मात जतन करि राखज्यो एहनें तुम सुम हम आधार । सुरपति भक्ति सहित नन्दीश्वर करे जिन भक्ति उदार ॥ सो० ४ ।। निय निय कप्प गया सहु निर्जर कहता प्रभु गुण सार । दीक्षा केवल ज्ञान कल्याणक इच्छा चित्त मझार ॥ सोहम० ५॥ खरतगच्छ जिण आणा रंगी राज सागर उवज्झाय । ज्ञान धर्म दीपचंद सुपाठक सुगुर तणे सुपसाय ॥ देवचन्द निज भक्तें गायो जन्म महोच्छ छन्द । बोध बीज अंकुरो उलस्यो संघ सकल आणंद ॥ सोहम० ६ ॥
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( २१ ) मेरू शिखर नवरावे हो सुरपति ॥ मेरू० ॥ जन्मकाल जिनवरजी को जाली, पंचरूप करि आवे हो सुरपति ।मेरू०॥ क्षीर समुद्र तीर्थोदक आणी, स्नात्रकरि गुणगावे हो सुरपति ।मेरू । रत्न प्रमुख अडजातिना फलशा, औषधि चूरण मिलावे हो सुरपसि।मेरू०॥ जिन प्रतिमाजी को नृवण फरोने, बोव बीज मन भावे हो सुरपति॥मेरू०।। अनुक्रमे गुण रत्नाकर करसी, जिन उत्तम पद पावे हो सुरपति॥मेरू०।।
राग वेलाक्ल इम पूजा भगतें करो, आतमहित काज । तजिय विभव निज भावना, रमतां शिवराज ॥ इम पूजा ॥१॥
___ काल अनंतें जे हुवा, होस्यं जेह । जिणंद संपई सीमंधर प्रभु, केवल नाण दिणंद ॥ इम पूजा ॥२॥
जन्म महोच्छव इण परै, श्रावक रूचिवंत ।। विरचै जिन प्रतिमा तणों, अनुमोदन खंत्त ॥ इस पूजा ॥३॥
देवचन्द जिन पूजना, करतां भव पार। जिन पडिमा जिन सारखी, कही सूल मझार ॥ इम पूजा ॥४॥
॥ इति स्नात्र पूजा ।।
श्री अष्टप्रकारी पूजा विमल केवल भासन भास्कर, जगति जंतु महोदय कारणं। जिनवरं बहुमान जलौघतः, शुचिमनः स्नययामि विशुद्धये ।।
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( २२ ) ॐ हीं परमात्मने अनंतानंत ज्ञान शक्तये जन्म जरा मृत्यु निवारणाय, श्री मञ्जिनेन्द्राय जलं यजामहे स्वाहा। ॥इति जल पूजा॥
चन्दन पूजा सकल मोह तिमिन्न विनाशनं, परमशीतल भात युतं जिने। विनय कुंकुम चंदन दर्शनैः, सहज तत्त्व विकाश कतेच्चये ।।
___ऊँ ही परमात्मने अनन्तानंद ज्ञान शक्तये जन्म जरा मृत्यु निवारणाय श्री मजिनेन्द्राय चंदनं यजामहे स्वाहा । यह कह कर चंदन चढ़ावें।
पुष्प पूजा विकचनिर्मल शुद्ध मनोरमै विशद चेतन भाव समुद्भवैः। सुपरिणाम प्रसून धनवः, परमतत्वमयं हि यजा म्यहं ॥ ___ ॐ हीं परमात्मने अनन्तानंत ज्ञान शक्तये जन्म जरा मृत्यु निवारणाय, श्री मजिनेन्द्राय पुष्पं यजामहे स्वाहा । इति पुष्प पूजा।
धूप पूजा सकल कर्म महेंधन दाहनं, विमल संवर भाव सुधूपनं । भशम पुद्गल संग विवर्जितं, जिनपतेः पुरतोऽस्तु सुहषितः
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( २३ ) ऊँ ही परमात्मने अनन्तानंत ज्ञान शक्तये जन्म जरा मृत्यु निवारणाय, श्री मजिनेन्द्राय धूपं यजामहे स्वाहा इति धूप पूजा।
दीप पूजा भविक निर्मल वोघ विकाशकं, जिनगृहे शुभ दीपक दीपनं सुगुण राग विशुद्धि समन्वितं, दधतु भाव विकाश कुर्तेजनाः ____ ऊँ ही परमात्मने अनन्तानंत ज्ञान शक्तये जन्म जरा मृत्यु निवारणाय, श्री मजिनेन्द्राय दीपं यजामहे स्वाहा । इति दीप पूजा।
अक्षत पूजा सकल मङ्गल केलि निकेतनं, परम मंगल भाव मयं जिनं । श्रयति भव्य जना इति दर्शयन, दधतु नाथ पुरोक्षत स्वस्तिकं ___ॐ हीं परमात्मने अनन्तनंत ज्ञान शक्तये जन्म जरा मृत्यु निवारणाय, श्री मजिनेन्द्राय अक्षतं मजायहे स्वाहा इति अक्षत पूजा।
नैवेद्य पूजा सकल पुद्गल संग विव जितं, सहज चेतन भाव विलायसकं सरस भोजन नव्य निवेदनात, परम निवृति भावमहं स्पृहे।
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___( २४ ) ॐ ही परमात्मने अनन्तानंत ज्ञान शक्तये जन्म जरा। मृत्यु निवारणाय, श्री मञ्जिनेन्द्राय नैवेद्यं यजामहे स्वाहा। इति नैवेद्य पूजा।
फल पूजा कटुककर्म विपाक विनाशनं, सरस पक्व फल व्रज ढोकनं । वहितमोक्ष फलस्य प्रभोः पुरः, कुरुत सिद्धि फलाय महाजनाः . ॐ हीं परमात्मने अनन्तानंत ज्ञान शक्तये जन्म जरा मृत्यु निवारणाय, श्री मजिनेन्द्राय फलं यजामहे स्वाहा । इयि फल पूजा।
___ अर्ध्य पूजा इति जिनवर वृन्दं भक्तितः पूजयन्ति, सकल गुण निधानं देवचंद्र स्तुवन्ति । प्रतिदिवस मनन्तं तत्व मुद्भासयन्ति,
परम सहज रूपं मोक्ष सौख्यं श्रयन्ति । ॐ हीं परमात्मने अनन्तानंत ज्ञान शक्तये जन्म जरा मृत्यु निवारणाय, श्री मजिनेन्द्राय अयं यजामहे स्वाहा । चारों कोनों में पानी की धार दें। इति अयं पूजा ।
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( २५ )
वस्त्र पूजा ( वस्त्र लेकर खड़ा रहे और यह श्लोक पढ़े) शक्रोयथा जिनपतेः सुरशैल चूला, सिंहासनो परिमित स्त्पना वसाने । दध्यक्षतैः कुसुम चन्दन गन्ध धूपः,
कृत्वार्चनं तु विदधाति सुवस्त्र पूजां ॥१॥ तत् श्रावक वर्ग एष विधियालंकार वस्त्रादिकं, पूजा तीर्थ कृतां करौति सततं शक्त्यादि भक्ता दृत,। नीरागम्य निरञ्जनस्य विजिताराते स्त्रीलोकीपतेः, स्वस्थान्यस्य जनस्य निर्वृत्ति कृते क्लेश क्षयाकाडक्षया॥२॥
ॐ हीं परमात्मने अनन्तानंत ज्ञान शक्तये जन्म जरा मृत्यु निवारणाय, श्री मजिनेन्द्राय वस्त्रेण यजामहे स्वाहा । वस्त्र चढ़ावें । ____ पूजन सर्व अंगों मे पहिले दाहिने तरफ, फिर बाई तरफ करें-नव अंगों की पूजा होती है उनका एक एक श्लोक पढ़े और अंग भेटें
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( २६ )
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जल भरी संपुट पात्रमां युगलिक नर पूजंत । ऋषभ चरण अंगूठड़, दायक भव जल अन्त ॥ १ ॥ दोनों पांव के अंगूठों का पूजन विचरया देश विदेश । पूजो जानु नरेश ||२||
दोनों गोंड़ों का पूजन ||
जानुं बलेका-उस्सग्ग रह्या, खड़ा खड़ा केवल लह्या,
लोकांतिक वचनें करी, करकान्डे प्रभू पूजना,
बरस्या वरसी दान । पूजो भवि बहुमांन ॥ ३ ॥ हाथों का पूजन
वीर्य अनन्त ।
खंघ महन्त ॥४॥
कन्धों का
सिद्ध शिला गुण ऊजली, लोंकांतिक भगवन्त । बसिया तिण कारण सही, सिद्ध शिखा पूजन्त ॥ ॥ शिखा का तीर्थकर पद पुण्य थी, त्रिभुवन जन सेवंत । त्रिभुवन तिलक समा प्रभू, भाल तिलक जयवंत ||८||
ललाट का
मांन गयुंदोय अंशथी, देखो भुजाबले भवजल तरया, पूजो
पूजन ॥
पूजन ।
पूजन । सोल पहर दई देशना, कंठ विवर वरतूल । मधुर धुनी सुरनर सुर्णे, तिमगले तिलक अमूल ||७|| कण्ठों का पूजन
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( २७ )
हृदय कमल उपशम वले, वाल्या रागने द्वेष । हेम दहे बन खण्ड ने, हृदय तिलक सन्तोष ॥ ६ ॥
हृदय का रत्नत्रय गुण ऊजली, सकल सुगुण विश्राम । नाभि कमलनी पूजना, करतां अविचल धाम ||५||
पूजन IM
नाभि का पूजन
नव तत्वना, तिम नव अंग जिणंद ।
उपदेशक पूजो बहुविधि भावथि, कहे सहु वीर मुणिंद ॥१०॥
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चैत्यवंदन विभाग (१) आदीजिन चैत्यवंदन
. ॥१॥ विमल-केवलज्ञान कमला कलित-त्रिभुवन-हितकरं ; सुरराज संस्तुत-चरणपंकज-नमो आदि जिनेश्वरं ॥१॥ विमल गिरिवर शृंगमंडण प्रवरगुणगण-भूघरं, सुर-असुर किन्नर-कोडीसेवित नमो आदि ॥२॥ करती नाटक किन्नरी गण गाय जिनगुण मनहरं, निर्जरावली नमे अहोनिश-नमो आदि ॥३॥ पुंडरीक-गणपति सिद्धिसाधी कोडी पण मुनि मनहरं; श्री विमल गिरिवर शृंग सिद्धा नमो आदि ॥४॥ निज साध्य साधक सुर मुनिवर, कोडिनंत ओ गिरिवरं ; मुक्ति रमणी वर्या रंगे नमो आदि ॥५॥ पाताल नर सुर लोकमांही, विमल 'गिरिवरतो, परं ; नहीं अधिक तीरथ तीर्थपति कहे-नमो आदि ॥६॥ अम विमल गिरिवर शिखर मंडण, दुःख विहंडण ध्याईये; निज शुद्ध सत्ता साधनार्थ, परम ज्योति निपाईये ॥७॥ जित-मोह-विछोहनिद्रा, परमपद स्थित जयकर, गिरिराज सेवा करणयत्पर पद्म'विजय सुहितकरं ॥८॥
॥२॥ आदिदेव अलवेसरू, विनितानो राय नामिराया कूल मंडणो, मरूदेवा भाय ॥१॥
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( २६ ) पांचशे धनुषनी देहडी, प्रभुजी परम दयाल । लाख चोराशी पुर्व- जस आयु विशाल ॥२॥ वृषभ लंछन जिन वृषधरूमे, उत्तम गुण मणिखाण तसपद पद्म सेवन थकी, लही अविचल ठाण ॥३॥
(२) श्री अजित जिन चैत्यवंदन अजितनाथ प्रभु अवतों, विनितानो स्वामी, जिलशत्रु विजया तणो, नंदन शिवगामी ।।१।। बोहोंतेर लाख पूरव तणुं, पाल्यु जेणे आय; गज लंछन लांछन नहि, प्रणमे सुरराय ॥२॥ साडा चारसें धनुषनीओ, जिनवर उत्तम देह; पादपद्मतस प्रणमिय, जेम लहीए शिवगेह ॥३॥
(३) श्री संभवनाथ जिन चैत्यवंदन सावत्थी नयरी धणी श्री संभवनाथ, जितारी नृय नंदनो चलवे शिव साथ ॥२॥ सेना नंदन, चंदने पूजोनव अंगे, चारसें धनुषy देहमान प्रणमो मनरंगे॥२॥ साठ लाख पुरव तणु ए जिनवर उत्तम आय, तुरंग लंछन पद पद्मने नमता शिवसुख थाय ॥३॥
(४) श्री अभिनंदन जिन चैत्यवंदन उचपणे त्रणसो पचास, धनुष प्रभु देह संवरराय सिद्धारथ सुतशु मुन नेह ॥१॥ लाख पचास पूर्व आयु, अयोध्यानो राणो सुवर्ण वर्ण विराजतो, कपि लंछन जाणो ॥२॥ अभिनंदन प्रभु विनति ए अंतर्यामी देव विनय विजय उवज्झायनो, रूप नमे नित्यमेव ॥३॥
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( ३० ) (५) श्री सुमतिनाथ जिन चैत्यवंदन .. सुमति जयन्त विमानथी, रहया अयोध्या ठाम, राक्षस गण 'पंचम प्रभु, सिंहराशि गुणधाम ॥१॥ मधा नक्षत्रे जनमिया मूषक योनि जगदीश मोहराय संग्राममां, वरस गया छन्वीश ॥२॥ जोत्यो प्रियंगु तरु तलेए, सहस मुनि परिवार अविनाशी पदवी वर्या, वीर नमे सो वार ॥३॥
(६) श्री पद्मप्रभु जिन चैत्यवंदन कोसंबी पुरी राजीयो, घर नरपति ताय; पद्मप्रभु प्रभुता मई सुसीमा जस माय ॥१॥ त्रीश लाख पूरब तणु जिन आयु पाली धनुष अढीसें देहडी, सवि कर्मने टाली॥२॥ पद्म लंछन परमेसरुंए जिनपदपद्मनी सेवः पद्मविजय कहे कीजीए भविजन सहु नित्यमेव ॥३॥
(७) श्री सुपार्श्वनाथ जिन चैत्य वंदन श्री सुपास जिणंद पास, टाव्यो भव फेरो, पृथ्वी माता उरे जयो, ते नाथ हमेरो ॥१॥ प्रतिष्ठित सुत सुंदरु, (नयरी) वणारसी राया वीश लाख पूरव तणुं प्रभुजी- आय ॥२॥ धनुष बसें जिन देहड़ी ए, स्वस्तिक लंछन सार, पद पद्म जस राजतो, तार तार भवतार ॥ ३ ॥
(८) श्री चन्द्रप्रभ जिन चैत्यवंदन लक्ष्मणा माता जनमीयो, महसेन जस ताय, उडुयति लंछन दोपतो, चंद्रपुरीनो राय ॥ १॥ दश लाख पूरव आवखं, दोढसो
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'धनुष नी देह, सुर नरपति सेवा करे, घरता अति ससमेह ॥ २ ॥
चंदप्रभ जिन आठमा ए उत्तम पद दातार; पविजय कहे प्रण'मिये, भुज प्रभु पार उतार ॥३॥
(8) श्री सुविधिनाथ जिन चैत्यवंदन सुविधिनाथ नवमा नमुं, सुग्रीव जस तात, मगर लंछन चरणे नमुं, रामा रुडी मात ॥१॥ आयु बे लाख पूरव तणु, शत धनुषनी काय; काकंदी नयरी धणी प्रणमु प्रभु-पाय ॥२॥ उत्तम विधि जेहथी लह्यो ए, तिणे सुविधि जिन नाम; नमतां तसपद पद्मने, लहिये शाश्वत धाम ॥ ३ ॥
(१०) श्री शीतलनाथ जिन चैत्यवंदन नंदा दढरथ नंदनो, शीतल शीतलनाथ, राजा भद्धिलपुर तणो, चलवे शिव साथ ॥ १ ॥ लाख पूरवर्नु आवखं, नेवं धनुष प्रमाण; काया माया टालीने, लह्या पंचम नाण ॥२॥ श्रीवत्स लंछन सुंदरु ए पद पद्म रहे जास; ते जिननी सेवा थकी लहिये लील विलास ॥ ३॥
(११) श्री श्रेयांसनाथ जिन चैत्यवंदन श्री, श्रेयांस अगियारमा विष्णु नृप ताय; विष्णु माता जेहनी, अंसी धनुषनी काय ॥ १ ॥ वर्ष चोराशी लाखनुं पालयु जेणे आय; खड़गी लंछन पद कजे सिंहपुरी नो राय ॥२॥ राज्य तजी दीक्षा वरी ए, जिनवर उत्तम ज्ञान; पाम्या तस पद पद्म ने, नमतां अविचल थान ॥३॥
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( ३२ ) (१२) श्री वासुपूज्य, जिन चैत्यवंदन वासव वंदित वासुपूज्य, चंपापुरी ठाम; बसुपूज्य फुल चंद्रमा माता जया नाम ॥१॥ महिष लंछन जिन बारमा, सित्तेर धनुष प्रमाण, काया आयु वरस वली, बोहोंतेर लाख वखाण ॥ २ ॥ संघ चतुर्विध स्थापीने से, जिन उत्तम महाराय; तस मुख पद्म वचनः सुणी, परमानंदी थाय ॥ ३॥
(१३) श्री विमलनाथ जिन चैत्यबंदन कंपिलपुर विमल-प्रभु, श्यामा मात मल्हार; कृतवर्मा नृप कुलनभे, उगमियो दिनकार ॥ १ ॥ लंछन राजे वराहनु, साठ धनुषनी काय, साठ लाख वरसांतj, आयु सुख दाय ॥२ ।। विमल विमल पोते थया ए, सेवक विमल करेह; तुज पद पद्म विमल प्रति, सेवं घरी ससनेह ॥३॥
(१४) अनन्तनाथ जिन चैत्यबंदन अनंत अनंत गुण आगरु, अयोध्यावासी; सिंहसेन नृप नंदनो, थयो पाप निकासो ॥१॥ सुजसा माता जनमीयो, त्रीस लाख उदार, वरस आवखुं पालीयुं, जिनवर जयकार ॥२॥ लंछन सिंचाणा तणुं ए, काया धनुष पचास; जिनपद पद्म नभ्या थकी,. लहिये सहज विलास ॥६॥
(१५) श्री, धर्मनाथ अिन चेत्ययेदन भानुनंदन धर्म नाथ, सुवृता भली माल; वज्र लछन वज्री नमे; त्रण भुवन विख्यात ॥१॥ दश लाख वरसनुं अवखुं, वपु धनुष
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( ३३ ) पिस्तालीस; रत्न पुरानो राजियो, जगमां जास जगीस ॥ २॥ धर्म मारग जिनवर कहे ए, उत्तम जन आधार, तिणे तुज पाद पद्म तणी, सेवा करुं निरधार ॥ ३ ॥
(१६) श्री शांतिनाथ जिन चैत्यवंदन जय जय शांतिजिणंद देव हत्थिणाउर स्वामि, विश्वसेन कुलचन्द सम, प्रभु अंतरयामी ।। १ ॥ अचिरा उर सर हंसलो, जिनवर जयकारी, मारी रोग निवारके कीर्ति जग विस्तारी ॥ २॥ सोलमा जिनवर प्रणमीये ए, नित्य उठी नामी शिश, सुरनर भूप प्रसन्न मन, नमतां वाधे जगीश ॥ ३॥
(१७) श्री कुंथुनाथ जिन चैत्यवंदन कुंथुनाथ कामित दीये, गजपुरनो राय, सिरिमाता उरे अवतर्यो शुर नरपतिताय ॥१॥ काया पांत्रीश धनुषनी, लंछन जसछाग केवलज्ञाना दिक गुणा, प्रणमो घरी राग ॥२॥ सहस पंचाणु वरसनुं ए, पाली उत्तम आय, पद्म बिजय कहे प्रणमिए मावे श्री जिनराय ॥ ३॥
(१८) श्री अरनाथ जिन चैत्यवंदन राय सुदर्शन गजपुरे, देवी पटराणी; लंछन नंदावर्त जास, अरजिन गुणखाणी ॥१॥ त्रीस धनुष वर देहडी, हेमवण जाणी; वर्ष चोराशी सहस्त्र आयु; कहे जिनवर वाणी ॥२॥ चक्रवर्ती प्रभु सातमो ए अढारमो मुज देव; रूप कहे भविजन तुमे करो नित्य • नित्य सेव ॥३॥
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( ३४ )
(११) श्री मल्लिनाथ जिन चैत्यवंदन
मल्लिनाथ ओगणीशमा जस मिथिला नयरी; प्रभावती जस मावडी, टाले कर्म वयरी ॥१॥ तात श्री कुंभ नरेसरु, धनुष पचवीशनी काय; लंछन कलश मंगल करू निर्गम निरमाय ॥२॥ वरस पंचावन सहसनुं ए जिनवर उत्तम आय; पद्म विजय कहे तेहने नमतां शिवसुख थाय ॥३॥
(२०) श्री मुनिसुव्रत जिन चैत्यवंदन
जपो निरंतर स्नेह, वीसमा जिनराय; सुमित्रराय पद्मावती सुतशुं मुज माय ||१|| कच्छप लंछन धनुष वीश, श्यामा वर्णी काया; त्रीश सहस्त्र वर ( स ) आवर्खु, हरिवंश दीपाया ||२|| मुनिसुव्रत महिमा निलो ए नगरी राजग्रही जास; रूपविजय कहे साहिबा नामे लील विलास ॥ ३॥
(२१) श्री नमिनाथ जिन चैत्यवंदन
मिथिला नगरी राजियो, वप्रा सुत साचो; विजयराय सुत छोडीने, अवरांमत माचो || १ || नीलकमल लंछन भलुं पन्नर धनुषनी देह; नमि जिनवरनुं सोहतुं गुण गण मणि गेह ॥२॥ दशहजार वरस तणु एपाल परगट आय; पद्मविजय कहे पुण्यथी, नमिये ते जिनराय ||३||
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(२२) श्री नेमिनाथ जिन चैत्यवंदन
नेमिनाथ बावीशमा, शिवादेवी माय; समुद्र विजय पृथ्वी पति जे प्रभुना ताय ॥ १॥ दश धनुषनी देहडी, आयु वरस हजार; शंख
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लंछनधर स्वामीजी, तजी राजुल नार ॥२॥ सौरीपुरी नयरी भली ए, ब्रह्मचारी भगवान, जिन उत्तम पद पद्मने नमतां अविचल थान ॥३॥
(२३) श्री पार्श्वनाथ जिन चैत्यवंदन आश पूरे प्रभु पासजी, तोड़े भव पास, वामा माता जनमीयो अहि लंछन जास ॥ १ ॥ अश्वसेन सुत सुखकरु, नव हाथनी काया, काशी देश वाण.रसी, पुण्ये प्रभु आया॥२।। एकसो वरसनु आउखु ए, पाली पासकुमार, पद्म कहे मुगते गया, नमतां सुख निरधार ॥ ३॥
॥२॥ सकल भविजन चमतकारी, भारी महिमा जेहनो, निखिल आतम रमा राजित, नाम जपीए तेहनो, दुष्ट कर्माष्टक गंजरी जे भविकजन मन सुख करो; नित्य जाप जपीये पाप खपीए स्वामी नाम शंखेश्वरो ॥१॥ बहु पुण्यराशी देश काशी, तत्थ नयरी वणा रसो अश्वसेन राजा राणी वामा, रूपे रति तनु सारीसी, तस कुखे सुपन चौद सूचित, स्वर्ग थी प्रभु अवतर्यों ॥ नित्य ॥ २ ॥ पोष मासे कृष्ण पक्षे, दशमी दिन प्रभु जनमीया, सुरकुमरी सुरपति भकित भावे मेरू शुगे स्नायोया प्रभाते पृथ्वी-पति प्रमोदे जन्म महोत्सव अतिकर्यों ॥ नित्य ।। ३ ॥ त्रण लोक तरूणी मन प्रमोदो, तरूण वय जब आवोआ, तब मात ताते प्रसन्न चित्ते, भामिनी परिणावीआ कमठ शठ कृत अग्निकुंडे, नाग बलतो उद्धर्यों नित्य० ॥ ४॥ पोष वदि एकादशी दिने, प्रवज्या जिन आदरे सुर असुर राजी भक्ति ताजी,
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३६ )
सेवना झाझी करे, काउस्सग करता देखी कमठे, कीष परीषह आकरो॥ नित्य० ॥ ५॥ तव ध्यानधारारूढ जिनपति, मेहाधारे नवि चल्यो, तिहां चलित आसन धरण आयो, कमठ परीषह अट कलयो; देवाधिदेवनी करे सेवा, कमठ ने काढी परो। नित्य० ॥ ६ ॥ क्रमे पामी केवलज्ञान कमला, संघ चउविह स्थापीने, प्रभु गया मोक्षे सम्मेतशिखरे, मास अणसण पालीने, शिव रमणी रंगे रमे रसियो, भविक तस सेवा करो ॥ नित्य० ॥ ६॥ भूतप्रेत पिशाच व्यंतर, जलण जलोदर भय टले, राज राणी रमा पामे, भकित मावे जो मले; कल्पतरुपी अधिक दाता, जगत त्राता जय करो ॥ नित्य० ॥ ८ ॥ जरा जर्जरी भुत यादव सैन्य रोग निवारता वढीयार देशे नित्य बिराजे भविक जीवने तारता, ए प्रभु तणां पद पद्म सेवा, रूप कहे प्रभुता वरो॥ नित्य० ॥६॥
(२४) श्री महावीर स्वामी जिन चैत्यबंदन सिद्धारथ सुतवंदीये, त्रिशलानो जायो; क्षत्रिय-कुँडमां अवतर्यो, सुर नर पति गायो॥१॥ मृगपति लंछन पाउले सात हाथनी काया, बोतेरवरसनु आवखु, वीर जिनेश्वर राय ॥२॥ क्षमा विजय जिनराजना ए, उत्तम गुण अवदात, सात बोलथी वर्णव्या, पद्मविजय विख्यात
बीज का चैत्यवंदन दुविध बंधन ने टालीए जे वली रागने ध्वेष आर्त रौद्र दोय अशुभ ध्यान, नविकरो लवलेश ॥१॥
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( ३७ ) बीजदिन ने वली बोधि बीज, चित्त ठाणे वावो जेम दुःख दुर्गति नविलहो, जगमा जश वावो ॥२॥ भावो रूडी भावनाए, बोधो शुभ गुण ठाण ज्ञान विमल तय जेहथी, होय कोडी कल्याण ॥२॥
ज्ञान पंचमी का चैत्यवंदन श्यामलवान सोहामणा, श्री नेभि जिनेश्वर, समवसरण बेठा कहे, उपदेश सोहंकर ॥१॥ पंचमी तप आराधतां, लहे पंचम नाण, पांच वरस पंच मासनो, एछे तप परिमाण ॥२॥ जिम वरदत्त गुण मंजरीए, आराध्यो तप एह, ज्ञान विमल गुरू एम कहे धन धन जगमां तेह ।।३।।
अष्टमी का चैत्यवंदन आठ गुण जिनवर तणी नित्य कीजे सेवा व्हाला मुज मन अतिधणी जिम गज मन रेवा ॥१॥ प्राति हारज आठशु ठकुराई छाजे आठ मंगल आगले जेहने वली राजे ॥२॥ भांजे भय आठ मोटकाए आठकर्म करे दुर आठम दिन आराधतां ज्ञान विमल भरपूर, ॥३॥
एकादशी का चैत्यवंदन । अंग अंगीयार आराधीये एकादशी दीपसे एकादश प्रतिमा वहो समकित्त गुण विकसे ॥१॥
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( ३८ ) एकादशी दीवसे थया, दीक्षा ने नाण जन्म सला केइ जिनवरा आगम परमाण ॥२॥ ज्ञान विमल गुण वाधता ए सकल कला भंडार भगीयारश आराधतां लहीए भवजल पार ॥३॥
श्री सिद्धचक्र का चैत्यवंदन श्री सिद्धचक्र आराधीये आसो चैतर मास नवदिन नव आंबिल करी कीजे ओली खास ॥१॥ केसर चन्दन घसी धणा कस्तुरी बरास जुगते जिनवर पुजीया मयणा ने श्रीपाल ॥२॥ पूजा अप्ट प्रकारनी देववंदन त्रण काल मंत्र जपो त्रण कालने गुणणु तेर हजार ।।३।। काष्ट टाल्यु उबरं तणु जपतां नवपद ध्यान श्री श्रीयाल नरि थया वाध्यो बमणो वान ॥४॥ सातसो कोढी सुख लह्या याम्या निज आवास पुण्ये मुक्ति वधुवर्या पाम्या लील विलास ॥५॥
__ श्री सीमंधर स्वामी चत्यवंदन श्री सीमंधर वीतराग त्रिभूवन तुमे उपगारी श्री श्रेयांस पिताकुले बहु शोभा तुमारी ॥१॥ धन्य धन्य माता सत्य की जेणे जायो जयकारी वृष्भ लंछन विराजमान वंदे नरनारी ॥२॥ धनुष पांचशे देहडीए सोहीए सोवन वान कोति विजय उवज्झायनो विनय धरे तुम ध्यान
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श्री साधारण जीन चैत्यवंदन तुज मुरतिने निरखवा, मुज नयणां तरसे तुज गुण गण ने बोलवा, रसना मुज हरसे ॥१॥ काया अति आनन्द मुज, तुम युग पद करसे तो सेवक तार्यो विना, कहो किम हवे सरसे ॥२॥ एम जाणी ने साहिबाए, नेक नजर मोहे जोय; ज्ञान विमल प्रभु सुनजरथी, तेशुं जे नवि होय ॥३॥
श्री सिद्धाचलजी का चैत्यवंदन श्री शत्रुजय सिद्धक्षेत्र, सिद्धाचल साचो, आदीश्वर जिनरायनो, जिहां महिमा जाचो ॥१॥ ईहां अनंत गुणवंत साधु, पाम्या, शिववास; एह गिरि सेवाथी आधिक, होय लील विलास ॥ २॥ दुष्कृत सवि दूरे हरे ए, बहु भव संचित जेह; सकल तीरथ शिर सेहरो, दान नमे घरी नेह ॥ ३ ॥
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स्तवन विभाग
(१) आदिजीन स्तवन
भरतजी कहे सुणो मावड़ी, प्रगटयां नव निधान रे; नित नित देतां ओलंभड़ा, हवे जुओ पुत्रना मान रे, ऋषभनी शोभा हुशी कहु ? ॥१॥ अढार कोडाकोड सागरे, वसीयो नयर अनुप रे; चार जोयणनु मान छे, चालो जोवाने चुप रे ।। ऋषभ० ॥२॥ पहेलो रुपानो कोट छ, कांगरा कंचन वान रे, बीजो कनकनो कोट छे; कांगरा रत्न समान रे ॥ ऋषभ• ॥ ३॥ श्रीजो रतननो कोट छे, कांगरा मणिमय जाण रे, तेमां मध्य सिंहासने, हुकम करे प्रमाण रे ॥ऋषभ, ॥४॥ पूरव दिशानी संख्या सुणो, पगथियां वीश हजार रे, एणी परे गणतां चारे दिशा, पगथियां अॅसी हजार रे ॥ ऋषभ० ॥ ५॥ शिरपर त्रण छत्र जलहले तेहथी त्रिभुवन राय रे, त्रण भुवननो रे बादशाह, केवलज्ञान सोहाय रे ॥ ऋषम० ॥ ६ ॥ वीश बत्रीश दश सुरपति, वली दोय चंद्र ने सूर्य रे, दोय कर जोड़ी उभा खड़ा तुम सुत ऋषम हजूर रे ॥ ऋषम ॥ ७ ॥ चामर जोड़ी चौ दिश छे, भामंडल झलकंत रे, गाजे गगने रे दुंदुभि, फूल पगरव संतरे ॥ ऋषम० ॥ ८॥ बार गुणो प्रभू देह थी, अशोक वृक्ष श्रीकार रे; मेव समाणी दे देशना, अमृतवाणी जयकार रे ॥ ऋषभ
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(
४१
)
॥६॥ प्रातिहारज आठथी, तुम सुत दीये देदार रे चालो जोवाने मावड़ी, गयवर खंधे असवार रे ॥ ऋषभ•॥१०॥ दूरथी रे वार्जा सांभली, जोतां हरख न माय रे, हरखनां आंसुथी फाटीयां, पडल ते दूर पलाय रे ॥ ऋषम० ॥ ११ ॥ गयवर खघेथी देखीयो, निरुपम पुत्र देदार रे, आदर दीपो नहि मायने, माय मन खेद आपार रे ॥ ऋषम० ॥ १२ ॥ केना छोरु ने मावड़ी, ए तो छ वीतरागरे, अणी पेरे भावना भावतां केवल पाम्यां महा भाग रे ॥ ऋषम० ॥ १३ ॥ गयवर खंधे मुगते गयां अंतगड केवली एह रे, वंदो पुत्र ने मावड़ी, आणी अधिक सनेह रे ॥ ऋषम० ॥ १४ ॥ ऋषमनी शोभा में वरणवी, समकितपुर मोझार रे, सिद्धगिरि माहात्म्य सांमलो, संधने जय जयकार रे ॥ ऋषम० ॥१५॥ संवत अढ़ार अॅसीये, मागसर मास कहाय रे, दीप विजय कवि रायने, मंगलमाल सोहाय रे ऋषम० ॥ १६ ॥
(२) . माता मरुदेवीना नंद देखी ताहरी मूरति मारु मन लोमाणुजो मारु दिल लोभापुंजी । देखी० ॥ करुणानागर करुणा सागर, काया कंच नवान, धोरी लंछन पाउले कांई, धनुष पांचसे मान ॥ माता. ॥ १॥ त्रिगडे बेसी धर्म कहता सुणे पर्षदा बार, जोजनगामिनी वाणी मीठी, वरसंती जलधार ॥ माता० ॥ २॥ उर्वशी रुडी अपच्छराने, रामा छे मन रंग, पाये नेपुर रणझणे कांई, करती नाटारंभ ॥ माता० ॥ ३ ॥ तुंही ब्रह्मा तुंही विधाता तुं जगतारणहार तुज सरीखो नही देव जगतमां, अडवडीया आधार |माता०॥४॥
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( ४२ ) तुही भ्राता तुंही त्राता तुंही जगतनो देव सुरनर किन्नर वासुदेवा करता तुज पद सेव ।। माता० ॥५।। श्री सिद्धाचल तीरथ केरो, राजा ऋषम जिणंद, कीर्ति करे माणेक मुनि ताहरी, टालो मवभय फंद माता० ॥६॥
(३) बालपणे आपण ससनेही, रमता नव नव वेसे; आज तमे पाम्या प्रभुताई, अमे तो संसार ने वेशे;
हो प्रभुजी ओलंभडे मत खीजो ।।१।। जो तुम ध्यातां शिव सुख लही; तो तुमने केई ध्यावे; पण भवस्थिति परिपाक थया विण कोई न मुक्ती जावे
हो प्रभुजो ओलंभडे मत खीजो ।।।। सिध्ध निवास लहे भवसिध्धी तेमां शो पाड़ तुमारो; तो उपगार तुम्हारो लही अभव्य सिध्ध ने तारो;
__ हो प्रभुजी ओलंभडे मत खीजो ॥३॥ ज्ञान रयण पामी अकांते थई बेठा मेवाशी तेह मांहेलो अक अंश जो आपो ते बाते शाबाशी.
हो प्रभुजी ओलंभडे मत खीजो ।।४। अक्षय पद देतां भविजनने, संकीर्णता नवि थाय;' शिवपद देवाजो समरथ छो तो जश लेतांशु जाय;
हो प्रभुजी ओलंभडे मत खीजो ।।५।। सेवा गुण रंज्यो भविजनने, जो तुमे करों वडभागी
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तो तमे स्वामी केम कहावो निरमम ने नीरागी
हो प्रभुजी ओलंभडे मत खीजो ॥६॥ नाभि नंदन जग वंदन प्यारो, जग गुरु जग जयकारी रूप विबुधनो मोहन पभणे, वृषभ लंछन बलिहारी;
हो प्रभुजी ओलंभडे मत खीजो ॥७॥
(४) आज ऋषभ घर आवे, देखो भाई ॥ आ० ॥
रूप मनोहर जगदानन्दन, सब ही के मन भावे ॥दे०१।। केई मुक्ता फल थाल विशाला, केई मणि माणक लावे ।।२।। हय गय रथ पायक वर कन्या, प्रभुजीकुं वेग वधावे ॥३॥ श्री श्रेयांस कुमार दानेश्वर, इक्षुरस बहरावे ॥४॥ उत्तम दान अधिक अमृत फल, साधु कीरती गुण गावे ।।५।।
(५) ___ तुमे तो भले बिराजोजी; सिद्धाचल के वासी साहिब ! भले बिराजोजी मरूदेवीनो नंदन रूडो, नाभिनरिंद मल्हार; जुगला धर्म निवारक आव्या, पूर्व नवाणुं वार ॥ तुमे तो० ॥१।। मूलनायकनी सन्मुख राजे, पुंडरीक गणधारः पंच क्रोडरों चैत्री पूनमे, वरीया शिववधू सार ॥ तुमे तो ॥२॥ सहस कोट दक्षिण बिराजे, जिन पर सहस चोवीश; चउदसें बावन गणधरनां, पगलां वाम जगीश ॥ तुम तो० ॥३॥ प्रभु पगलां रायण हेठे, पूजी परमानंद; अष्टापद चोवीस जीनेश्वर, सम्मेत वीस जिणंद ॥तुमे तो मेरू पर्वत चैत्य
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४४ )
घणेरा, चउमुख बिंब अनेक; बावन जिनालय देवल निरखी, हरश्व लहुँ अतिरेक ॥ तुमे तो० ॥५॥ सहस्त्रफणा ने शामला पासजी, समवसरण मंडाण छीपावसी ने खरतरवसी कांई, प्रेमवसी परमाण ॥ तुमे तो•॥६॥ संवत अढार ओगण पच्चासे, फागण अष्टमी दिन उज्ज्वल पक्षे उज्ज्वल हुओ कांई, गिरि करस्या मुज मन ॥ तुमे तो० ॥७॥ इत्यादिक जिन विंब निहालो, सांभली सिद्धनी श्रेण; उत्तम गिरिवर केणी पेरे विसरे, पविजय कहे जेण तुमे तो० ॥८॥
प्रथम जिनेश्वर प्रणमी, जास सुगंधी रे काय; कल्पवृक्ष परे तास इंद्राणी नयन जे, भृग परे लपटाय ॥१॥ रोग उरग तुअ नवि नडे, अमृत आस्वाद; तेहथी प्रतिहत तेह मानुं कोई नवि करे, जगमां तुमशुं रे वाद ॥२॥ बगर घोई तुज निरमली काया कंचनवान; नही प्रस्वेद लगार तारे तुं तेहने, जे धरे ताहरु ध्यान ॥३।। राग गयो तुज मन थकी तेहमां चित्र न कोय; रूधिर आमिषथी राग गयो तुज जन्म थी, दूध सहोदर होय ॥४॥ श्वासोश्वास कमल समो, तुज लोकोत्तर वात, देखे न आहार निहार चर्म चक्षु घणी, अहवा तुज अवदात ॥५॥ चार अतिशय मूलथी, ओगणीश देवना कीच, कर्म खप्या थी अग्यार चोत्रीश ईम अतिशया, समवायोगे प्रसिद्ध ॥६॥ जिन उत्तम गुण गावतां, गुण आवे निज अंग, पद्मविजय कहे अह -समय प्रभु पालजो, जेम थाउं अक्षय अभंग ॥ प्रथम ॥७॥
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( ४५ )
(७)
हाँ हाँ गुण गाऊँगा हाँ गुण गाऊँगा हाँ प्रभु रिषभ जिनंद का, मरूदेवी माता नामी के नंदन, जिनके पुत्र को शीश नमाऊँगा दीन बन्धु दीनदयाला, हरदम रटने में चित्त लगाऊंगा रात दिवस प्रभु के भजनों में दिल को खूब जमाऊंगा नेमचन्द प्रभु शरणे तिहारे, जिन नाम से प्रीत लगाऊंगा
(८)
आदि जिनंद मनाया मैंने रिषभ जिनंद मनाया सोने की भारी गंगा जल पानी
प्रभुजी को नहावन कराया ॥मैंने ॥१॥ केशर चंदन भरी रे कटोरी
प्रभुजी की पूजा रचाया ॥ मैंने ॥ २ ॥ धूप दीप में फूल सुगन्धि,
प्रभुजी की अंगीया रचाया। मैंने ॥शा पाँच वरण का पुष्प मंगावू,
जिनजी को हार पहनाया । मैंने ॥४॥ सेवक प्रभुजी के शरणे आया,
चरणों में शीश नमाया ॥ मैंने ॥५॥
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( ४६ )
(६ ) जगजीवन जगवाल हो, मरुदेवी नो नंद लाल रे मुख दीठे सुख उपजे, दरिशन अति ही आनंद लाल रे ॥१॥
आंखडी अंबुज पांखडी, अष्टमी शशी सम भाव लाल रे वदन शरद चंदलो, वाणी अति ही रसाल लाल रे ॥२॥ लक्षण अंगे विराजता, अडहिय सहस उदार लाल रे रेखाकर चरणा दिठे, अभ्यंतर नहि पार लाल रे ॥३।। ईन्द्र चंद्र रवि गिरि तणा, गुण लही घडीयुं अंग लाल रे भाग्य किंहा थकी आवीयुं, अचरिज अह उत्तंग लाल रे ॥४।। गुण सघला अंगी कर्या, दूर कर्या सविदोष लाल रे वाचक यश विजये थुण्यो देजो सुखनो पोष लाल रे ॥५॥
( १० ) दादा आदीश्वरजी, दूरथी आव्यो, दादा दरिशन दीयो; कोई आवे हाथी घोड़े, कोई आवे चडे पलाणे; कोई आवे पगपाले, दादा ने दरबार; हां हां दादा ने दरबार; दादा आदीश्वरजी दूरथी आव्यो, दादा दरिशन दीयो ॥१॥ शेठ आवे हाथी घोड़े, राजा आवे चडे पलाणे; हुँ आवं पगपाले, दादा ने दरबार, हां हां दादा ने दरबार, दादा आदीश्वरजी० ॥२॥ कोई मूके सोना रुपा, कोई मूके महोर, कोई मृके चपटी चोखा, दादाने दरबार हां हां दादा ने दरबार; दादा आदीश्वरजी० ॥३॥ शेठ मूके सोना रुपा, राजा मूके महोर हुँ मूकुं चपटी चोखा, दादाने दरबार, हां हां दादाने दरबार, दादा आदीश्वरजी० ॥४॥ कोई मांगे कंचनकाया, कोई
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[ ४७ ] मांगे आंख, कोई मांगे चरणनी सेवा, दादाने दरबार, हां हां दादा ने दरबार, दादा आदीश्वरजी० ॥५॥ पगपालो मांगे कंचन काया, आंधलो मांगे आंख, हुं मांगु चरणनी सेवा, दादाने दरबार, हां हां दादा ने दरबार; दादा आदीश्वरजी० ॥६॥ हीरविजय गुरु हीरलो ने, वीरविजय गुण गाय, शत्रुजयना दर्शन करतां, आनंद अपार, हां हां आनंद अपार, दादा आदीश्वरजी, दूरथी आव्यो दादा दरिशन दीयो ॥७॥
बालुडो निःस्नेही थइ गयो रे, छोडयुं विनीता- राज; (२) . संयम रमणी आराधवा, लेवा मुक्तिनुं राज (२)
मेरे दिल वसी गयो वाल हो ॥१॥
माताने मेल्यां अकलां रे, जाय दिन नवि राति (२) रत्न सिंहासन बेसवा, चाले अडवाणे पाय (२) मेरे० ॥२॥ वहालानुं नाम नवि विसरे रे, झरे आंसुडानी धार, (२) आंखलडी छाया वली, गया वरस हजार, (२) मेरे ॥३॥ केवल रत्न आपी करी रे, पूरी मातानी आश, (२) । समवसरण लीला जोइने, साध्या आतम काज; (२) मेरे० ॥४॥ भकित वत्सल भगवंत ने रे, नामे निर्मल काय; (२) आदि जिणंद आराधतां, महिमा शिवसुख थाय (२) मेरे ॥५॥
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[ ४८ ]
(१२) क्षेत्रुजा गढ ना वासी रे, मुजरो मानजो रे सेवक नी सुणी वातो रे, दिल मां घारजो रे प्रभु मैं दीठो तुम देदार, आज मुने उपन्यो हर्ष अपार, साहिबानी सेवा रे भव दुःख भांजसे रे ॥१॥ एक अरज अमारी रे, दिलमा घारजो रे, चौरासी लाख फेरा रे, दूर निवारजो रे, प्रभु मने दुर्गति पडतो राख, दरिशण व्हेलुं रे दाख ॥२॥ साहिबानी दोलत सवाई रे सोरठ देशनी रे,बलिहारी हुं जाऊं रे तारा वेशनी रे, प्रभु तारू रूडं दीळुरूप, मोह्या सुर नर वृन्द ने भूप ।।३।। साहिबानी तीरथ को नहीं रे शत्रुजय सारिखं रे, प्रवचन देखी रे कीधुं मैं पारखं रे ऋषभ ने जोई जोई हरखे जेह,त्रिभुवन लीला पामे तेह ॥४॥साहिबानी . भवोभव मागु रे प्रभु तारी सेवना रे,भावठ न मांगे रे जगमा ते बिना रे. प्रभु मारा पूरो मनना कोड,अम कहे उदय रतन कर जोड़॥५॥साहिबान'
(१२१) शांति समता शुद्ध तारी, आदि जिन मने आपजी काल जुनी विषमतानी, ग्रंथी मारी गालजो ज्ञान भानु ज्ञान करथी, मिथ्यातम मारु हरी ज्ञान दर्शन चरण सम्यक्, मुकित पंथे वालजो शांति०॥१॥ पांच इन्द्रियना विषयचं, विषम विष टाली करी पुद्गलानंदी पणानी, वासना प्रभु टालजो शांति०॥२॥
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[ ४६ ]
निज रुपने भूली करी, पररुपमां रमवा पणुं मारु निवारी नाथ, निजना रुपमां मने ढालजो || शांति० ॥३॥
सत्य संयम शील सद्गुण, आत्म धन मारु प्रभु
मोह तस्कर हरण करवा, आवताने खालजो ॥शांति० ॥४॥ आत्म ज्योति शुध्ध मारी, शाश्वती प्रगटाववा लीधुं तमारु शरण कस्तुर, विश्ववत्सल भालजी || शांति ०||५||
( १४ )
( तुम चिद्घन चंद आनन्द लाल, एदेशी )
तुम आदि जिनंद मारुदेवानंद । अब शरण लही प्रभु थारी || आंकणी ॥ प्रथम नरेश्वर प्रथम जिनेश्वर, प्रथम भये उपगारी मोरा० ||०||१|| लोक धरम मरजादाकारी । जुगलां धरम निवारी मोरा० ॥ २ ॥ संजमवारी वरस बिनआहारी । विचर्या ऊग्र विहारी ॥ मोरा० ॥ ३ ॥ परिषह कोजकुं वेग विहारी । ज्ञान खडग कर धारी ॥ मोरा० ॥ ० ॥ ४ ॥ शुद्ध उपयोगी अद्भुत जोगी । विषय वासना वारी ॥ मोरा ॥ तु० || ५|| अष्टापदपे आसन धारी । वरिया शिव नारी ॥ मोरा० ॥ ० ॥ ६ ॥ प्रभु की महिमा मुखसें कहिवा जिभडली गई हारी || मोरा ॥ तु० ॥ ७ ॥ बीकानेर में आदि जिनंद की मूरति मोहन गारी ॥ मोरा ॥ तु० ॥ ८ ॥ वीर विजय कहे प्रभुजी भेटी । दुरगति दुःख निवारी || मोरा ॥ तु० ॥ ६ ॥
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[ ५० ] . (२) श्री अजित जिन स्तवन
अजित जिणंदशु प्रीतडी मुज न गमे हो बीजानो संग के, मालती फूले मोहीयो, किम बेसे हो बावल तरु भृग के ॥ अजित ॥१॥ गंगा जलमा जे रम्या, किम छिललर हो रति पामे मराल के; सरोवर जलवर जल विना, नवि चाहे हो जेम चातक बाल के ॥ अजित ॥२॥ कोकिल कल कुजित करे, पामी मंजरी हो पंजरी सहकार के, आछां तरुवर नवि गमे, गिरआशुं हो होये गुणनो प्यार के ॥ अजितः ॥ ३ ॥ कमलिनी दिनकर कर ग्रहे वली कुमुदिनी हो घरे चदशु प्रोत के, गौरी गिरिश गिरिधर विना, नवि चाहे हो कमला निज चित्त के ॥ अजित० ॥ ४॥ तिम प्रभुशुं मुझ मन रम्यु, बीजाशुं हो नहि आवे दाय के, श्री नय विजय विबुध तणो, वाचक जस हो नित नित गुण गाय के ॥ अजित० ॥ ५॥
(२) प्रीतलडी बंधाणी रे अजित जिण दशु, प्रभु पाखे क्षण एक मने न सुहाय जो, ध्याननी ताली रे लागी नेहशुं जलद-घटा जिम शिवसुत-वाहन दाय जो ॥ प्रोतलडी० ॥१॥ नेह धेलं मन मारु रे प्रभु अलजे रहे, तन मन धन ओ कारणयी प्रभु मुझ जो, म्हारे तो आधार रे साहिब रावलो, अंतरगतनी प्रभु आगल कहुँ गुज्ज जो ॥ प्रीतलड़ी० ॥ २॥ साहेब ते साची रे जगमां जाणीए, सेवकनां जे सहेजे सुधारे काज जो; अहवे रे आचरणे केम करी रहुं,
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[ ५१ ] बिरुद तुमारूं तारण तरण जहाज जो ॥प्रोतलड़ी० ॥ ३॥ तारकता तुज माहे रे श्रवणे सांभली, ते भणी हुं आव्यो छुदीनदयाल जो, तुज करुणानी लहेरे रे मुज कारज सरे, शुंधणुं कहीए जाण आगल कृपाल जो ॥ प्रीतलड़ी० ॥ ४॥ करुणाधिक कीघी रे सेवक उपरे, भव-भय भावट भांगी भकित प्रसंग जो, मनवंछित फलीया रे जिन आलंबने, कर जोडीने मोहन कहे मन रंग जी ॥प्रीतलड़ी० ॥५॥
पंथडो निहालुं रे बीजा जिनतणो रे, अजित अजित गुण घाम; जे तें जीत्यारे तेणे हुँ जीतियोरे, पूरुष किश्युं मुज नाम ॥१॥ चरम नयण करी मारग जोवतारे, भूल्यो सचल संसार, जेणे नयणे करी मारग जोइए रे, नयन ते दिव्य विचार ॥ २ ॥ पुरुष परंपर अनुभव जोवतां रे, अंधो अंध पलाय, वस्तु विचारे रे जो आगमे करी रे, चरण घरण नहीं ठाय ॥ ३ ॥ तर्क विचारे रे वाद परंपरा रे, पार न पहुँचे कोय अभिमत वस्तु वस्तुगते कहे रे, ते विरला जग जोय ॥४॥ वस्तु विचारे रे दिव्य नयण तणो रे, विरह पडयो निरधार तरतम जोगे रे तरतम वासना रे, वासित बोध आधार ॥५॥ काल लब्धी लही पंथ निहालशु रे, आशा अवलंब, मे जन जीवे रे जिनजी जाणजो रे, आनंदघन मत अंब ॥ ६ ॥
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[ ५२ ] (३) श्री संभवजिन स्तवन
. ( १ ) साहिब सांभलो रे, संभव अरज अमारी; भवोभव हुँ भम्यो रे, न लही सेवा तमारी नरक निगोदमां रे, तिहां हुं बहु भव भमियो, तुम विना दुःख सह्या रे, अहोनिश क्रोघे धम धमियो ।साहिब०॥१॥ इंन्द्रियवश पडयो रे, पाल्यां व्रत नवि सूंसे, त्रस पण नवि गण्या रे, हणिया थावर हुसे। व्रत चित्त नवि धर्या रे, बीजुं साचुन बोल्यु, पापनी गोठड़ी रे, तिहां में हईडुखोल्युं । साहिब० ॥ २॥ चोरी में करी रे चउविह अदत्त न टाल्युं; श्री जिन आणशुं रे, में नहि संयम पाल्युं मधुकरतणी परे रे, शुद्ध न आहार गवेख्यो, रसना लालचे रे नीरस पिंड उवेख्यो । साहिब० ॥ ३ ॥ नरभव दोहिलो रे, पामी मोहवश पडियो, परस्त्री देखीने रे, मुज मन तिहां जई अडियो। काम न को सर्या रे, पापे पिंड में भरियो, शुद्ध बुद्ध नवि रहीरे तेणे नवि आतम तरीयो । साहिब० ॥ ४ ॥ लक्ष्मीनी लालचे रे, में बहु दीनता दाखी, तो पण नवि मली रे, मली तो नवि रही राखी। जे जन अभिलषे रे, ते तो तेहथी नासे तृण सम जे गणे रे तेहनी नित्य रहे पासे । साहिब० ॥ ५॥ धन्य धन्य ते नरा रे, अहेनो मोह विछोड़ी विषय निवारी ने रे, तेहने धर्म मां जोड़ी। अभक्ष्य ते में भाख्यां रे, रात्रि भोजन कीधां व्रत नवी पालीयां रे, जेहवा मुलथी लीघां । साहिब० ॥ ६ ॥ अनंत भव हुं भन्यो रे, भमतां साहिब मलोयो तुम विण कोण दीए रे ? बोधि
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[ ५३ ] रयण मुज बलियो! संभव आपजो रे, चरण कमल तुम सेवा नय अम विनवे रे, सुणजो देवाधिदेवा ॥ साहिब० ॥७॥
संभव जिनवर विनती, अवधारो गुणज्ञाता रे, स्वामी नहीं, भुज खिजमते, कदिये होशो फल दाता रे ॥संभव।।१॥ करजोड़ी उभो रहुं, रात दिवस तुम ध्याने रे, जो मनमां आणो नहि तो शु कहिए थाने रे ॥संभव॥२॥ खोट खजाने को नहि, दीजिये वंछित दानो रे, करुणा नजरे प्रभुजी तणी, वाधे सेवक वानो रे, ॥संभव।।३॥ काल लब्धि नहि मति गणो, भाव लब्धि तुम हाथे रे, लडथडतु पण गज बच्चु, गाजे गयवर साथे रे ॥संभव॥४॥ देशो तो तुमहि भला बीजा तो नविजाचुरे वाचक जस कहे साईशु, फलशे अभुज साचु रे ॥संभव॥५॥
. (३) संभव जिनराज सुखकंदा, अहो सर्वज्ञ जिनचंदा, हरी भरम जाल का फंदा, मीटे जरा मरण का दंदा ॥ संभव० ।।१॥ जो याचक आश ना पूरे, तो दाता बिरुद है दूरे, जो दायक भूलना जाणे, तो मांगन आश कुण आणे ? ॥ संभव ॥२॥ गुणवंत जान जो तारे, तो शिरपर नाथ कुण घारे, मुल गुणी कोन जगसारे, अनादि भरम को फारे ॥ संभव० ॥३॥ जो रोगी होत है तन में, तो वैद्य वो धारता मनमें; हुँ रोगी वैद्य तूं पूरो, करो सब रोग चकचूरो ॥ संभव० ॥ ४॥ ज्युपारस लोहता खंडे, कनक शुद्ध रुपकुमंडे.
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[ ५४ ]
हवे
तु जाने आदयी चेरी
असो जिनराज तू दाता, हवे क्युं ढील है ? त्राता ॥ संभव ॥५॥ जे जाचे देव है जेने, कहुं नाम ते केने, अवस्था जगत में मेरी ॥ संभव ॥ ६ ॥ कल्पतरु जानके रांच्चो, न निष्फल होत अब जायो, करो निज रूप सानीको नथाउ कीर जगफीको || संभव० ॥ ७ ॥ जो भक्ति नाथ की करता अक्षय भंडारकु भरता, आनंद मनमाहि अति भारो, निहारा दासकु तारो || संभव ॥ ८ ॥
(४) श्री अभिनन्दन जीन स्तवन
अभिनंदन जिन दरिसण तरसीये, दरिसण दुर्लभ देवः मतमत भेदे रे जो जई पूछीयें, सहुथापे अहमेव || अभि० ||१|| सामान्ये करी दरिसण दोहिल, निर्णय सकल विशेष
मदमां धेर्यो रे अंधो केमकरे, रविशशि रूप विलेख || अभिलाशा हेतु विवादे होचित घरी जोईये, अति दुर्गम नयवाद आगम वादे हो गुरुगम को नहीं ए सबलो विखवाद || अभि० || ३ || घाती डुंगर आडा अति घणा, तुज दरिसण जगनाथ घीठाई करी मारग संचरू, सेंगु कोई न साथ || अभि० ||४|| दरिसण दरिसण रटतो जो फिरूँ, तोरण रोझ समान जेहने पिपासा हो अमृत पाननी, किम भांजे विषपान || अभि० ||५|| तरस न आने हो मरण जीवनतणो सीके जो दरिसण काज
दरिसण दुर्लभ सुलभ कृयाथकी आनंद घन महाराज || अभि० || ६ ||
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[ ५५ ]
(२) तमे जोजो जोजो रे वाणीनो प्रकाश तमे जोजो उठे छे अखण्ड ध्वनि जोजने संभलाय, नर तिरि देवा आपणी, सहु भाषा समजी जाय, तमे० ॥१॥ द्रव्यादिक देखी करीने, नय निक्षेपे जुत्त; भंगतणी रचना घणी, कांई जाणे सहु अद्भुत, तमे० ॥२॥ पय क्षुधा ने इक्षु वाणी हारी जाये सर्व; पाखण्डी जन सांभलीने मूकी दिये गर्व, तमे० ॥३।। गुण पांत्रिश अलंकारी, अभिनन्दन जिन वाणी; शंसय छेदे मन तणा, प्रभु केवलज्ञाने जाणी, तमे ॥४॥ वाणी जे नर सांभले ते, जाणे द्रव्य ने भाव; निश्चय ने व्यवहार जाणे, जाणे निज परभाव, तमे ॥५॥ साध्य साधन भेद जाणे, ज्ञान ने आचार; हेय ज्ञेय ने उयादेय जाणे, तत्वातत्व विचार, तमे० ॥६॥ नरक स्वर्ग अपवर्ग जाणे, थिर व्यय ने उत्पाद; रागद्वेष अनुबंध जाणे, उत्सर्ग ने अपवाद, तमे ॥७॥ निज स्वरूपने ओलखीने, अवलंबे स्वरूप; चिदानंदधन आत्म ते, थाये जिन गुण भूप, तमे० ॥८॥ बाणी थी जिन उत्तम केरा, अवलंवे पद पद्म; नियमा ते परभाव तजीने पामे शिवपुर सट्म, तमे ॥६॥
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[ ५६ ] (५) श्री सुमतीनाथ जीन स्तवन
(१) सुमतीनाथ गुणशु मिलीजी वाधे मुज मन प्रीत तेल बिन्दु जिम विस्तरेजी, जलमांही भली रीत ॥ सोभागी जिनशुलाग्यो अविहड रंग ॥ ए ओकणी ॥ १ ॥ सज्जनशु जे प्रीतडीजी, छानी तेन रसाय, परिमल कस्तुरी तणोजी महीं मांही महाकाय ॥ सोमागी ॥ २॥ अंगुलिए नवि मेरु ढंकाए छाबडीए रवि तेज, अंजलिमां जिम गंग न माए मुज मनतिम प्रभु हेज ॥ सोभागी ॥ ३ ॥ हुओ छिपे नहि अवर अरूण जिम खातां पान सुरंग, पीवत भर भर प्रभु-गुण प्याला तिममुज प्रेम अमंग ॥ सोमागी० ॥ ४ ॥ ढांकी ईक्षु परालशुजी नरहे लही विस्तार, वाचक जस कहे प्रभु तणोजी, तिम मुज प्रेम प्रकार ॥ सोभागी० ॥५॥
सुमतीनाथजी अर्ज उचरु, तुम पसायथी पापने हरु शरण एक छे नाथ ताहरु जिनपति तने वंदना करु ॥१॥ नरक वेदना में लही घणो भव अन्नतमां जीवने हणी जन्म मरणनी वात शी करू, जिनपति तने वन्दना करू ॥ २॥ अन अपराधी ने दूख में दीवां कपट आचरी द्रव्यने लीधों तुम विना हवे पुन्य क्यां करु, जिनपति तने वंदना करू ॥ ३ ॥ अचल देवरे दर्शन आपजो, निबिड पाप नां योध कापजो परम देवरे ध्यान हुँ घरू, जिनपति तने वन्दना करु
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[१७ ]
(१) तारु ध्यान धरे मस्तान मने, मारु दिल चहे रहुं तुज कने .
सेर . संसारना जे मूल रुपे, तें कषायो केलव्या, दुःखना जे डुंगरो ते, पापथी में मेलव्या, हूँ रखडी रहयो छ भवरुप वने, तारु ध्यान ॥ १ ॥
सेर - मारा जेवा दुर्मागीने, तारा विना शरयूँ नहि जिनराजनुं ए राज छोड़ी कयां बीजे रहेQजई ? रोको कर्म प्रभु जे मने नित्य हगे तारु ध्यान ॥२॥
। सेर नारकी थई में कदी हा, घोर दुःखो छे सहयां बे अन्त दुःख निगोदना, प्रभु में वह लहयां, आपो राह जीवन सुखकार बने तारु ध्यान ॥ ३ ॥
सेर देवलोके दुःखीयो, दुःखी पशु जीवन बरी, मानव जीवन पण दुःखमां विण धर्म हा एले करी मने दीनने जोड़ो जिन धन धने घने तारु ध्यान ॥ ४ ॥
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[ ५८ ]
सेर नापो गति मुज पंचमी, पंचम प्रभु शीरताज छो, मातमकमल लब्धि विकासी, जहाज श्री जिनराज छो, नयी आशा बांधी में प्रभु अन्य जने तारु ध्यान ॥५॥
( नाथ केसे गजको बन्ध छुड़ायो-अदेशी) सुमति जिन तुम चरणे चित्तदीनो अतो जनम जनम दुःख छीनौ ।' सुमति० ॥ आंकणी ॥ कुमति कुटल संग दुर निवारी, सुमति सुगुन रस भीनो, सुमति नाम जिन मंत्र सुन्यो है मोह निंद भई खीनो, ॥ सुमति ॥ १॥ करम परर्जक बंक अति सिज्या मोह मूढता दोनो, निजगुण भूल रच्यो परगुण में, जनम मरण दुःख लीनो॥ सुमति ॥ २॥ अब तुम नाम प्रभंजन प्रगटयो, मोह अम्र छय कोनो मूढ अज्ञान - अवरति ए तों, मूल छीन भये तीनों ॥ सुमति ॥ ३॥ मन चंचल अति भ्रामक मेरो, तुम गण मकरंद पीनो, अबर देव अब दुर तजत है, सुमति गुपति चित्त दीनो ॥ गुमति० ॥ ४ ॥ मात तात तिरिया सुत भाई, तनधन तरूण नवीनो, ए सब मोह जालकी माया, इन संग भयो है मलीनो ॥सुमति० ॥५॥ दरसण ज्ञान चारित्र तिनों निज गुण धन हर लीनो, सुमति प्यारी भयी रखवारी, विषय इन्दीय भयी खीनो ॥ सुमति० ॥६॥ सुमतिसमता रस सागर, आगर ज्ञान भरीनो, आतम रुप सूमति संग प्रगटे, शम दम दान वरीनो ॥ सुमतिः ॥ ७॥
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[
५६ ]
(६) श्री पद्म प्रभु जीन स्तवन पद्म प्रभु प्राण से प्यारा, छोडावो कर्मनी धार करम फंद तोडवा घोरी प्रभुजी से अर्ज है मोरी ॥पद्म०॥१॥ लधुवय अक थें जीया, मुक्ति में वास तुम किया; न जानी पीर तें मोरी, प्रभु अब खेंच ले दोरी ॥पद्म ॥२॥ विषय सुख मानी मों मन में, गयो सब काल गफलत में, नरक दुःख वेदना भारी निकलवा ना रही बारी ॥पद्म०॥३॥ परवस दीनतां कीनी, पापकी पोट शिर लोनी, भक्ति नहीं जानी तुम केरी, रह्यो निशदिन दुःख घेरी ॥पद्म०॥४॥ ईस विध विनती तोरी करु में दोय कर जोडी, आतम आनंद भुज दीजो वीरचं काम सब काम कीजो ॥पद्म॥५॥
(२) हो अविनाशी, शिववासी, सुविलासी सुसीमानंदना, छो गुणराशी, तत्व प्रकाशी खासी मानो वंदना ! तुमे घर-नरपति ने कुले आया, तुमे सुसीमा-राणीनां जाया, छप्पन दिश कुमारी हुलराया ॥ हो अवि०॥१।। सोहम सुरपति प्रभु घर आवे, करी पंचरुप सुरगिरि लावे, तिहा चोसठ हरि भेला थावे ॥ हो अवि० ॥२॥ कोडि साठ लाख उपर भारी, जल भरीया कलसा मनोहारी; सुर नवरावे समकित धारी ॥ हो अवि० ॥३॥ थय थुई मंगल करी घर लावे, प्रमु ने जननी पासे ठावे; कोडी बत्रीस सोवन वरसावे ।। हो अवि ॥४॥ प्रभु देहडी दीपे नीलमणि गुण गावे श्रेणी इन्द्र तणी; प्रभु चिरंजीवो त्रिभुवन घणी ॥ हो अवि० ॥५॥ अढोसें धनुष उची काया, लही
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भोगवी राज्य रमा जाया; पछी संजम लही केवल पाया हो अवि० ॥६॥ तीरथ वरतावी जग मांहे, जन निस्तार्या पकड़ी बांहे; जे रमण करे निज गुण माहे ॥ हो अवि० ॥७॥ अम वेला मोन करी स्वामी; किम बैठा छो अंतरजामी; जगतारक बिरुद लगे खामी ॥ हो अविल ॥८॥ निजपाद पद्म सेवा दीजे, निज समवड सेवक ने कीजे; कहे रूपविजय मुजरो लीजे ॥ ही अवि० ॥६॥
(७) श्री सुपाचे जिन स्तवन
(१) . .
श्री सुपास जिन वदिये, सुख संपत्तिनो हेतु ललना; शांत सुधारस जलनिधि, भवसागर माहे सेतु ललना॥ श्री सुपास० ॥१॥ सात महाभय टालतो, सप्तम जिनपर देव-ललना; सावधान मनसा करी, धारो जिनपद सेव-ललना ॥श्री सुपास० ॥२॥ शिव शंकर जगदीश्वरु चिदानंद भगवान-ललना; जिन अरिहा तीर्थंकरु, ज्योतिस रुप असमान ललना ॥ श्री सुपास० ॥ ३ ॥ अलख निरंजन वच्छलु, सकल जंतु विश्राम-ललना; अभयदान दाता सदा, पुरण आतमराम-ललना ॥ श्री सुपास० ॥ ४ ॥ वीतराग मद कल्पना, रति अरति भय सोग-ललना, निद्रा तंद्रा दुरंदशा, रहित अबाधित योग-ललना ॥ श्री सुपास० ॥ ५॥ परम पुरुष परमातमा, परमेश्वर परधान-ललना; परम पदारथ परमेष्ठी, परमदेव परमाण-ललना
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[६१ ]
॥ श्री सुपास० ॥६॥ विधि विरंची विश्वंभरु, हृषीकेश जगनाव ललना, अघहर अघमोचन धणी, मुकित परम पद साथ ललना ॥ श्री सुपास० ॥ ७॥ एम अनेक अभिधा घरे, अनुभव गम्य विचार ललना; जे जाणे तेहने करे, आनन्दधन अवतार-चलना ॥ श्री सुपात ॥८॥
(२)
क्यूं न हो सुनाई स्वामी ऐसा गुन्हा क्या कीया मोरों की सुनाइ जावे मेरी बारी नहीं आवे तुम बिन कोन मेरा मुझे क्यूं भूला दीया ॥१॥ भकत जनों तार दिया तारने का काम कीया विन भक्ति वाला मोंपे पक्षपात क्यूं कीया ॥२॥ राय रंक एक जानो मेरा तेरा नहीं मानो तरन तारन ऐसा बिरुद धार क्यूं लीया ॥३॥ गुन्हा मेरा बक्ष दीजे मोंपे अति रहेम कीजे पक्काही भरोसा तेरा दोल में जमा लीया ॥ ४॥ तुही एक अन्तरजामी सुनो श्री सुपास स्वामी अबतो आशा पुरो मेरी कहेना सो तो कह दीया ॥ ५॥ शहेर अंबाले भेटी प्रभुजी का मुख देखी । मनुष्य जनम का लाहा लेना सो तो ले लीया ॥६॥ उन्निसो छासठ छबीला दिप माल दिन रंगीला कहे वीर विजव प्रभु भक्ति में जगा दिया।। ७ ।।
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[ ६२ ]
( अजित जिणंदशु प्रीतडी- अदेशी ) श्री सुपास जिन साहिबा, सुणो विनति हो प्रभु परम कृपाल के समकित सुखडी आपीये, दुःख कापिये हो जिन दयाल के
॥श्री सु०॥१॥ मौन घरी बैठा तुमे, नचिंता हो प्रभु थईने नाथ के; हूं तो आतुर अति उतावलो, मांगु छुहो जोड़ी दोय हाथ के
॥श्री सु० ॥२॥ सुगुणा साहिब तुम विना, कुण करशे हो सेवकनी सार के; आखर तुम हीज आपशो, तो शाने हो करो छो वार के
॥श्री सु० ॥ ३ ॥ मनमां विमासी शु रहया, अंश ओछु हो ते होय महाराज के; निरगुण ने गुण आपतां, ते वाते हो नहि प्रभु लाज के
॥श्री सु० ॥ ४ ॥ मोटा पासे मांगे सहु, कुण करशे हो खोटानी आस के दाताने देतां वधे धणु कृपणने हो होय तेहनो नाश के
॥श्री सु० ॥५॥ कृपा करी सामु जो जूओ, तो भांजे हो मुज कर्मनी जाल के उत्तर साधक उमा थकां, जिम विद्या हो सिद्ध होय तत्काल के
॥श्री सु० ॥ ६ ॥ जाण आगल कहेवु किश्यु, पण अरथी हो करे अरदास के; श्री खिमा विजय पय सेवतां, जस लहीये हो प्रभु नामे खास के
॥ श्री सु० ॥ ७ ॥
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[ ६३ ] (८) श्री चन्द्रप्रभु स्वामी का स्तवन
(१) चाह लगी जिन चन्द्रप्रभु की, मुज मन सुमति ज्यु आइरी भस्म मिथ्या मत दूर नश्यो है,जिन चरणां चित्त लाई मखीरी॥१॥ शम संवेग निरवेद लस्यो है, करुणारस सुखदाइरी, जैन बैन अति नीके सगरे, अ भावना मन भाई सखीरी ॥२॥ शंका कंखा फल प्रति संसा, कुगुरु संग छीटकाइरी, परसंसा धर्महीन पुरुष की, इण भवमांही न कोइ सखीरी ॥३॥ दुग्ध-सिंधु रस अमृत चाखी, स्याद्वाद सुखदाइरी, जहर पान अब कौन करत है, दुरन य पंथ नसाइ-सखीरी ॥४॥ जब लग पूरन तत्व न जाण्यो, तब लग कुगुरु भुलाइरी सप्तभंगी गर्भित तुम वाणी, भव्य जीव सुखदाइ सखीरी ॥५॥ नाम रसायण सहु जग भाखे, मर्म न जाणे कांइरी, जिन वाणी रस कनक करणको,मिथ्या लोह गमाई-सखीरी ॥६॥ चंद्र किरण जस उज्जवल तेरो, निर्मल ज्योत सवाइरी, जिन सेव्यो निज आतम रुपी,अवर न कोई सहाई-सखीरी ॥७॥
(२) जिनजी चन्द्रप्रभ अवधारो के, नाथ निहालजो रे लो, बमणी बिरुद गरीब निवाजके, वाचा पालजो रे लो ॥१॥ हरखे हुँ तुम शरणे आव्यो के, मुजने राखजो रे लो.. बोरटा चार चुगल जे भंडारेमामामसजो लोगोश
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[ ६४ ]
प्रभुजी पंच तणी परशंसा के; रुडी
मोहन महेर करीने दरिशन,
मुजने
थापजो रे लो;
आपजो रे लो ||३||
हवे मुने तारजो रे लो तेहने वारजो रे लो ||४||
तारक तुम पालव में झाल्यी के; कुतरी कुमति थई छे केडे के, सुन्दरी सुमति सोहागण सारी के; प्यारी छे घणी रे लो; तातजी ते विण जीवे चउद, भुवन कयुँ आंगणु रे लो ॥५॥
लखगुण लखमणा राणीना जाया के, मुजमन आवजो रे लो; अनुपम अनुभव अमृतं मीठो के, सुखडी लावजो रे लो || ६ || दीपती दोढसो धनुष प्रमाण के, प्रभुजीनी देहडी रे लो; देवनी दश पूरव लख मान के; आयुष्य वेलंडी रे लो ॥७॥ निर्गुण निरागी पण हुं रागी के मनमांहे रहयो रे लो; शुभगुरु सुमति विजय सुपसाय के रामे सुख लह्यो रे लो ॥८॥
( ३ )
चन्दा प्रभुजी से ध्यान रे, मोरी लागी लगनवा
लागी लगनवा छोडी न छुटे; जब लग घट में प्राण र े || मो० ॥ १ ॥ क्रोध मान माया लोभ छोड के; भजले श्री भगवान रे || मो० ॥२॥ दानशील तव भावना भावो; जैन धरम प्रतिपाल रे || मो० ॥३॥ ||मो० ||४||
हाथ जोड़ कर विनती करत है; वन्दत सेठ खुसाल र
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[
६५
]
(४) हारे मारे चंद्रक्दन जिन चन्द्रप्रभु जगनाथ जी, दीठो मीठो इठ्ठो जिनवर आठमो रे लो; हार मारे मनडानो मानीतो प्राण अधार जो, जग सुखदायक जंगम सुरशाखो समोरे लो !॥१॥ हार मारे शुभ आशय उदयाचल समक्ति सुर जो, विमल दशा पूरवदिशि उग्यो दीपतो रे लो; हारे मारे मैत्री मुदिता करुण ने माध्यस्थ जो, विनय विवेक सुलंछन कमल विकासतो रे लो ॥२॥ हारे मारे सद्हणा अनुमोदन परिमल पूर जो, पसर्यो मन मानस सर अनुभव वायरी रे लो; हारे मारे चेत्तन चकवा उपशम सरावर नीर जो; शुभ मति चकवी संगे रंगरमण करे रे लो ॥३॥ हारे मारे ज्ञान प्रकाशे नयण खुल्यां मुज दोय जो; जाणे रे षडूद्रव्य स्वभाव यथा पणे रे लो; हारे मारे जड चेतन भिन्न भिन्न नित्यानित्य जो; रूपी अरूपी आदि स्वरूप आपापणे रे लो ॥४॥ हरि मारे लखगुणदायक लखमणा राणी नंद जो; चरण सररुह सेवा मेवा सारखी रे लो, हारे मारे पंडित श्री गुरु क्षमाविजय सुपसाय जो; मुनि जिन जये जगमा जोता पारखो रे लो ।।५।।
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[ ६६ ]
जीयां रे चन्दा प्रभुजो की मूरति मोहनगारो, रे जयकारी महाराज चन्दा प्रभुजी की मूरती मोहनगारी रे ॥ जीया रे चन्द्रवदन प्रभु मुख की शोभा सारी रे ॥ जयकारी जीया रे समास भरिया नेत्र युगल की जोड़ो रे॥ जयकारी० जीया रे प्रभु पद लीनो, कामिनि को संग छोड़ी रे॥ जयकारी० जीया रे अब मैं प्रभुजी से अर्ज करू कर जोड़ी रे॥ जयकारी. जीया रे चचल चितडुकिण बिध राखू झाली रे ॥ जयकारी० जीया रे फिर फिर बधि पाप कर्म की क्यारी रे ॥ जयकारी. जीया रे नेक नजर करी नाथ निहारो धारी रे॥ जयकारी० जीया रे तुम चरणों की सेवा द्य मुझ प्यारी रे ॥ जयकारी० जीया रे जिम मुझ मन अंतर घट में आवे रे ॥ जयकारी० जीया रे आनन्द मंगल वीर विजय गुण गावे रे ॥ जयकारी० (६) सुविधि नाथ प्रभु का स्तवन
(१) में कीनो नहीं तुम बिन ओरशुं राग ।। में कीनो० ॥ दिन दिन वान वधे गुण तेरो, ज्यु कंचन परभाग, और न में है कषायकी कालीमा, सो क्युं सेवा लाग ॥
में कोनो ॥१॥ राजहंस तु मान-सरोवर, और अशुचो रुची काग; विषय भुजगम गरुडतु कहीए; और विषय विषनाग ।।
में कीनो ॥ २॥
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[ ६७ ] और देव जल छिल्लर सरीखे, तुं तो समुद्र अथाग, तु सुरतरू ज ग) ज वांछित पूरन, और तो सूके साग
में कीनो० ॥ ३ ॥ तुं पुरुषोत्तम तुंहि निरंजन, तुं शंकर बड भाग तुं ब्रह्मा तुं बुध्य महाबल, तुं ही ज त वीतराग ।।
में कीनो० ॥ ४॥ मुविधि नाथ तुम गुन फुलनको, मेरो दिल है बाग, जस कहे भ्रमर रसिक होई ताको, दीजे भकित पराग
-में कीनो० ॥ ५॥
(२) तोहरी अजब शो योगनी मुद्रा रे, लागे मुने मीठी रे, एतो टाले मोहनी निद्रा रे, प्रत्यक्ष दीठीरे ॥१॥ लोकोत्तरथी जोगनी मुद्रा वाला मारा, निरुपम आसन सोहे सरस रचित शुकलध्याननी धारे, सुरनरना मन मोहे, रे ॥२॥ त्रिगडे रतन सिंहासने बेसी, वालमारा चिहुंदिशि चामर ढलावे अरिहंत प्रभुतानो भोगी तो पण जोगी कहावे रे ॥३॥ अपृतझरणो मीठी तुज वाणी वाला मारा जेम आषाढो गाजे कान मारग थइ हियड़े पेसी, संदेह मनमां भांजे रे ।।४।। कोडिगमे ऊमा दरबारे वाला मारा जय मंगल सूर बोले, त्रण भुवननी रिद्ध तुज आगे, दीसे इम तृग तोले रे ॥ ५ ॥ भेद लहुँ नहि जोग जुगलिन वाला माण सुवधि जिण द बतावो; प्रेमशुकाति क हे करी करुणा; मुज मन मंदिर आवो रे ॥ ६ ॥
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[ ६८ ] (१०) श्री शीतलनाथ स्वामी का स्तवन :
शीतलजिन सहजानदी, थयो मोहनी कर्म निकंदी; परजायी बुद्धि निवारी, पारिणामिक भाव समारी ।। मनोहर मित्र अ प्रभु सेवो, दुनियामां देव न अवो ॥ मनो० ॥ १॥ वरकेवल-नाणं-विभासी, अज्ञान-तिमिर भर नासो; जथो लोकालोक प्रकासो, गुण पज्जवं वस्तु विलासी ।। मनो० ॥ २ ॥ अक्षयस्थिति अत्याबाघ, दानादिक लब्धि अगाध; जेह शाश्वत सुखनो स्वामी, जड इन्द्रिय भोग विरामी ॥ मनो ॥ ३ ॥ जेह देवनी देव कहावे, योगीश्वर जेहने ध्यावे; जस आण सुरतरु वेली, मुनि-हृदय आरामे फेलो ।। मनो० ॥ ४ ॥ जेहनी शीतलता संगे, सुख प्रगटे अंगोअंगे; क्रोधादिक ताप शमावे, जिन विजयानंद समावे ।। मनो० ।। ५ ।। (११) श्री श्रेयांसनाथ जिन स्तवन
(१) तुमे बहु मैत्री रे साहिबा, माहरे तो मन एक, तुम विण बीजो रे नवि गमे, ए मुजा मोटी रे टेक
श्री श्रेयांस कृपा करो ॥१॥ मन राखो तुमे सवि तणां, पण किहां अक मली जाओ; ललचावो लख लोकने; साथी सहज थाओ श्री श्रे० ॥ २ ॥ राग भरे जन मन रहो, पण तिहुँ काल वैराग; चित्त तुमारा रे समुद्रनो, कोइ न पामे रे ताग श्री श्रे० ॥ ३॥
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६६ ] अहवाशु चित मेलव्यु, केलव्यु पहेलां न कांइ; सेवक निपट अबुझ छे, निरवहशो तुमे सांइ श्री श्रे॥ ४ ॥ निरागी शुरे किम मिले, पण मलवानो अकांत; वाचक जश कहे मुझ मिल्यो, भकते कामणं तंत श्री श्रे० ॥५॥
(२) श्री श्रेयांस जिन अंतरयामी, आतमरामी नामी रे, अध्यातम मत पूरण पामी, सहज मुगति गति गामी रे ॥ श्री श्रे० ॥१॥ सयल संसारी इन्द्रियरामी, मुनिगण आतमरामी रे; मुख्यपणे जे आतमरामी, ते केवल निकामी रे श्री श्रे० ॥ २ ॥ निज स्वउप जे किरिया साधे, तेह अध्यातम लाहीए रे, जे किरिया करी अउगति साघे, ते न अध्यातम कहीए रे ॥ श्री श्रे०॥ ४॥ नाम अध्यातम ठवण अध्यातम, द्रव्य अध्यातम छंडोरे, भाव अध्मातम निज गुण साचे तो तेह शुं रढ़ मंडो रे ।। श्री श्रे० ॥ ४॥ शब्द अध्यातम अरथ सुणो ने निर्विकस्प आदरजोरे, शब्द अध्यातम भजना जाणी, हान ग्रहण मति धरजोरे ॥ श्री श्रे० ॥ ५॥ अध्यातमी जे वस्तु विचारो, बोजा जाण लबासी रेवस्तु गते जे वस्तु प्रकाशे, आनंदघन मत वासी रे ॥ श्री श्रे० ॥६॥
(१२) श्री वासुपूज्य स्वामी का स्तवन
स्वामी तुमे कांइ कामण कीधु, चित्तहुँ अमारु चोरी लीधु; अमे पण तुमशुं कामण करशुं, भगते ग्रही मन घरमां घरशुं साहिबा वासुपूज्य जिणंदा, मोहना वासुपूज्य जिणंदा ॥१॥ मन घरमां
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[ ७० ] धरिया घर शोभा, देखत नित्य रहेशो थिर शोभा; मन वैकुंठ अकुंठित भगते, योगी भाखे अनुभव युगतें साहिबा० ।।२।। कलेशे वासित मन संसार, क्लेश रहित मन ते भवपार; जो विशुद्ध मन घर तुमे आया; तो अमे नवनिधि ऋद्धि पाया साहिबा० ॥२॥ सात राज अलगा जइ बेठा, पण भगतें अम मनमांही पेठा अलगाने वलग्या जे रहेबु, ते भाणा खड़खड़ दुःख सहेवु, साहिबा० ॥ ४ ॥ ध्याता ध्येय ध्यान गुण अके, भेद छेद करशुं हवे टेके; खीर नीर परे तुमशुं मिलशुं वाचक जश कहे हेजे हलशुं साहिबा० ।। ५ ।।
(२) आवो (आवो ) भुज मन मंदिरे, समरावू समकित वास हो मुणिंद; पंचाचार बिछावणां, पचरंगी रचना तास हो- मुणिंद ॥आवो० ॥ १ ॥ सिज्जा मैत्री-भावन्त, गुण मुदिता सलाइ खास हो–मुर्णिद; उपशम उत्तर-छद बन्यो, तिहा करुणा कुसुम सुवास हो- मुणिंद; ॥ आवो० ॥२॥ थिरता आसन आपश्यु, तप तकिया निज गुण भोग हो मुणिंद; शुचिता केसर छांटणां, अनुभव तंबोल सुरंग हो-मुणिंद ।। आवो० ॥ ३ ।। खांति चामर विजशे, वली मृदुता ढोले वाय हो-मुणिंद; छत्र धरे ऋजुता सखी निर्लोभ ओलांससे पाय हो मुणिंद ॥ आवो० ॥ ४॥ सत्य सचिवने सोपश्यु, सेवा विवेक संयुत हो मुणिंद; आतम सत्ता शुद्ध चेतना, परणावु आज मुहूर्त हो मुर्णिद ।। आवो० ॥५॥ अरज सुणीने आवीया, जयानंदन निरुपम देह हो मुणिंद; ओच्छव जंग वधामणां थयां क्षमाविजय जिन गेह हो-मुणिंद । आवो० ॥ ६ ॥
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।
७१ ]
वासुपूज्य जिन वंदीये, भाव धरी भगवंत रे
जिनपति जसधारी, दीठो देव दयाल ते, नयणां हेजे हसतं रे; जिन ॥ १।। हरिहर जेणे वश कयाँ, इंद्रादिक असदास रे; जिन ते मन्मथनो मद हों, तें प्रभु कीधो उदास रे; जिन ॥२॥ मयण मयण परे गालीयो, ध्यान अनल बल देख रे, जिनक कामिनी कोमल वयणशं, चुक्यो नहि राइ रेख रे; जिन० ॥३॥ नाण दरिसण चरण तणो, जे भंडार जयवंत रे; जिन आप तरी पर ताखा, तु अविचल बलवंत रे; जिन० ॥४॥ मन मेरो तुम पाखली, रसीयो फरे दिन रात रे; जिन० सरस मेघने वरसवे रे, नाचे मोर विख्यात रे जिन ॥५॥
वासुपूज्य विलासी, चंपाना वासी, पूरो अमारी आश; करु पूजा हुं खासी, केशर घासी, पुष्प सुवासी, पूरो अमारी आश; चैत्यवंदन करु चित्तथी प्रभुजी, गाउँ गीत रसाल; ओम पूजा करी विनंती करू छु, आपो मोक्ष विलास दीयो कर्मने फांसी, कठो कुवासी, जेम जाय नासी,
पूरो अमारी आश आ संसार धीर महोदधिथी; काढो अमने बहार स्वारथना सहु कोइ सगा छे, माता पिता परिवार बाल मित्र उलासी, विजय विलासी, अरजी खासी, पूरो
अमारी आश
है, माता
जी खासी, परी आश
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[ ७२ ]
पूजना तो कीजे रे बारमा जिनतणी रे, जस प्रगट्यो पूज्य स्वभाव; परकृत पूजा रे जे इच्छे नहि रे, साधक कार्य दाय ॥ पू० ॥ १ ॥ द्रप्यथी पूजा रे कारण भावनो रे, भाव प्रशस्त ने शुद्धः परम इष्ट वललभ त्रिभुवन धणी रे, वासुपूज्य स्वयं बुद्ध ॥ पू० ॥ २ ॥ अतिशय महिमा रे अतिशय उपगारता रे, निरमल प्रभु गुण रागः सुरमणि सुरघट सुरतरु तु छते रे, जिन रागी महाभागः ॥ पू० ॥३॥ दर्शन ज्ञानादिक गुण आतमा रे, प्रभु प्रभुता लयलीन; शुद्ध स्वरूपी रूपे तन्मयी रे, तसु आस्वादन दीन ॥ पू० ॥ ४ ॥ शुद्ध तत्व रसरंगी चेतना रे, पामे आत्म स्वभाव; आत्मालंबी निजगुण साधतो रे, पामे पूज्य स्वभाव ॥ पू० ॥ ५ ॥ आ अकर्ता सेवाथी हुये रे, सेवक पूरण सिद्ध, जिन धन न दीये पण आमित लहे रे, अक्षय अक्षर रिद्धि ॥पू० ॥६॥ जिनवर पूजा ते निज पूजना रे, प्रगट अन्वय शक्ति; परमानंद विलासी अनुभवे रे, देवचंद्र पद त्यकित ॥ पू० ॥ ७ ॥
(१३) श्री विमलनाथ स्वामी स्तवन ( राग-मल्हार, इडर आंबा आंबली रे-ए देशी )
दुःख दोहग दूरे टल्यां रे, सुख संपद° भेट; धींग धणी माथे कियो रे, कुण गंजे नर खेट । विमल जिन ! दीठां लोयण आज, भारां सिध्यां वंछित काज । विमल० ॥१॥ चरण कमल कमला वसेरे, निर्मल थिर-पद देख; समल अथिर-पद परिहरि रे, पंकज पामर
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[ ७३ ]
पेख ॥ विमल• ॥२॥ मुज मन तुज पद पंकजे रे, लीनो गुण मकरंद, रंक गणे मंदर-धारा रे, इन्द्र चंद नागिंद ॥ विमल० ॥३॥ साहिब ! समरथ तुं धणो रे, पाम्यो परम उदार; मन विसरामी वालहो रे, आतमचो आधार ।। विमल० ॥४॥ दरिसण दीठे जिन तणुं रे संशय न रहे वेध; दिनकर करभर प्रसरंतां रे, अंधकार प्रतिषेध ॥ विमल० ॥५॥ अमीय भरी मूर्ति रची रे, उपमा न घटे कोय; शांत सुधारस झीलती रे, निरखत तृप्ति न होय ॥ विमल० ॥६॥ अक अरज सेवक तणी रे, अवधारो जिन देव ! कृपा करी मुज दीजीये रे, आनन्दधन पद सेव । विमल० ॥७॥
॥२॥ सेवो भवियां ! विमल जिनेसर, दुल्लाहा सज्जन संगा जी; अहवा प्रभु नुं दरिसण लेवू, ते आलस मांही गंगाजी, सेवो० ॥१॥ अवसर पामी जे आलस करशे, ते मुरखमां पहेलो जी; भुख्याने जेम घेबर देत्तां, हाथ न मांडे घहेलो जी, सेवो० ॥२ भव अनंतमां दरिसण दी, प्रभु अहवा देखाडे जी; विकट ग्रंथि जे पोल पोलियों, कर्म विवर उघाडेजी, सेवो० ॥३॥ तत्व प्रीतिकर पाणी पाये, विमलालोके आंजी जी, लोयणगुरु परमान्न दीये तव, भ्रम नाखे सवि भांजी जी, सेवो०।।४।। भ्रम भाग्यो तव प्रभुशुं प्रेमे, वात कर मन खोली जी; सरलतणे जे हैडे आवे, तेह जणावे बोली जी, सेवो० ॥५॥ श्री नय विजय विबुध पय सेवक, वाचक जश कहे साचुं जी; कोडी कपट जो कोइ दिखावे, तोही प्रभु विण नवि राचुंजी, सेवो०॥६॥
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[
७४ ]
(१४) श्री अनंतनाथ स्वामी जिन स्तवन
(श्री ऋषभ जिणंद शुं प्रीतडी-एदेशी) अनंत जिनंद | प्रीतडी, नीकी लागी हो अमृत रस जेम; अवर सरागी देवनी, विष सरीखी हो सेवा करू केम ? ॥ अ० ॥१॥ जिन पद्मिनी मन पिउ वसे, निरधनीया हो मन धनकी प्रीत; मधुकर केतकी मन वसे, जिम साजन हो विरहीजन चित ॥ अ० ॥ २ ॥ करषणी मेध आषाढ ज्यु, निज वाछड हो सुरभि जिम प्रेम; साहिब अनंत-जिणंद शु, मुज लागी हो भक्ति मन तेम ॥अ० ॥३॥ प्रीति अनादिनी दुःख भरी, में कीधी हो पर पुद्गल संग; जगत भम्यो तिण प्रीतशु, स्वांग धारी हो नाच्यो नव नव रंग ॥अ० ॥४॥ जिसको अपना जानीया, तिने दिना हो छीन में अति छेह; परज्न केरी प्रीतडी, में देखी हो अंते निःसनेह ॥अ० ॥५॥ मेरा कोई न जगत में, तुम छोड़ी हो जिनवर जगदीश प्रीत करू अब कोन शु, तुं त्राता हो मोहे विसवावीस ॥ अ० ॥६॥ आतमराम तु माहरो सिरसेहरो हो हियडानो हार दीन दयाल. कृपा करो, मुज वेगे हो अब पार उतार ॥अ० ॥७॥
॥२॥ धार तलवारनी सोहिली, दोहिली चउदमा जिनतणी चरण सेवा। धार पर नाचता देख बाजीगरा, सेवनाधार पर रहे न देवा ॥धार॥१॥ अक कहे सेवीये विविध किरिया करी, फल अनेकांत लोचन न देखे, फल अनेकांत किरिया करी बापडा, रडवडे चार गतिमांहि लेखे
। धार० ॥२॥
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[ ७५ ]
गच्छना भेद बहु नयण निहालतां, तत्वनी वात करतां न लाजे; उदर भरणादि निज काज करतां थकां मोह नडीया कलिकाल राजे; ॥ धार० ॥ ३ ॥ वचन निरपेक्ष व्यवहार जूठो कह्यो, वचन सापेक्ष व्यवहार साचो; वचन निरपेक्ष व्यवहार संसार कल, सांभली आदरी कांइ राचो ॥ धार० ॥ ४ ॥
देव गुरु धर्मनी शुद्धि कहो किम रहे, किम रहे शुद्ध श्रद्धा न आणो; शुद्ध श्रद्धान विण सर्व किरिया कही, छार परे लींपणुं तेह जाणो,
॥ धार० ॥ ५ ॥
पाप वहीं कोई उत्सुत्र भाषण, जिस्युं, धर्म नहि कोई जग सूत्र सरिखो; सूत्र अनुपार जे भविक किरिया करे, तेहनु शुद्ध चारित्र परखो;
।। धार० ॥ ६ ॥ अह उपदेश नो सार संक्षेप थी, जे नरा चित्त में नित्य ध्यावे, ते नरा दिव्य बहु काल सुख अनुभवी नियत आनंदधन राजपावे
।। धार० ।। ७॥
(१५) धर्मनाथ जिन स्तवन ( १ )
धर्मजीनेश्वर गाउ रंगशुं, भंग म पडशो हो प्रीत जिनेश्वर; बीजो मन-मंदिर आणुं नहीं, अ अम कुलवट रीत जिनेश्वर || १|| धरम घरम करतो जग सहुफिरे, धरम न जाणे हो मर्म जिनेश्वर; धरम जिनेश्वर चरण ग्रह्या पछी, कोई न बाँधे हो कर्म जिनेश्वर
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[ ७६ 1 ॥२॥ प्रवचन अंजन जो सद्गुरु करे, देखे परम निधान जिनेश्वरः हृदय नयण निहाले जगधणी, महिमा मेरु समान जिनेश्वर ॥३॥ दोडत दोडत दोडत दोडीयो, ती मननी रे दोड जिनेश्वर प्रेम प्रेतीत बिचारो ढुंकडी, गुरुगम लेजो रे जोड जिनेश्वर ॥४॥ अक पखी केम प्रीति परवडे, उभय मिल्या होय संधि जिनेश्वर हुँ रागी हुँ मोहे फंदियो, तुं निरागी निरबंध जिनेश्वर ॥५॥ परम निधान प्रगट मुख आगले, जगत उल्लंघी हो जाय जिनेश्वर ज्योति विना जुओ जगदीशनी, अंघो अंध पलाय जिनेश्वर ॥६॥ निरमल गुणमणि रोहण भूधरा, मुनिजन मानसहंस जिनेश्वर; धन्य ते नगरी धन्य वेला घडी, माता पिता कुल वंस जिनेश्वर ॥७॥ मन मधुकर वर कर जोडी कहे, पदकज निकट निवास जिनेश्वर; घननामी आनंदधन सांभलो मे सेवक अरदास जिनेश्वर ॥८॥
हारे मारे धर्म जिणंदशु लागी पूरण प्रीतजो,
जीवडलो ललचाणो जिनजीणो ओलगे रे लो; हारे मुने थाशे कोइक समे प्रभु सुप्रसन्न जो,
वातलडी माहरी रे सवि थाशे पगे रे लो॥१॥ हारे कोई दुरजननो भंभेर्यो माहरो नाथ जो,
ओलवशे नहीं क्यारे कीधी चाकरी रे लो; हारे यारा स्वामी सरीखो कुण छे दुनिया मांही जो,
जइए रे जिम जेहने घर आशा करी रेलो ।। २ ॥
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का२
[ ७७ ] . हारे जस सेवासेंती स्वारथ नी नहि सिद्धि जो,
ठाली रे शी करवी तेहथी गोठडी रे लो। हारे कांई जूठं खाय ते मीठाई ने माटे जो,
काई रे परमारथ विण नहीं प्रोतडी रे लो ॥३॥ हारे प्रभु अंतरजामी जीवन प्राण आधार जो,
वायो रे नवि जाण्यो कलियुग वायरे रे लो; हारे मारे लायक नायक भगतबत्सल भगवान जो,
वारु रे गुण केरो साहिब-सायरु रे लो ॥४॥ हारे प्रभु लागी मुजने ताहरी माया जोर जो,
अगला रे रहयाथी होय ओसिंगलो रे लो; हारे कुण जाणे अंतरगतनी विण महाराज जो,
हेजे रे हसी बोलो छांडी आमलो रे लो ॥५॥ हारे ताहरे मुखने मटके अटक्यु माहरु मन्न जो,
आंखलडी अणीयाली कामणगारडी रे लो; हारे मारां नयणां लंपट जोवे खिण खिण तुज जो, ।
रातां रे प्रभु रुपे न रहे वारीयां रे लो ॥६॥ हारे प्रभु अलगा तो रूण जाणजो करीने हजूर जो,
कहरी रे बलिहारी हुँ जाउ वारणे रे लो; हारे कवि रुप विबुबना मोहन करे अरदास जो;
गिरुआथी मन आणी उलट अति घणे रे लो॥७॥
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[ ७८
]
(३) थाशुं प्रेम बन्यो छे राज, निरवहेशो तो लेखे; में रागी थें छो निरानी अणजुगते होय हांसी; एक पखो जे नेह निर्वहेवो, तेहमां की शाबासी; थाशु० ॥१॥ नीरागी सेवे काई होवे, ईम मनमां नवि आणुं, फले अचेतन मण जिम सुरमणि, तिम तुम भक्ति प्रमाणुं, थाशु० ॥२॥ चंदन शीतलता उपजावे, अग्नि ते शीत मिटावे; सेवकनां तिम दुःख गमावे, प्रभु गुण प्रेम स्वभावे, थाशुं० ॥३॥ व्यसन उदय जे जलधि अनुहरे, शशीने तेह संबंधे; अणसबंधे कुमुद अनुहरे, शुद्ध स्वभाव प्रबंधे; थाशुं० ॥४॥ देव अनेरा तुमथी छोटा, थें जगमां अधिकेरा; यश कहे धर्म जिनेश्वर थांशुं, दिल मान्या हे मेरा थांशं० ॥५॥
(१६) श्री शांतिनाथ स्वामी जिन स्तवन
- (१) शांति जिनेश्वर साचो साहिब, शांति करण इन कुल में, हो जिनजी; तुं मेरा मन में तुं मेरा दिल में, ध्यान धरु पल पल मेंसाहेब जी तुं मेरा० ॥१॥ भवमां भमतां में दरिशन पायो, आशा पूरो अक पल में हो जिनजी ॥तुं मेरा० ॥२॥ निरमल ज्योत वदन पर सोहे, निकस्यो ज्युं चंद बादल में हो जिनजी ॥तुं मेरा ॥३॥ मेरो मन तुम साथे लीनो, मोन वसे ज्युं जलमें-हो जिनजी तुं मेरा ॥४॥ जिनरंग कहे प्रभु शांति जिनेश्वर, दीठोजी देव सकल में-हो जिनजी॥तुं मेरा० ॥५॥
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[
७६
]
म्हारो मुजरो ल्योने राज, साहिब शांति सलूणा;
अचिराजीना नंदन तोरे, दर्शन हेते आव्यो; समकित रोझ करोने स्वामी, भकती भेटणुं लाव्यो ॥ म्हारो० ॥१॥ दुःख भंजन छे बिरुद तमारु, अमने आशा तुमारी; तुमे निरागी थइने छूटो, शी गति होशे अमारी ॥म्हारो० ॥२॥ कहेशे लोक न ताणी कहेवु, अवईं स्वामी आगे; पण बालक जो बोली न जाणे, तो केम व्हालो लागे ॥म्हारो० ॥३॥ म्हारे तो तुं समरथ साहिब, तो किम ओछं मानु, चिंतामणि जेणे गांठे बांध्यु, तेहने काम किश्यानुं ॥म्हारो०॥४॥ अध्य तम रवि उग्यो मुज घट; मोह तिमिर हयुं जुगते; विमल विजय वाचकनो सेवक, राम कहे शुभ भगते ॥म्हारो०॥५॥
(३) सुण दयानिधि ! तुज पद पंकज मुज मन मधुकर लीनो, तु तो रात दिवस रहे सुख भीनो ।सुण०॥१॥ प्रमु अचिरामातानो जायो, विश्वसेन उत्तम कुल आयो; एक भवमां दोय पदवी पायो ।सुण. ॥१॥ प्रभु चक्री जिनपदनो भोगी, शांति नाम थकी थाय निरोगी; तुज सम अवर नहीं दूजो योगी ॥सुण०॥२॥ षट खंडतणो प्रभु तुं त्यागी, निज आतम ऋद्धि तणो रागी; तुज सम अवर नहीं वैरागी ॥सुण०॥३॥ वडवीर थया संजमधारी, लहे केवल दुग कमला; सारी; तुज सम अवर नहीं उपकारी ॥सुण०॥४॥ प्रभु मेघरथ भव गुण खाणी, पारेवा उपर करुणा आणी; निज शरणे राख्यो सुख खाणी सुण०॥५॥ प्रभु कर्म कटक भव भय टाली, निज आतम गणने
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[ ८० ] अजुवाली; प्रभु पाम्या शिववधू लटकाली ॥सुण०॥६॥ साहेब अंक मुजरो मानी जे, निज सेवक उत्तम पद दीजे; रूप कीर्ति करे तुज जिवविजे ॥सुण॥७॥
(४) हम मगन भये प्रभु ध्यान में, बिसर गइ दुविधा तन मनकी, अचिरासुत गुन गान में हम०॥१॥ हरिहर ब्रह्म पुरंदर की ऋद्धि आवत नहि कोउ मान में; चिदानंद की मोज मची है, समता-रसके पान में हम०॥२॥ इतने दिन तूं नाहि पिछान्यो, मेरो जनम गयो सो अजान में अब तो अधिकारी होई बैठे, प्रभु गुन अखय खजान में
हम०॥३॥ गई दीनता सबही हमारी, प्रभु ! तुज समकित दान में; प्रभु गुन अनुभव रस के आगे, आवत नहि कोउ मान में हम ॥४॥ जिनही पाया तिनही छीपाया न कहे कोउके कान में; ताली लागी जब अनुभव की तब जाने कोऊ सान में ॥हम०॥५॥ प्रभु गुन अनुभव चंद्रहास ज्यों, सो तो न रहे म्यान में; वाचक जस कहे मोह महा अरि, जीत लीयो मेदान में हम०॥६॥
शांति जिनेश्वर साहिबारे, शांति तणा दातार; अंतरजामी छो माहरा रे, आतमना आधार ॥शांति ॥१॥ चित्त चाहे प्रभु चाकरी रे, मन चाहे मलवाने काज, नयन चाहे प्रभु नीरखवां रे, घो दरिसण महाराज ॥२॥ पलक न बिसरो मन थकी रे, जेम मोरा मन मेह; एक पखो केम राखीए रे, राज कपटनो नेह ॥३॥
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[ ८१ ]
वाधे
नेह नजरे निहालतां रे, बमणो वान अखूट खजानो प्रभु ताहरो रे, दीजीए वांछित दान ॥४॥ आश करे जे कोई आपणी रे, नवि मूकीए निराश; सेवक जाणीने आपणो रे, दीजीए तास विलास ॥५॥ दायकने देतां थकां रे क्षण नवि लागे वार; काज सरे निज दासनां रे, ए म्होटो उपकार ||६|| एवँ जाणीने जगधणी रे, दिल मांही घरजो प्यार; रुपविजय कविरायनो रे, मोहन जय जयकार ॥७॥
( ६ )
श्री शान्तिनाथ महाराज अरज सुन मेरी
तुम रखो हमारी लाज शरण गत तोरी। श्री शान्तिनाथ० दरसण कि लग रहि आश कच्छु न सुहावे
दिन रेन पड़त नहि चैन नीन्द नहिं आवे । श्री शान्तिनाथ
एक पाटणपुर, श्री जग मे नाम कहबावे,
श्री शान्तिनाथजी को ध्यान, अमर पद पावे । श्री शान्तिनाथ • गावे,
एक गौरीलाल, लख चौरासी मे फेर,
कबहू नहिं आवे । श्री शान्तिनाथ •
७ )
चंपालाल गुण सुत
शांति तेरे लोचन
हे
अनियारे
कमल ज्युं सुन्दर मीन ज्यु ं चंचल मधुकर थी अतिकारे ॥ १ ॥ जाकी मनोहरता जित वनमें कीरते हरिन - बिचारे ॥२॥
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..[ ८२ ] चतुर चकोर पराभव निरखत बहु रे चूनत अंगारे ।।३।। उपशम रसके अजब कटोरे मानुविरंची संभारे ॥४॥ कितिविजय वाचक को विनयी कहे मुज को अति प्यारे ॥५॥
(८) माएं खोयुं में प्रभु सघलुं प्रमादमा पाछु ते केम मेलवाय रे, शान्ति जिन मार्ग बतावजो ॥१॥ ज्ञान खोयुं ने वली दर्शनपण खोयु
चारित्र केम मेलवाय रे ॥शांति जिन० ॥२॥ सुखना उपायो मने साचा नथी सुझता
___ सुखीया ते केम थवाय रे ॥शांति जिन० ॥३॥ आपी अशांति चाहुं शांति मेलववा
ते केवी रीते पमाय रे ॥शांति जिन० ॥४॥ आनंद माटे कहो, मारे शुं करवं,
आनंदघन जिनराय रे॥शांति जिन० ॥५॥ आत्म उचोतं माटे इच्छा घणी छे ___ कस्तुर कहे केम थाय रे ॥शांति जिन० ॥६॥
(६) सोमेश्वर स्वामी अंतरयामी, तारजो दीन दयाल । विश्वसेन घर विश्वपति रे अचिरा माता उदार । शांति करी सब देश में मृगी मरी निवार हो । सो० ।। लख वर्ष की आयु पुरी, मृग लंछन साधीर । स्पच्चस धनुष की देह दीपे, सोवन वर्ण शरीर हो ।। सोः ।
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[ ८३ ] क्षायक ज्ञान दर्शन धनी रे, चरण वीर्य के मुप। ... द्रव्य गुण पर्याय स्वभुक्ता, ज्ञायक मकल स्वरूप हो। सो० ॥ काल अंनत पुद्गल अनन्ता, परिवर्तन संसार । स्थिरता शांति नहीं मिली रे, शांति प्रभु अवतार हो । सो०॥ हूँ गरजी अरजी करूं प्रभु, तू है दीन दयाल । सुन्दरज्ञान दो 'ज्ञान' कोरे करुणा सिन्धु कृपाल हो ॥ सो० ॥
(१७) श्री कुंथुजिन स्तवन ...
(१) मनहुँ किम ही न बाजे, हो कुंथुजिन ! मनहूं किमही न बाजे जिम जिम जतन करीने राखं, तिम तिम अलगुं भाजे, हो ।कुं०॥१॥ रजनी वासर वस्ती उज्जड, गयण पायाले जाय; साप खाय ने मुखड़े थोथं, एह उखाणो न्याय; हो कुं० ॥२॥ मुगतितणा अभिलाषी तपिया, ज्ञान ने ध्यान वैरागे; वैरीडु कांइ एहवं चिंते, नांखे अवले पासे; हो कुं० ॥३॥ आगम आगम धरने हाथे, नावे किण विध आंकुं; किंहा कणे जो हठ करी हटकुं तो, व्यालतणी परे वाकु, हो कु० ॥४॥ जो ठग कहुं तो ठगतो न देखु, शाहुकार पण नाहीं; सर्व माहे न सहुथी अलगुं, ए अचरिज मनमांही, हो कुं० ॥५॥ जे जे कहुँ ते कान न घारे, आप मते रहे काली; सुर नर पडित जन समजावे, समजे न मारी साली हो कुं० ॥६॥
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[ ८४ ] में जाण्यं मे लिंग नपुंसक, सकल मरदने ठेले; बीजी वाते समरथ छे नर, अहने कोइ न जेले हो कुं० ॥७॥ मन साध्यं तेणे सघलू साध्यु, एह वात नहीं खोटी; अम कहे साध्यं ते नवि मार्नु, अकही वात छे मोटी, हो कुं० ॥८॥ मनडु दुरा राध्य तें वश आण्युं, ते आगमथी मति आणु; आनंदघन प्रभु माहरु आणो, तो साचु करो जाणु, हो कु० ॥६॥
____ (१८) श्री अरजिन स्तवन
श्री अरजिन भवजलनो तारु, मुज मन लागे वारु रे;
मनमोहन स्वामी बाह्य ग्रही जे भविजन तारे, आणी शिवपुर आरे रे, मन ॥१॥ तय जप मोह महा तोफाने, नाव न चाले माने रे; मन पण नवि भय मुज हाथोहाथे, तारे ते के साथे रे, मन ॥२॥ भकतने स्वर्ग स्वर्गथी अधिकु, ज्ञानीने फल देइर; मन० काया कष्ट विना फल लही, मनमा ध्यान घरेई रे; मन० ॥३॥ जे उपाय बहु विधनी रचना, योगमाया ते जाणो रे मन शुद्ध द्रव्य गुण पर्याय ध्याने, शिव दिये प्रभु सपराणो रे मन ॥४॥ प्रभु पद वलग्या ते रहया ताजा, अलगा अंग न साजा रे; मन वाचक जश कहे अवर न ध्याऊ, मे प्रभुना गुण गाऊ रे मन० ॥५॥
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[ ८५ ]
(२) अरनाथकुं सदा मेरी वंदना; जगनाथकु सदा मेरी वंदना जग उपगारी धन ज्यों वरसे; वाणी शीतल चंदना रे॥जग०॥१॥ रुपे रंभा राणी श्री देवी; भूप सूदर्शन नंदना रे ॥ जग० ॥२॥ भाव भगतिशुं अहनिशि सेवे दुरित हरे भवफंदना रे ॥जग० ॥ क्षा छ खंड साधी द्वधाकीधी; दुर्जय शत्रु निकंदना रे॥जग० ॥४॥ न्याय सागर प्रभु सेवा मेवा; मागे परमानंदना रे ॥जग० ॥५॥
(३)
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अमे तो गाश्यां गाश्यांजी मन रंगे जिनराज तणां गुण गाश्यां दिल रंगे अरनाथ तणां गुण गाश्यां गाश्यांजी प्रभु मुख पूरण चंद समोवड निरखी निरमल थाश्यां जिन गुण समरण पान सोपारी समकित सुखडी खाश्यां ॥१॥ सुमति सुदरी साथे सुरंगी गोठडी अजब बनाश्यां जेह धुतारी कुमती नारी तेहशुदिल ना मिलाश्यां ॥२॥ दुती तृष्णा माया केरी तेहने तो समजाश्यां लोभ ठगाराने दील चोरी वातडी ए भरमाश्यां ॥ ३ ॥ मोह महीपती जे महा वेरी तेहशुं जंग भूडाश्यां ज्ञान सरोखा योघ सखाई करीने दुर कढ़ाश्यां ॥४॥ शिव सुदरी वरवाने केते जित निशान बजाश्यां विमल विजय उवज्जाय पसाये राम कहे सुख पाश्यां ॥५॥
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[ ८६ ] (१६) श्री मल्लिनाथ जिन स्तवन
पंचम सुरलोकना वासी रे, नव लोकांतिक सुविलासी रे; करे विनति गुणनी राशि ॥ मल्लिजिन नाथजी व्रत लीजे रे, भवि-जीवने शिवसुख दीजे-मल्ली० ॥ १ ॥ तुमे करुणारस भंडार रे, पाम्या छो भवजल पार रे, सेवकनो करो उद्धार मल्लि ॥२॥ प्रभु दान सवत्सरी आपे रे, जगनां दारिद्र दुःख कापे रे, भव्यत्वपणे तस थापे
मल्लि• ॥३॥ सुरपति सधला मली आवे रे, मणि रयण सोवन वरसावे रे, प्रभु चरणे शीश नमावे ॥मल्लि० ॥४॥ तीर्थोदक कुंमा लावे रे, प्रभु ने सिंहासन ठावे रे, सुरपति भक्ते नवरावे ॥ मल्लिक ॥५॥ वस्त्राभरणे शणगारे रे, फूलमाला हृदय पर धारे रे, दुःखडां इन्द्राणी उवारे ॥मल्लि० ॥६॥ मल्या सुर नर कोडाकोडी र प्रभु आगे रह्या करजोडी रे; करे भक्ति युकित मद मोडी ।मल्लि. ॥७॥ मृगशिर सुदीनी अजुआली रे, अकादशी गुणनी आली रे; वर्या संयम वधू लटकाली ॥मल्लि०।८॥ दीक्षा कल्याणक अह रे, गातां दुःख न रहे रेह रे; लहे रुपविजय जस नेह ॥मल्लि० ।।९।।
(२) जिनराजा ताजा मल्लि बिराजे भोयणी गाममें; देश देशके जात्र आवे, पूजा सरस रचावे; मल्लिजिनेश्वर नाम सिमरके, मनवांछित फल पावेजी ।।जिन ॥१॥ चतुर वरणके नर नारी मिल, मंगल गीत करावे जय जयकार पंचध्वनि वाजे, शिर पर छत्र धरावेजी ॥जिन
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[ ८७ ] ॥२॥ हिसक जन हिंसा तजी पूजे, चरणे शीश नमावे; तू ब्रह्मा तू हरि शिव शंकर, अवर देव नवि भावेजी ॥जिन ॥ ३ ॥ करुणारस भरे नयन कचोले, अमृतरस वरसावे; वदन चंद चकोर ज्यु निरखी तन मन अति उलसावेजी ॥ जिन० ॥ ४ ॥ आतम राजा त्रिभुवन ताजा, चिदानंद मन भावे, मल्लि जिनेश्वर मनहर स्वामी, तेरा दरस सुहावेजी ॥ जिन० ॥ ५ ॥
(२०) श्री मुनिसुव्रत जिनस्तवन
मुनिसुव्रत कीजे मया रे, मनमांही धरी महेर; महेर विहूणा मानवी रेकठिण जणाये कहेर ॥जिनेश्वर ! तु जगनायक देव॥तुज जग हित करवा देव ॥ जिने ॥बीजा जुओ करता सेव। जिने ० ॥ २॥ अरहट्ट क्षेत्रनी भूमिका रे सिंचे कृतारथ होय; धाराधर सघली घरा रे, उद्धरवा सज्ज जोय ॥ जिने ० ॥ २॥ ते माटे अश्न उपरे रे आणी मनमा महेर; आपेआव्या आकणी रे, बोधवा भरु अच्छ शहरे ।।जिने०॥ ।। ३ ।। अण प्रारथता उद्धर्या रे, आपे करीय उपाय, प्रारथता रहे विलवता रे, ए कुण कहीए न्याय ? ॥ जिने ॥ ४ ॥ संबंध पण तुज मुज विचे रे, स्धाम सेवक भाव; मान कहे हवे महेरनो रे, न रह्यो अजर प्रस्ताव ।। जिने ॥५॥
(२) श्री मुनिसुव्रत स्वामी अन्तर्यामी तारो दीन दयाल । सुमित्र नृप के लाड़लेजी, पद्मा माता के नन्द, श्यामवर्ण सोहावनोरे थारो मुखड़ो आनन्न कन्द्र ।। मुनि० १॥
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[ ८८ ] राजगृही मां चार कल्याणक मुक्ति समेत गिरि जाय, शिव कमला पद तिहां लह्योजी, अनन्त सिघनो ठाम ॥मुनि०२॥ आगे भक्त घना हुआ रे, अब प्रभु मोहे तार, तारक नाम घरायो स्वामी, अफ्ना विरूद्ध सम्भाल ॥मुनि०३॥ काल अनंता भव भव भटक्यो अब मैं शरणे आये,
और देव को मैं नहीं ध्याऊ वीतराग मन भाये ॥ मुनि ० ४ ॥ कर जोड़ी मोती बल्लभ को अर्ज सुनो जिनराज, चैत्र कृष्ण शनियुत सातम, गायो प्रभु गुण ग्राम ।। मुनि ० ॥ विक्रम सम्वत् एक नवेनव उपरी त्रणको अंक, दृढ़ आशा है थारी, संकट देज्यो टाल ॥ मुनि ० ६ ॥
( ३ ) (दुःख दोहग दूरे टल्या रे ए देशी)
श्री मुनिव्रत साहिबा रे, तुज विण अवर को देव; न नरे दीठो नवि गमे रे, तो किम करिये सेव
जिनेसर ! भुजने तुज आधार नाम तुमार सांभरे रे, सासमांही सो वार जिनेसर ! ० ॥ २॥ नीरख्या सुर नजरे घणा रे, तेहशु न मिले तार; तारोतार मिल्या पखे रे, कहो किम वाधे प्यार जिनेसर!।।३।। अंतर मन मिलिया विना रे, न चढे प्रीति प्रमाण; पाया विण किम स्थिर रहे रे, मोटा घर मंडाण जिनेसर! ०॥३॥
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[ ८६ ] जोतां मूरति जेहनी रे, उल्लसे नजर न आय, तेहवाशुजे प्रीतडी रे, ते सामो संताय जिनेसर ! • ॥ ४॥ तिणे हरिहर सुर परिहरी रे, मन घरी ताहरी सेव; दानविजय तुम दरशने रे, हरतिल छे नित्यमेव जिनेसर ॥५॥ (२१) श्री नमिनाथ जिन स्तवन
(१) श्री नमिजिननी सेवा करतां,
अलिय विधन सवि दूरे नासे जी; अष्टमहासिध्वि नवनिधि लीला,
आवे बहु महमूर पामे जी ; श्री० ॥१॥ मयमत्ता अंगण गज गाजे,
___ राजे तेजी तुंखार ते चंगाजी बेटाबेटी बांधव जोडी,
लहीयें बहं अधिकार रंगा जी ; श्री० ॥२॥ वल्लभसंगम रंग लहीजे,
अण वहाला होये दूर सहेजे जी; वांछातणों विलंब न दूजो,
कारज सीझे भूरी सहेजे जी ; श्री० ॥ ३ ॥ चंद्र किरण यश उज्जवल उल्लसे,
सूर्य तुल्य प्रतापी दीपे जी; जे प्रभु भक्ति करे नित्य विनये,
ते अरियण बहु प्रतापी झीये जी ; श्री०॥४॥
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[ . ] मंमलमाला . . लच्छी विशाला,
बाला बहुले प्रेमे रंगे जी; श्री नयविजय विबुध पर सेवक,
कहे लहीए सुख प्रेम अंगेजी श्री० ॥ ५ ॥
(२) नमि जिनवर एकवीसमो हो राज, त्रिभुवन तारणहार ; वारी मोरा साहिबा; छ लाख वरसनु आंतरं हो राज, आतम छो आधार ॥ वारी० ॥१॥ आसो सुदि पुनमे चव्यां हो राज, जनम श्रावण वदि मास ।। वारी० ॥ आसो अतिशय चार स्यु हो राज, कनक वरण छबी जास । वारी० ॥२॥ पनर धनुष तनु ऊंचता हो राज, दीक्षा वदि आषाढ़ ॥ वारी० ।। नवमी पाय निवारणी हो राज, जास प्रतिज्ञा आ घाट ॥ वारी० ॥ ३ ॥ मागसर सुद एकादशी हो राज, पाम्या सम्यक् ज्ञान ।। वारी० ।। दश हजार वरस तणु हो राज ; आयनृ परमाण ॥ वारी० ॥ ४ ॥ वैशाख वदि दशमी दिने हो राज, जिनवर उत्तम सिध्ध ।। वारी० ॥ पद्म तस गुण गावतां हो राज मानवन फल लिध्ध ।। वारी० ।। ५ ।।
श्री नमिनाथ ने चरणे रमतां मनगमतां सुख लहीए रे भव जंगलमा भमतां रहीए कर्म निकाचित दहीए रे ॥ १॥ समकित शिवपुर मांहि पहोंचाडे समकित धरम आधार रे श्री जिनवरनी पूजा करीए, ए समकित नो सार रे॥२॥
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. [
६१ ]
जे समकित थी होय उपरांठा, तेना सुख जाय नाठां रे जे कहे जिन पूजा नवि कीजे, तेहनु नाम न लीजे रे ।। ३ ।। वप्राराणी नो सुत पूजो जिम संसारे न घूजो रे भवजल तारक कष्ट निवारक नहि कोई एहवो दूजो रे ॥४॥ श्री कितिविजय उवनायनो सेवक, विनय कहे प्रभु 'सेवो रे अण तत्व मनमांही अवधारी, वंदो अरिहंत देवो रे।। ५ ।।
मुज मन पंकज भमरले श्री नमि जिन जगदीशो रे ध्यान धरु नित्य तुम्ह तणु नाम जपु निशिदिशो रे ॥ १ ॥ चित्त थकी कदीये न विसरे देखिये आगले ध्याने रे अंतर जापथी जाणीये दुर रह्मां अनुमाने रे ॥२॥ तु गति तु मति आसरो तुहि ज बांधव मोटो रे वाचक जस कहे तुज विना अवर प्रपंच ते खोटो रे ॥ ३ ॥
(२३) श्री पार्श्वनाथ जिन स्तवन
अंतरजामी सुण अलवेसर, महिमा त्रिजग तुमारो; साँभलीने आव्यो हुं तीरे, जन्म मरण दुःख वारो; सेवक अरज करे छे राज । अमने शिवसुख आपो ॥१॥ सहुकोनां मन-वछित पूरो, चिंता सहुनी चूरो अहवु बिरुद छे राज ! तमारू, केम राखो छो दूरे ? ॥ सेवक० ॥२॥ सेवकने वलवलतो देखी, मनमां महेर न धरशो करुणासागर केम कहेवाशो ? जो उपकार न करशो ॥सेवक०॥३॥ लटपटनु हवे काम
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[
२ ]
नहि छे, पत्यक्ष दरिशन दीजे धुआडे वीजुनहि साहिब. पेट पडयां पतिजे ॥सेवक०॥४॥ श्री शंखेश्वर मंडन साहिब, विनतडी अवधारो, कहे जिन हर्ष मया करी मुजने, भवसायरथी तारो सेवक० ॥५॥
(२) रातां जेवां फूलडां ने, शामल जेवो रंग; आज तारी आंगीनो काइ रुडो बन्यो रंग, प्यारा पासजी हो लाल, दीनदयाल मुने नयणे 'निहाल ॥१॥ जोगीवाडे जागतो ने, मातो धिंगडमल्ल शामलो सोहामणो कांइ, जीत्या आठे मल्ल प्यारा० ॥२। तुछे मारो साहिबो ने, है छुतारो दास, आशा पूरो दासनी कांइ, सांभली अरदास प्यारा ॥३॥ देव सघला दीठा तेमां, अक तु अवल; लाखेणु छे लटकु ताहरु, देखी रीझे दिल्ल प्यारा० ॥॥ कोइ नमे पोरने ने कोइ नमे राम, उदयरत्न कहे प्रभु माहरे तुमशुकाम ॥५॥
(३) अब मोहे असी आय बनी, श्री शंखेश्वर पास जिनेसर मेरे तु एक धनी ।।अब०॥१॥ तुम बिन कोउ चित्त न सुहावे, आवे कोडी गुनी, मेरो मन तुज उपर रसियो, अलि जिम कमल भनी ॥अब० ॥२।। तुम नामे सवि संकट चूरे, नागराज घरनी; नाम जपुनिशि वासर तेरो, ए शुभ मुज करनी ॥अब० ॥३॥ कोपानल उपजावत दुर्जन, मथन वचन अरनो; नाम जपु जलधार तिहा तुज, धारु दुःख हरनी ॥अब० ॥४॥ मिथ्यामति बहु जन हे जगमें, पद न धरत धरनी; उनको अब तुज भक्ति प्रभावे, भय नहि अक कनी ॥अब० ॥५॥ सज्जननयन सुधारस-अंजन, दुरजन रवि भरनी, तुज मूरति निरखे सो पावे, सुख जस लील धनी ॥ अब० ॥ ६ ॥
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[ १३ ]
देखी श्री पार्वतणी मुरति अलबेलडी, उज्ज्वल भयो अवतार रे, मोक्षगामी भव थी उगार जो । सीवगामी भव थी उगार जो ॥ टेर ॥ मस्तके मुगट सोहे काने कुंडलिया, गले मोतीयन को हार रे ॥मोक्षा पगले-पगले तारा गुणों संभारा,नंतरना विसरे उपाट रे ॥२॥मोक्ष भापना दरिशने आत्मा जगाड़यो ज्ञान दीपक प्रगटाय रे ॥३॥ मोक्ष मात्मा अनंत प्रभु आपे उगारीया, तारो चंदु ने भव पार रे॥४॥मोक्ष
महो ! अहो ! पासजी ! मुज मलियारे,
मारा मनना मनोरथ फलिया-अहो तारी मूरति मोहनगारी रे, सहु संघने लागे प्यारी रे
तमने मोही रहया सुर नर नारी-अहो० ॥१॥ मलबेली मूरत प्रभु ! तारी रे, तारा मुखडा उपर जाउं वारी रे,
नागनागणीनी जोड उगारी-अहो० ॥२॥ धन्य धन्य देवाधिदेवारे, सुरलोक करे तारी सेवा रे;
अमने आपो शिवपुर मेवा- अहो ॥ ३ ॥ तमे शिवरमणीना रसीयारे, जइ मुक्तिपुरोमां वसीया रे, तमे शिवरमणीना रसीया रे, जइ मुक्तिपुरीमा वसीया रे,
मारा हृदयकमलमांहे वसिया–अहो० ॥४॥ जे कोइ पार्श्वतणा गुण गाशे रे, भवभवना पातक जाशे रे।
तेना समकित निरमल श्राशे--अहो० ॥५॥
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सवा रा
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[ १४ ] प्रभु वीशमा जिनशया रे, माता वामादेवीना जाया रे,
अमने दरिशन द्योने दयाला-अहो ॥६॥ तु तो ललीलली लागु छु पाय रे, मारा उरमां ते हरख न माय रे,
अम मणेक विजय गुण गाय-अहो. ॥७॥
पारस नाम, पारस नाम, मेरे प्रभु का पारस नाम । है सुखधाम, प्रभु का नाम, मेरे प्रमु का पारस नाम ।
बामा नन्दन, कर्म मिकन्दन, जन्म निररंजन भव भय भंजन, भक्त जनों के मन अभिराम ॥मेरे०१।। है सुखकारी, पर उपकारी जगहित कारी, महिमा भारी निश दिन जपते तेरा नाम ।। मेरे०२ ।। कर्म सपाये, नाग बजाये, इन्द्रलोक में उन्हें पठाये, प्रभु ने पाया केवल ज्ञान ॥ मेरेः ।। हर एक दिल में नाप बिराजे, हर्ष बधाई घर घर बाजे, करे सभी मिल तेरा नाम ।। मेरे० ४ ॥ हम सब आये शरण तुन्हारी, विनती सुनलो नवथ हमारी, बसा है दिल में तेरा ध्यान । मेरे०५॥
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[ १५ ]
सुनिये श्री संखेश्वर पार्श्वनाथ,
____ तोसे बिनती करत महाराज ॥ सु०॥ जलती अग्नी से नाग निकाल्यो,
संभलायो नवकार ॥ सु० १॥ जग विख्यात तुमरो यश गावे, भविजन के सिरताज । दोन दयाल कृपा करो स्वामी, तुम्हारे चरण आधार । ज्ञान चन्द्र विनवे भक्ति से, तारण तरग जहाज ॥सु०२॥
[८] अब मोहें तारो पारसनाथ । अश्वसेन बामाजी के नन्दन, तीन भुवन के नाथ ॥ अ० ॥ पोष बदी दशमी दिन जायो; दिशि कुमरी संग साथ ।। अ० ॥ सेवक की अरजी पर मरजी लज्जा तुम्हारे हाथ ॥ १० ॥
बिना प्रभु पार्श्व के देखे, मेरा दिल बेकरारी हे चौरासी लाख में भटक्यो बहुत सी देहधारी है धेरा मोह कर्म आठों ने गले जंजीर डाली है ।बि०१॥ दुनिया के देव सब देखे, सभी को लोभ भारी है कोइ रागी कोई द्वषो, किसी के संग नारी है ॥बि०२ ॥ मुसिबत जो पड़ी हम पे, सभी तुमने निवारी है सेवक को कुमति से टारो, यही विनती. हमारी है ।बि० ३॥
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[ 8 ]
(१०)
श्री नाकोडा स्वामी अन्तरजामी तारो पारस नाथ । अश्वसेन जी का लाडलारे, बामा देवी नो नन्द, श्याम वरण सुहावणारे मुखडो पुनम चन्द || ना० ॥ आगे भक्त अनेक उवारे, अब प्रभुजी मोहे तार, तारक नाम धरायो स्वामी, अपना विरूध संम्भाल || ना० ॥ मैं अपराधी भौगुण भरिबो, माफ करो महाराज, दीनदयाल दया करो मोपे, सारो बंछित काज ॥ ना० ॥ अरजी लीजो दरशन दीजो, मुजरो लीजो मान, करुणा सागर करूणा कीजो, अर्ज करे छे "कान" ॥ना०॥ ( ११ )
पार्श्व प्रभुजी रे, बिनती मेरी मानना ॥ पा० १ ॥ अति दुख पाया मैंने, मोह के राज में,
लख चौरासी रे, योनि में जहाँ घूमना || पा० २ ॥ फँस रहा हूँ, मैं तो, कर्मों के घेर में,
चार गति के रे, दुखों को पड़े भेलना ॥ पा० ३ ॥
भटक रहा हूँ प्रभु, अँधेरी रैन में,
ज्योति जगा दो रे, टले ज्यूं मेरा रूलना ॥पा० ४ ॥ सम्यज्ञदर्शन ज्ञान के राज में,
चरण मिला दो रे, स्वामी जी नहीं भूलना । पा० ५ ॥ आत्म कमल में जिन रहो दिल में,
लब्धिसूरी का रे, हटा दो जग भूलना ॥ पा० ६ ॥
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! ६७ ]
(१२) मुख बोल जरा यह कह दे खरा,
तुं ओर नहीं में ओर नहीं तु नाथ मेरा में हुं जान तेरी,
मुझे क्यु विसराई जान मेरी, अब करम कटा ओर भरम फटा,
तु ओर नहीं में ओर नहीं ।। मुख० ॥१॥ तु हे इश मेरा में हु दास तेरा,
मुझे क्यु न करो अब नाथ खरा, जब कुमति टरे ओर सुमति वरे,
तु ओर नहीं में ओर नहीं ॥मुख० ॥२॥ तु हे पास जरा में है पासपरा,
मुझे क्यु ने छोडावो पास टरा, जब राग कटे ओर देष मिटे, .
तूं ओर नहीं में ओर नहीं। मुख० ॥३॥ तु हे अचरवरा में है चलनचरा,
मुझे क्युन बनाओ आपसरा, जब होश जरे ओर सांग टरे,
तुं ओर नहीं में ओर नहीं ॥ मुख० ॥४॥ तुः हे भूपवरा शंखेश खरा,
में तो आतमराम आनंद भरा, तुम दरस करी सब भ्रान्ति हरी,
तुओर नहीं में ओर नहीं । मुख० ॥ ५॥
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[ ९८ ।
(१३) सांवरो सुखदाई जाकी छवि वरणी न जाई श्री अश्वसेन वामानंदनकी, कीरती त्रिभुवन छाई समेतशिखर गिरि मंडण प्रभुको देख दरस हरखाई
- हृदय मेरो अति हुलसाई ॥१॥ आज हमारे सुरतरु प्रगट्यो, आज आनंद बधाई तीन भुवन को नायक निरख्यो, प्रगटी पूर्व पुन्याई
____ सफल मेरो जन्म कहाई ॥२॥ प्रभुके सरस दरस बिन पाये भवभव भटक्यो में भाई अब तेरो चरन शरण चित चाहत, बाल कहे गुण गाई
प्रभुजीसे लगन लगाई ॥३॥ ।
(१४) त्रेवीशमो तीर्थकर माडी वामादेनो लाडलो भवोभव भटकीने आव्यो तारे बारणे भक्त हुँ तारो नाथ तु मारो हुंना छोडु छेडलो झेर भर्या जगमां अटवाणो आशा लईने आव्यो, हवे हुँनो छाड़ छेड़लो, छोडूं नाहवे हुँतो तारो सथवारो तार या ना तार तो ए हुँ ना छोड्ड छेडलो, मनडा मां वसीयो मारा दीलडामां बसीयो रग रगमां व्हाला तु वसोयो हुना छोडूं छेडलो
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[ ६६ ] अश्वसेनना लाडकवाया लग्यो तारो नेडलो भारा हृदय कमलना वासी हु ना छोड़ें छेडलो
पास प्रभु शंखेश्वरा मुज दरिसण वेगे दीजे रे तुज दरिपण मुज वालहुं जाणु अहनिश सेवा कीजे रे ॥१॥ रातदिवस सुतां जागतां मुज हैडे ध्यान तुमार रे जीभ जंपे तुम नामने तव उल्लसे मनड्ड मारु रे ॥२॥ दैव दीये जो पांखडी तो आQ तुम हजुर रें। मुज मन केरी वातडी कही दुःखडा कीजे दूर ॥३॥ तुप्रभु आतम माहरो तुप्राण जीवन मुज देव रे संकट चुरण तु सदा मुज महरे करो नित मेव रे ॥४॥ कमल सुरज जेम प्रीतडी जेम प्रीति बपैया मेह रे दुर थकी तिम राखजो मुज उपरे अधिक सनेह रे ॥५॥ सेवक तणीए विनती अवधारी सु नजर कीजे रे लब्धि विजय कवि प्रेमने प्रभु अविचल सुखडां दीजे रे ॥६॥
दादा पारसनाथ ने नित्य नमिये, हारे नित्य नमिये रे, नित्य नमिये हारे नभिये तो भव नवि खमिये, हारे चित्त आणीठाम दादा ॥१॥ वामा उर सर हंसलो जगदीवो, हारे जगतारक प्रभु चिरंजीवो, हारे अनु दर्शन अमृत पीवो, हारे दीठे सुख थाय दादा० ॥२॥ अश्वसेन कुल चंद्रमा जगनामी, हारे अलवेसर अंतरजामी, हारे त्रण भुवननी ठकुराई पामी, हारे कहे सुरपति सेव दादा ॥३॥
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[: १०० ] परमातम परमेसरु जिनराय, हारे जस फणिपति लंछन पाय, हारे काशी देश वाणारसी राय, हारे जयोए शुद्ध प्रेम दादा॥४॥ गणपर दश द्वादशांगीना धरनार, हारे सोल सहस मुनिवर थाय, . हारे अडतीस सहस साहुणी सार, हारे रुडो जिन परिवार दादा०॥५॥ नोलवरण नव हाथ सुन्दर काया,हारे एक वत वर्ष पाल्यु आय, हारे पाम्या परम महोदय ठाय, हारे सुख सादि अनंत दादा० ॥६॥ जिन उत्तम पद सेवना सुखकारी, हारे रूप कीरति कमला विस्तारी हारे मुनि भोमविजय जयकारी, हारे प्रभु परम कृपाल दादा० ७॥
(२४) श्री महावीर जिन स्तवन
(१) सिद्धारथना रे नंदन विनवू, विनतडी अवधार; भव मंडपमां रे नाटक नाचियो, हवे मुज दान देवार ॥सिद्धा० ॥१॥ त्रण रतन मुज आपो तातजी, जेम नावे रे संताप; । दान दियंता रे प्रभु ! कोसर किसी ? आपो पदवी रे आप ॥२॥ . चरण अंगूठे रे मेरु कंपावीयो, मोड्यां सुरनां रे मान; अष्ट करमना रे झगड़ा जीतवा, दीघां वरसी रे दान ॥ सिद्धा० ३॥ शासन नायक शिव सुखदायक, त्रिशला कुखे रतन; सिद्धारथनो रे
वंश दीपावीयो, प्रभुजी तमे धन्य धन्य ।सिद्धा०४॥ वाचक शेखर कीति विजय गुरु, पामी तास पसाय; धर्म तणे रसे
- जिन चोवीसना, विनय विजय गुण गाय ॥ सिद्धा ० ५॥
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[ १०१ ]
. (२) तार हो तार प्रभु ! मुज सेवक भणी, जगतमां बेटलं सुजस ली, दास अवगुण मर्यों जागी पोतातणो, दयानिधि ! दीन पर दया कीजे तार • ॥१॥राग द्वषे भर्यो मोह बेरी नडयो; लोकनी रीलिमा घणुये रातो; क्रोध क्श घमघम्यो, शुद्ध गुण नवि रम्यो, भन्यों मव-- मांही हुँ विषयमातो-तार • ॥२॥ आदर्यु आचरण लोक उपचा-- रथी, शास्त्र अभ्यास पण कांइ कीघो; श्रद्धान वली आत्म अवलंब विण, तेहको कार्य तिणे को न सीघो-तार ॥३॥ स्वामी दरिशण समो निमित लही निर्मलो, जो उपादान ओ शुचि न था; दोष को वस्तुनो अहवा उधमतणो, स्वामी सेवा सहि निकट लाशेतार ० ॥ ४ ॥ स्वामी गुण ओलखी स्वामी ने जे भजे, दरिशन शुद्धता तेह पामे; ज्ञान चरित्र तप वीयं उल्लास थी, कर्म जीपी क्से मुक्ति धामे-तार ॥ ५ ॥ जगतवत्सल महावीर जिनवर सुणी, चित्त प्रभु चरण ने शरण वास्यो; तारजो बापजी ! बिरुद निज राखवा, दासनी सेवना रखे जोशो -तार० ॥ ६ ॥ विनति मानजो, शक्ति ए आपजी, भावस्याद्धदता शुद्ध भासे; साधी साधक दशा सिद्धता अनुभवी, देवचन्द्र विमल प्रभुता प्रकाशे - तार • ॥७॥
(३) तेरो दरस मन भायो; चरम जिन ! तेरो दरस मन भायो; तुं प्रभु ! करुणारसमय स्वामी, गर्भ में सोग मोटायो; त्रिशला माता को आनन्द दीनो, ज्ञातानन्दन जमगायो॥चरम०॥१॥
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[ १०२ ] वरसी दान दे रोरता वारी, संयम राज्य उपायो, दीन हीनता कबुय न तेरे, सद् चिद् आनंद रायो; ॥ चरम० ।।२।। करूणा मंथर नयने निहारी, चंडकोशिक सुखदायो; आनन्दरस भर सरगे पहूँतो, असा कोन करायो ।चरम ० ॥३।। रत्नकंबल द्विजवरको दीनो, गोशालक उधरायो; जमाली पन्नर भव अंते, महानन्द पद ठायो । चरम ०॥४॥ मत्सरी गौतमको गणधारी, शासन नायक ठायो; तेरे अवदात गिनु जग केते, तुं करूणासिंधु सुहायो ।चरम०५।। हुँ बालक शरणागत तेरो, मुजको क्यं विसरायो; तेरे विरह से हुं दुःख पामु, कर मुज अलमरायो ।चरम ॥६॥
वीर जिणंद जगत उपकारी, मिथ्याधाम निवारीजी, देशना अमृत धारा वरसी, परपरिणति सवि वारीजी-वीर ०॥१॥ पंचमे आरे जेहनुशासन, दोय हजारने चारजी; युग प्रधान सूरीश्वर वहशे, सुविहित मुनि आधारजी-वीर०॥२॥ उत्तम आचारज मुनि अज्जा, श्रावक श्राविका अच्छजी, लवण जलधि माहे मीठू जल, पीवे सोंगी मच्छजी -वीर ॥३।। दश अच्छे रे दुःषित भरते, बहु मतभेद करालजी, जिन केवली, पूरवधर विरहे, फणीसम पंचम कालजी-वीर०॥४॥ तेहनु झेर निवारण मणिसम, तुज आगम तुज बिंबजी,
निशि दीपक, प्रवहण जेम दरिये, मरुमां सुरतुर लंबजी वीर०॥५॥ . जैनागम वकता ने श्रोता, स्याद्वाद शुचि बोधजी,
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[ १०३ ] कलिकाले पण प्रभु ! तुज शासन, वरते छे अविरोधजी-वीर •॥६॥ माहरे तो सुषमा थी दुषमा, अवसर पुण्य निघानजी, खिमाविजय जिन वीरसदागम, पाम्यो सिद्धि निदानजी
वीर ॥७
(५) गिरुआरे गुण तुम तणा, श्री वर्धमान जिन राया रे सुणतां श्रवणे अमीझरे, मारी निर्मल थाये काया रे ॥१॥ तुम गुण गण गंगाजले, हुँ झीलीने निर्मल थाऊ रे अवर न धंधो आदरु, निशदिन तोरा गुण गाऊ रे ॥२॥ झोल्या जे गंगाजले, ते छील्लर जल नवी पेसे रे, .. जे मालती फूले मोहीआ, ले बावल जई नंवी बेसे रे; ॥३॥ अम अमे तुम गुण गोठशु, रंगे राच्या ने वली ते केम परसुर आदरे, जे परनारी वश राच्या रे ॥४॥ तु गति तुं मति आशरो, तुं आलंबन मुज प्यारो रे, वाचक जश कहे माहरे, तुं जीवन जीव आधारो रे ॥५॥
मारा मनना भावो प्रभुजी जाणो तमाम
तो पण तमने अरज करुं छं चारगतिमां फरतो फरु छु
रखडयो ठामो ठाम-प्रभुजी जाणो तमाम॥१॥ जन्म मरणना फेरा टालो; भविजन तारक बीरुद संभालो जग तारक तुज नाम-प्रभुजी जाणो तमाम ॥२॥
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[ १०४ 1 परवश बहु दुःख सहन में करीयां, जप तप संयम नहिं आदरीयां हारी गयो छु हाम-प्रभुजी जाणो तमाम ॥३॥ दर्शन ज्ञान चरण धन खोयुं, अधर्म करतां पाछौं न जोडे थयं न साचुं दाम-प्रभुजी जाणो तमाम ॥४॥ अजर अमर अज वीर जिनेश्वर, कस्तुर विजय तणा भवभय हर जगे आशा विशराम-प्रभुजी जाणो तमाम ॥५॥
(७) .. वीर जीनेश्वरने चरणे लामु, वीरपणुं मांगु रे; मिथ्या मोह तिमिर भय भांग्यु, जित नगारु वाग्यु रे; ॥ वीर०॥१॥ छऊमथ्य वीर्य लेश्या संगे अभिसंधिज मति अंगेरे, सूक्ष्म स्थुल क्रियाने रंगे, 'योगी थयो उमंगे रे, ॥बीर०॥२॥ असंख्य प्रदेशे वीर्य असंखे, योग असंखित कंखेरे; पुद्गल गण तेणे तेशुं विशेषे, यथाशक्ति मति लेखे रे; वीर०॥३॥ उत्कृष्ट वीरयने वेपे योग क्रिया नवी पेसे रे; योग तणी घ्र वताने लेशे, आतम शक्ति न खेसे रे; ॥वीर०॥४॥ काम वीर्यवशे जेम भोगी, तेम आतम थयो भोगी रे; शुरपणे आतम उपयोगो, थाय तेह अयोगी रे ॥वीर० ५ ॥ वीरपणुं आतम ठाणे, जाण्युं तुमची वाणे रे; ध्यान विनाणे शक्ति प्रमाणे, निज ध्रुवपद पहिचाणे रे वीर०॥६॥ आलंबन साधन जे त्यागे, पर परिणतिने भागे रे; अक्षय दर्शन ज्ञान वैरागे, आनंदघन प्रभु जागे रे ॥वीर०॥७॥
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[ १०५ 1
सिद्धारथ राप कुल तिलोए, निशला ममत मल्हार तो; अवनी तले तमे अवत्तर्या , करवा अम उपगार
जयो जिन वीरजी ऐ॥१॥ में अपराध कर्या घणा ए, कहेतां न लहुं पार तो; तुम चरणे आव्या भणीए, जो तारे तो तार; जयो० ॥२॥ आश करीने आकीयो ए, तुम चरणे महाराज तो, आव्याने उवेखशो ए, तो केम रहेशे लाज ॥ जयो० ॥३॥ करम अलुंजण आकरां ए; जन्म मरण जंजाल तो; हुँ छु अहेथी उभग्यो ए, छोडाव देव दयाल ; ॥जयो०॥ ॥४॥ आज मनोरथ मुज फल्यां ए, नाठां दुःख दंदोल तो; तुठयो जिन चोवीसमो ए, प्रगट्यां पुन्य कल्लोल; ॥ जयो० ॥ ५॥ भवे भवे विनय तुमारडो ए, भाव भक्ति तुम पाथ तो; देव दया करी दीजिए ए, बोधि बीज सुपसाय; । जयो० ॥६॥
(६) नारे प्रमु नहि मानु, नहि मान अवरनी आण; नारे.
मारे ताहरु वचनः प्रमाण; नारे. हरिहरादिक देव अनेरा, ते दोठा जगमांहि रे, भामिनी भ्रमर भृकुटिए भूल्या, ते मुजने न सुहाय नारे ॥१॥ केईक रागीने केईक द्वषो केईक लोभी देव रे; केईक मदमायाना भरीया, केम करीए तस सेव नारे ॥२॥
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मुद्रा पण तेहमा नवि दीसे प्रभु, तुज महिली तिलमात्र रे, जे देखी दीलडु नवि रीझे, शी करवी तस वाल नारे० ॥३॥ तुगति तुमति तु तु मुज प्रीतम, तु जीव जीवन आधारो रे रात दिवस सुपनांतर मांति, तुमारे निरधार नारे० ॥४॥ अवगुण सहु उवेखीने प्रभु, सेवक करीने निहाल रे, जगबंधव ए विनति मारी, भवोभवना दुःख ताल नारे० ।।५।। चोवीशमा प्रभु त्रिभुवन स्वामी, सिद्धारथनाथ नंद रे; त्रिशलाजीना नानडीया प्रभु, तुम दीठे अतिही आनंद नारे० ॥६॥ सुमति विजय कविराजनो रे, रामविजय कर जोड रे; उपकारी अरिहंतजी मारा भवोभवना बंद छोड नारे० ॥७॥
(१०) आवो आबो हे वीर स्वामी मारा अंतरमां मारा अंतरमां पधारो मारा अंतरमां- आवो० मान मोह माया ममतानो मम अंतरमां वास, जब तुम आवो त्रिसलानन्दन, प्रगटे ज्ञान प्रकाश-आवो० आत्म चन्दन पर कर्म सर्पनु, नाथ अतिशय जोर, दूर करवाने ते दुष्टोने, आप पधारो मोर-आवो० माया आ संसार तणी बहु वरतावे केर, श्याम जीवनमां आप पधारो, थाये लीला लहेर-आवो० भक्त आपना शेठ सुदर्शन; चढया शुलीए साच, आप कृपाए थ' सिंहासन, बन्या देवना ताज-आवो०
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[ १०७ ]
चन्दन बालाने बारणे आव्या, अभिग्रह पूरण काज, हरखित चन्दनबाला निरखो, पाछा वलया भगवान- आवो रडती चन्दनबाला बोले, क्षमा करो भगवान, कृपा करो मुज रंकज उपरे, ल्यो बाकुला आज---आवो० बार ब्रतमा एक व्रत नहि छतां थशे भगवान, श्रेणिक भक्ति जाणी प्रभु ए, कीधा आप समान---आवो०
वीर वीरनी घून जगावो प्रभु वीरनां दर्शन पावो
प्रभु वीरने शीर झुकावो ॥वीर०॥ भव सागरमां वीर सुकानी, नैया पार तरावो, पापनी भेखड दुर हटावी, शिव मन्दिर बतलाओ,
प्रभु वीरने शीर झुकावो ॥ वीर० ।। देह सदनमा आत्म जगाडी, ज्ञान ज्योत प्रगटावो, भाव भरेला अमीरस सींची, चंदु भव मिटावो
. प्रभु वीरने शीर सुकावो । वीर०॥
(१२) वीर तारु नाम वहालु लागे, हो श्याम शिवसुख दाया क्षत्रियकुंड मां जनम्या जिनन्दजी, दिग्कुमरी हुलराया ॥१॥ माथाना मुगट छो आंखोना तारा, जन्मथी मेरु कंपाया ॥२॥ मित्रोनी साथे रमत रमतां, देव भुजंग रुप ठाया ॥३॥ निर्भय नाथे भुजंग फेंकी आमल क्रीडा ने सोहाया ।।४।।
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[ १.८ महावीर नाम देवनाथे त्यां दी), पंडित विस्मय पाम्या ॥ ५ ॥ चारित्र लई प्रभु कर्मो हटाई, केवल ज्ञान प्रगटाया ॥ ६ ॥ हिंसा मृषा चोरी मैथुन वारी, परिग्रह बुरा बताया ॥७॥ आत्म कमला शैलीसी साधी, शिव लब्धि उपाया ॥ ८ ॥
(१३) महावीर स्वामी आप बिराजो चन्दन चौक में दूर देश से शिखर दीखे, शिखर की छवि न्यारी हाथी घोडा रथ पालखी, मन में बहुत हुसियारीजी ॥१॥ दूर देश से आये यात्री, पूजा आन रचावे अष्ट द्रव्य पूजा में लावे, मन वंछित फल पावे ॥२॥ थारो सेवक अरज करे छे, सुणज्यो महावीर स्वामी मो पे किरपा ऐसी कीजे, जावे मोक्ष निसानीजी ॥ ३ ॥
(२२) श्री नेमनाथ जिन स्तवन
परमातम पूरणकला, पूरणगुण हो पूरण जन आश; पूरण द्रष्टी निहालीए, चित्त घरीए हो अमची अरदास, परमा०॥२॥ सर्व देश घाती सहु अघाती हो करी बात दयाल ! वास कियो शिव मंदिरे, मोहे विसरी हो भमतो जगजाल ॥२॥ . जगतारक पदवी लहो, तर्या सहि हो अपराधि अपार; तात ! कहो मोहे तारतां, किम कीनी हो इण अवसर वार ॥३।। मोह महामद छाकथी, हुँ छकियो हो नवि सूध लगार; उचित सहि इण अवसरे, सेवकनी हो करवी संभाल |
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१.t मोह गये जो तारशो, तिण वेला हो कहां तुम उपगार ! सुखवेला सज्जन घणां, दुःखवेला हो विरला संसार ॥५॥ पण तुम दरिशण योगयी, थयो हृदये हो अनुभव परकाश अनुभव अभ्यासी करे, दुःखदायी हो सहु कर्म निराशा ॥६॥ कर्म कलंक निवारीने, निज रूपे हो रमे रमता राम; लहत अपूरव भावथी, इण रीते हो तुम पद विशराम ॥७॥ त्रिकरण-योगे विनवं, सुखदायी हो शिवादेवीना नंद ! चिदानंद मनमें सदा, तुमे आयी हो प्रभु ! नाणदिणंद ॥१॥
में आजे दरिसण पाया, श्री नेमिनाथ जिनराया; प्रभु शिवादेवीना जाया, प्रभु समुद्रविजय कुल आया, कर्मों के फंद छोडाया, ब्रह्मचारी नाम धराया, जीने तोडी जगत की माया ।।जीने०॥ में॥१॥ रेवतगिरि मंडनराया; कल्याणक तीन सोहाया, दीक्षा केवल शिवराया मगतारक बिरूद धराया, तुम बेठे ध्यान लगाया ॥ तुम ॥ में ॥२॥ अब सुनो त्रिभुवन-राया, में कर्मों के वश आया, हुँ चतुर्गति भटकाया मे दूःख अनंता पाया, ते गोनती नाही गणाया ॥ ते गीन० ॥ में ॥३॥ में गर्भावास में आया, ऊंधे मस्तक लटकाया, आहार सरस विरस भुकताया, एम अशुभ करम फल पाया, ईण दुःख से नाहीं मुकाया ईण०॥ में० ॥४॥ नरभव चिंतामणि पाया, तब चार चोर मील आया, मुजे चौटेमें लूट खाया, अब सार करो जिनराया, किस कारण देर लगाया ॥ किस ।। में० ५॥ जिणे अंतरगत में लाया, प्रभु नेमि निरंजन ध्याया, दुःख संकट विधन हटाया, ते परमानंद पद
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[ ११० ] पाया, फिर संसारे नहि आया । फिर० ॥ में० ॥ में दूर देश से आया प्रभु चरणे शीश नमाया, में अरज करी सुखदाया, तुमे अवधारो महाराया, एम वीरविजय गुण गाया ॥ एम० ॥ में० ॥.७ ॥
बीजका स्तवन प्रणमी शारद माय, शासन वीर सुहंकरुजी; वीज तिथि गुण गेह, आदशे अवियण सुंदरुजी ॥१॥ एह दिन पंच कल्याण, विवरीने कहुं ते सुणोजी; महा सुदी बीजे जाण, जन्म अभिनन्दन तणोजी॥२॥ श्रावण सुदीनी हो बोज, सुमति चव्या सुरलोकथीजी; तारण भवोदधि तेह, तस पद सेवे सुरलोकथीजी ॥३॥ समेतशिखर शुभ ठाण, द्रशमा शीतल जिन गणुजी; चैत्र वदीनी हो बीज, वर्या मुकित तस सुख धगँजी ॥४॥ फालगुन मासनी बीज, उत्तम उन्नवल मासनीजी; अरनाथ च्यवन, कर्मक्षये भवयाशनीजी ॥५॥ उत्तम माघज मास, शुदी बीजे वासुपुज्यनोजी; एहीज दिन केवलनाण, शरण करो जिन राजनोजी ॥६॥ करणी रुप करो खेत; समकित रूप रोपो सिहानी; खातर किरिया हो जाण खेड समता करी जीहांजी ॥॥ म्यान तद्र प नीर, समकित छोड प्रगट होवेजी; संतोष करी अहो वाड, पच्चखाण व्रत चोकी सोहेजी ॥८॥ नासे कर्म रिपु चोर, समकित वृक्ष फल्यो तिहाजी; मांजर अनुभव रूप, उतरे चारित्र फल जीहांजी ॥६॥शांति सुधारस वारि, पान करी सुख लीजीएजी; तंबोल सम ल्यो स्वाद, जीवने संतोष रस कीजीएजी ॥१०॥ बीज करो दोय मास, उत्कृष्टी बावीश मासनीजी; चोविहार उपवास, पालीये शील वसुधासनीजी ॥११॥ आवश्यक दोय वार, पडिलेहण दोय लीजी
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[ १११ ]
एजी, देववंदन त्रण काल, मन, वच कायाए कीजीएजी ॥१२॥ उजमणुं शुभ चित्त, करी घरीए संयोगथीजी; जिनवाणी रस एम, पीजीए श्रुत उपयोगथीजी ॥१३॥ इण विवि करीये हो बीज, राग ने द्वेष दूरे करीजी; केवल पद लही तास, वरे मुकित उलट घरीजो ॥१४॥ जिन पुजा गुरु भकित, विनय करी सेवो सदाजी; पद्मविजयनो शिष्य, भकित पामे सुख संपदाजी ॥१५॥
ज्ञानपंचमीका स्तवन ___ सुत सिध्धारथ भूपनोरे, सिधारथ भगवान; बारह परषदा आगले रे, भाखे श्री वर्धमानोरे, भवियण चित्तघरो, मन वचकाय अमायो रे, ज्ञान भगति करो ॥१॥ गुण अनंत आतम तणा रे, मुख्यपणे तिहां दोय, तेहमां पण ज्ञानज वउँ रे, जिणथी देसण होय रे ॥२॥ ज्ञाने चारित्र गुण वधे रे, ज्ञान उद्योग सहाय; ज्ञाने थिपिरपणुं लहेरे, आचारज उवझाय रे ॥भ० ॥३॥ ज्ञानी श्वासोश्वासमां रे, कठिण करम करे नाश, वन्हि जेम इंधण दहे रे, क्षणमा ज्योति प्रकाश रे ॥ भ० ॥ ४॥ प्रथम ज्ञान पछी दया रे, संवर मोह विनाश; गुण ठाणंग पगथालीये रे, जेम चडे मोक्ष आवासो रे ॥ भ० ॥ ५॥ मइ सुअ ओहि मणपज्जवारे, पंचम केवलज्ञान; चउ मुँगा श्रुत एक छे रे, स्वपर प्रकाश निदान रे ।। भ० ॥ ६ ॥ तेहनां साधन जे कहयां रे, पाटी पुस्तक आदि; लखे लखावे साचवे रें, धर्मी धर्म अप्रमादो रे ॥ भ० ॥७॥ त्रिविध आशातना जे करे रे, भणतां करे अंतराय; अंधा बहेरा बोबडा रे, मुंगा पांगुला थाय रे ॥ भ० ॥८॥ भणतां गणतां न आवडे रे, न
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[ ११२ ]
भले वल्लभ चीन गुणमंजरी वरदत्त परे रे, ज्ञान विराधन बीन रे ॥म. ॥१॥प्रेमे पुछे परषदा रे प्रणमी जगगुरु पाय, गुणमंजरी वरदतनो रे, करो अधिकार पसायो रे ॥ भ० ॥ १० ॥
नवपदजी स्तवन अपो सब सार मंत्र नवकार ध्यान से उतरोगे भव पार। मैना सुन्दरी श्रीपाल को नवपद का आधार, मन का मनोरथ हुआ पूरा मीट गया कष्ट विकार ॥ जपो० ॥ सेठ सुदर्शन शुली ऊपर जपे जाप नवकार, शुली बनकर हुआ सिंहासन महिमा सिद्ध अपार ॥ जपो० ॥ जलतो नाग अग्नी से काड्यो दियो पारश्व नवकार, धरणीधर की पदवी पाई भुवन पति शिरताज ॥जपो०॥ बहुत प्रतापी महा मन्त्र है, चौदह पुरब सार, लाल कहे मवी भावे भजिये करते जय जयकार ॥जपो०॥
सामान्य जिन स्तवन
आज मारा प्रभुजी सामु जुओ सेवक कहीने वोलावो रे अटले हुँ मनगमतुपाम्यो रुठडां बाल मनावो मारा सांइरे
आज० ॥१॥ पतितपावन शरणागत वत्सल, ओ जश जगमां दावो रे, मनरे मनाव्या विण शिव नहीं मुकु अहोज मारो दावो रे
आज० ॥२॥
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[ ११३ ] कबजे आव्या ते नहीं मुकु जिहां लगे तुम सम थावो रे जो तुम ध्यान विना शिव लहीये तो ते दाव बतावो रे,
आज० ॥ ३॥ महागोप ने महानिर्यामक इण परे बिरुद धराओ रे तो शुं आश्रितने उध्धरतां बह बह शं कहावो रे
आज० ॥४॥ ज्ञान विमल गुरुनो निधि महिमा मंगल अही वधावो रे अचल अभेदपणे अवलंबी अहोनिश अही दिल ध्यावो रे
आज० ॥५॥
(२) प्यारो लागे मने सारो लागे दर्शनमां गंभीरोजी प्यारो लागे सौनाकरी झारीयां ने मांही भर्या पाणी न्हवण करावु मेरे जिनजी
के अंग केशर चंदन भर्या रे कचोला पुजा करूं मेरे प्रभुजी के अंग दर्शन ॥२॥ धूप ध्यान घटा अनहद है लली लली शीश नमावत है दर्शन० ॥ ३ ॥ फूल तुलाबकी आंगी बनी है. हार पहेरावु मेरे जिनजी के अंग दर्शन० ॥ ४ ॥ आनंदघन प्रभु चलत पथमें ज्योति में ज्योत मीलावत है दर्शन ॥५॥
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[ ११४ ]
( ३ )
झनन झनन झनकारो रे बोले आतमनो अकतारो रे हवे प्रभुजी पार उतारो
तारतीयाना तोटा नथी पण सूरज चंदा अक छे
देव अनेरा दुनियामां पण मारे मन तु ओक छे झनक झनक झनकारो रे, बोले धुधरीनो धमकारो रे... हवे प्रभुजी अवनी पर आकाश रहे, तेम करजो मुज पर छाया निशदिन अंतर रमती रहेजो, मोहन तारी माया चमक चमक चमकारो रे, तारा मुखड़ानो मलकारो रे
...हवे प्रभुजी
उषा संध्याना रेशम दोरे, सूरज चन्दा भूले चडती ने पडतीना भूले, मानव सघलां भूले सनन सनन सनकारो रे, तारी वाणीनो रणकारो रे
...हवे प्रभुजी
तु छे माता तु छे पिता; तु छे जगनो दीवो श्रीशलाना नानकडा नंदन जगमां जुग जुग जीवो झनक झनक झनकारो रे; मुज प्राण थकी तु प्यारो रे" हवे ( ४ )
टम टम टम टम टीलडीना टमकारे
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मन मारु मोह मोहय मोहय रे तारी ज्योतिना भबकारे मन मारु
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[ ११५ [ तारा पावन चरणे स्पर्श करु मारा जनम जनमना दुखडा हरु तारी मुद्राना मलकारे 'मन मारु तारी वाणीना जो पान करु तो भवसागर हुं स्हेजे तरु तारी गंभीरताना धमकारे"मन मारु
(५) जनारुं जाय छे जीवन जरा जीनवर ने जयतो जा . हृदय मां राखी जीनवरने, पुराणां पाप धोतो जा ॥१॥ बनेलो पापथी भारे वली पापो करे शीदने सलगती होली हैयानी, अरे जालिम बुझातो जा ॥२॥ दया सागर प्रभु पारस उछाले ज्ञाननी छोलो । उतारी वासना वस्त्रो, अरे पामर तु न्हातो जा ॥३॥ जीगरमां डंखता दुःखो थयां पापे पीछानीने जीणंदवर ध्याननी मस्ती वडे अने उडातो जा ॥४॥ अरे आतम बनी शाणो, बतावी शाणपण तारु हटावी जुठी जग माया, चेतन ज्योति जगातो जा ॥५॥ खोल्यां जे फुलडां आजे, जरुर ते काले करमाशे अखंड आत्म कमल लब्धि तणी दोलमय लगातो जा ॥६॥
प्रभु मेरा में प्रभु तेरा खासी खीजमत धारी रे प्रीत बनी अब निजी तोशु जैसे मीनने वारि रे
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[ ११६ ] भोरे भयो समकित रवि उग्यो मीट गइ रयणी अटारी रे मिथ्यातम सम दूर थयुं सर्वे विकसे पंकज वारी रे द्वार तुजारे आन खड़ा है सेवा करे. नरनारी रे दरशन दीजे देव दासन कुजा तुम बलिहारी रे पर उपकारी जग हितकारी दान अभय दातारी रे महेर करी मोहे प्रभु दीजे क्षायिक गुण भंडारी रे दीठी आंत मीठी सभी रस सम सुरत तुम बहु प्यारी रे ऋद्धि कहे कवि रुप विजयना भवोभव तुही आधारी रे
(७) क्युकर भक्ति करुं प्रभु तेरी॥ क्रोध लाभ मद मान विषय रस, छोडत गेल मेरी ॥१॥ क नचावे तिम ही नाचत, माया वश नट चेरो ॥२॥ दृष्टि राग दृढ़ बंधन बान्ध्यो, निकसन न रही सेरी ॥३॥ करत प्रशंसा सब मिल अपनी, पर निंदा अधिकरी ॥४॥ कहत मान जिन भाव भक्ति बिन; शिव गति होत न मेरी।५॥
(८) होई आनन्द बहार रे प्रभु बैठे मगन में । होई० अष्टादश दूषण नहीं जिनमें प्रभु गुण धारे बार रे॥१॥प्रभु० चौतसि अतिशय पैंतीस वाणी, जगजीवन हितकार रे ॥२प्रभु शाम्त रूप मुद्रा प्रभु प्यारी देखो सब नर नार रे ॥३॥प्रभु० आनन्द थावो प्रभु गुण गावो, मुख बोलो जयकार ॥४॥प्रभु० प्रभु भक्ति से वल्लभ होवे, आनन्द हर्ष अपार रे॥५॥प्रभु०
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११७ ]
नावरिया मेरा कोन उतार बेड़ा पार ।। यह संसार समुद्र गंभीरा, कैसे उतरूंगा पार ॥नावरिया० रागद्वेष दोय नदियां बहत है, मँवर पड़ गतिचार० नावरिय ।। ऋषभदास को दरसन चहिये, बीनतडी अवधार ॥ नावरिया०
है जगतमें नाम ये, रोशन तेरा प्रभु। तारते उसको सदा, जो ले शरण तेग प्रभु ॥१॥ लाख चौरासी ने घेरा, कर्म ने मारा मुझे । ले बचा अब तो सहारा, हैं मुझे तेरा प्रभु ॥२॥ सैकड़ों को तारते हो, मेहर की करके नजर । क्यों नहीं तारो मुझे क्या गुनाह मेरा प्रभु ॥३॥ हाल जो तन का हुवा है, आप बिन किससे कहूं । मोह राजा ने मुझे, चारों तरफ घेरा प्रभु ॥४॥ आपसे हरदम तिलक की, ये ही तो अरदास है। आपके चरणों में मेरा, रहे सदा डेरा प्रभु ॥५॥
अजब जोत मेरे प्रभु की, तुम देखो भाई। कोटि सूरज मिल एकट कीजे, होड न होये मेरे प्रभु की ॥तुम। झिगमिग जोत झिलामल झलके, काया नील वरण की ॥तुम।। हीर करे प्रभु पार्श्व शंखेश्वर, आवा पूरो मेरे मनको ॥तुम।।
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[ ११८ ]
( १२ ) जिनवर नावरिया, नैया पार लगा दे रे जीना दो दिन का, भक्ति रंग लगा दे रे ॥ जिनवर ।। दुखी है दुनिया दुःख खजाना, कहीं है हँसना, कहीं है रोना । रहा झमेला जमाया रे ॥ जिनवर ॥१॥ मिलने वालों मिलो प्रभु से, पार लगादे प्रभु भव जल से । जैसे नाविक नैया रे ॥ जिनवर ॥२॥ जग माया के पास फसाना, कोई मुआना कोई लुभाना । जीवन यूं ही गमाया रे ॥ जिनवर ॥३॥ यह संसार मुसाफिर खाना, फिर-फिर आना, फिर-फिर जाना। भक्ति सरिता बहाय रे॥ जिनवर ॥४॥ कर्म पीजर में नहीं फंसाना, आत्म कमल में लब्धि बसाना। मुक्ति नगर मिल जाये रे ॥ जिनवर ॥५॥
प्रमुजी पटा लिखा दो मेरा, मैं सच्चा नौकर तेरा। प्रभुजी पटा लिखा दो मेरा, मैं दिन भर नौकर तेरा॥ प्रभुजी पटा लिखा दो मेरा, मैं हुकमी चाकर तेरा । दवात मंगाय देऊ, कलम मंगावी देऊ, पाना मंगावी देऊ कोरा । मुगतिपुरी की जागीर लीखाई दो, मस्तक मुजरा मेरा ॥प्रभुजी॥ ज्ञान ध्यान का महल बनाया, दरवाजे रखू पेरा। सुमति सिपाई नोकर राखो, चोर न पावे घेरा ॥प्रभुजी।। पंच हथियार जतन करी राखो, मनमां राखो धीरा। क्षमा खड़ग लइ पार उतर जो, जब तब मुजरा मेरा प्रभुजी॥
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[ ११६ ] कोडी-कोडी माया जोड़ी, माल भरया सब तेरा। जम का दूत पकड़ने लाग्या; लूट लिया सन डेरा ॥प्रभुनी। बन बीचे दरियाव भरयो है, नाव जो खावे ठेला। कहे कान्ति विजय कर जोड़ी, अन्त पंथ का गेला ॥प्रभुजी॥
(१४) . प्रभु भजले मेंरा दिल राजी रे, आठ पहर की चौसठ घड़ियां, दोय घड़ियां जिन साजी रे। दान पुन्य कछु धर्म करले, मोह माया फॅ त्याजी रे । आनध्दधन कहे समझ-समझ ले, ओर खोवेगा बाजी रे॥ -
(१५) बसो जी मेरे नैनन में महाराज । सामली शूरत मोहनी मूरत, तारण तरण जिहाज ॥बसोजी०॥ बानी सुधारस दरस उपन्यो, करतां अगम अपार ॥२॥ बसोजी० चैन विजय कर जोड़ी विनवे, चरण कमल शिरताज ॥३॥बसोजी०..
(१६) शिवपुर जाना मोकु शिवपुर जाना
प्रभुजी बतावो कैसे शिवपुर जाना चंचल मन मरकट नहीं माने,
मगरूरी में फीरत दिवाना ॥१॥ लोभ लहर की कहर बहत है।
विषय कषाय में जगत ठगाना ॥२॥
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[ १२० ] मतलब की ये दुनिया दारी
सुकरीत बिन भवि भरम भुलाना ॥३॥ हेम शशी दिनकर प्रभु जी के
रात दिवस करते गुण गाना ॥४॥
अवधू क्या सोवे तन मठ में, जाग विलोकन घट में तन मठ की परतीस न कीजे, ढहि परे एक पल में हलचल मेरी खबर ले घट की चिन्हे रमता जल में मठ में पंच मूत का बासा, सासा धूत खवीसा छिन छिन तो ही छलन कू चाहे समझे न बोरा सीसा शिर पर पंच परमेश्वर, घट में सूक्ष्म बारी माय अभ्यास लखे कोई विरला, निरखे धूको तारी आशा मारी आसन घर घट में, अजपा जाप जपावे आनन्द धन चेतन मय मूरती, नाथ निरंजन पावे
(१८) जगत रुठीने शुं करशे मारो नवकार बेली छे हजारो मंत्र शुं करशे मारो नवकार बेली छे मुर्दशन शेठनी उपर चढायुं आण राणी चढाव्या शूलीओ ज्यारे चढया नवकार ने ध्याने
थयुं शुली, सिंहासन...मारो०
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[ १२१ ]
श्री मति श्राविका सतीने दीघु अति दुःख सासरिये घड़ामां सर्प मुकीन, कहेवू फुल माला लावोने
गणी नवकार लावे फुल माल......मारो अमरने होमला काजे, मंगाव्यो बाल श्रेणीके लाव्या भग्निकुंड पासे गयो नवकार ने शरणे
थयो चमत्कार नमे तत्काल......मारो प्रभु मे काष्ट चीरावी उगार्या नाग नागणने श्राविका द्वारा मंत्र सुणावी, कर्यों उद्धार युगलनो
बन्यो धरणेन्द्र पद्मावती...मारो
१६)
ऐसी दशा हो भगवान जब प्राण तन से निकले गिरिराज की हो छायो मन में न होवे माया तप से हो शुद्ध काया जब प्राण तन से निकले मन में न मान होवे, दिल एक तान होवे प्रभु चरणे ध्यान होवे जब प्राण तन से निकले संसार दुख हरना, जिन धर्म का हो शरणा सब कर्म मर्म हरणा जब प्राण तन से निकले अनशन का सिद्धवट ही प्रभु आदिदेव घट हो गुरूराज भी निकट हो जब प्राण तन से निकले यह बिनती सुन लीजे इतनी दया तो कीजे अरजी तिलक की लीजे जब प्राण तन से निकले
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[ १२२ ]
( २० ) नजर टुंक महेर करके करके, दिखादोगे तो क्या होगा अनुपम रुप हे प्रभु जी, बतादोगे तो क्या होगा ॥१॥ प्रभु तुम दीन के रक्षक, करो मुज दीन की रक्षा चोराशी लाख की फेरी, मिटा दोगे तो क्या होगा ॥२॥ अनादि काल से भमतां, नहीं अभी अंत आया है शरण अब आपका लीना, हटा दोगे तो क्या होगा ॥३॥ अनादि काल से रुलीयां, बन्यो मिट्टी, कभी पानी तेऊ वाऊ हरी काया, बचा दोगे तो क्या होगा ॥४॥ बीती चउ जाती पंचेन्द्रि-पशु परवश दुःख पाया अमर नर नारकी रुपे, छंडा दोगे तो क्या होगा ॥५॥ ईसी संसार सागर में, मेरी प्रभु डुबती नैया करी करुणा किनारे पर, लगा दोगे तो क्या होगा ॥६॥ करो प्रभु पार भवोदधि से-निजातम संपदा दीजे सेवक को अपना वल्लभ बना दोगे तो क्या होगा ॥७॥
(२१) मेरी अर्जी उपर प्रभु ध्यान धरो, मेरे दिले के ये दर्द तमाम हरो, कभी आधि कभी व्याधी, कभी उपाधी आती है, सेवा जिनराज की सांची, तीनों की जड़ उड़ाती है,
- मेरी लाख चौरासी की पीर हरो ।। मे• १ ॥ ज्ञान चाहुँ ध्यान चाहुँ, मस्त आतम भाव से,
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[ १२३ ] जैसे बने ऐसे करो, दिल निज स्वभाव में,
मेरा नूर मुझे बकशिश करो। मे० २ ॥ तुंहि त्राता तंही भ्राता, तुंही रक्षणकार है, तुहि ब्रह्मा तुंही विष्णु, तुही तारणहार है।
मेरी डुबती नैया को पार करो ॥ मे० ३॥ पूरब फिरा पश्चिम फिरा, दक्षिण फिरा, उत्तर फिरा, देखा नहीं दरवार ऐसा, चमकता आतम हीरा ।
___ मेरी ज्योति से ज्योत मिलान करो । मे० ४ ॥ तुं जुदा नहीं मै जुदो नहीं और कोई जुदा नहीं, .... पर्दा उठे जो कर्म का, तो भरम सब भागे सही,
प्रभु वही करम पट दूर करो ॥ मे० ५॥ आतम-कमल में है भरी, खुब खुबीयां जिनराजजी, लब्धी विकासी नाथ मेरे, सारो सघरे काजजी,
___ मेरे ज्ञान खजाने को खुब भरो। मैं ६ ॥
अष्टमीका स्तवन हारे मारे ठाम धर्मना साडा पचवीश देश जो दीपे रे तीहां देश मगध सहुमां शिरे रे लोल, हारे मारे नयरी तेहमां, राजगृही सुविशेष जो, राजे रे तिहां श्रेणीक गाजे गज परे रे लोल ॥१॥ हारे मारे गाम नयर पुर पावन करता नाथ जो, विचरंता तिहां आवी वीर समोसर्या रे लोल ॥ हां० ॥२॥ चउद सहस मुनिवरनो साथे साथ जो, सुधा रे तप संयम शियले अलंकर्या रे लोल, हारे फूल्या रसभर भुलया अंब कदंबजो जाणुं रे गुण शील वन हसी
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[ १२४ ] रोमांचियो रे लोल ॥ ३ ॥ हॉ० वाया वास सुवास तिहां अवलंबजो, पासे रे परिमल चिहुं पासे, संचियो रे लोल, हां० देव चतुर्विध आवे कोडांकोड जो, त्रिगडुंरे मणि हेम रतन- ते रचे रे लोल ॥ हां चोसठ सुरपति सेवे होडाहोड जो, आगे रे रस लागे इंद्राणी नचे रे लोल ॥ ४ ॥ हां० मणिमय हेम सिंहासन बेठा आपजो, ढाले रे सुर चामर मणि रत्ने जड़यां रे लोल ॥ हां० सुणतां दु'दुभि नाद टले सवि ताप जो, वरसे रे सुर फुल सरस जानु अडयां रे लोल ॥ ५ ॥ हां० नाजे तेजे गाजे धन जेम लुबजो, राजे रे जिनराज समाजे धर्मने रे लोल, हां निरखी हरखी आवे जन मन लुंबजो, पोषे रे रस न पडे घोखे भर्मने रे लोल ॥ ६॥ हां० आगम जाणी जिननो श्रेणीक राय
जो आव्यो रे परिवरियो हय गय रथ पायगे रे लोल ॥ हां देई प्रद'क्षिणा वंदी बेठो ठाय जो, सुणवारे जिनवाणी मोटे भायगेरे लोल ॥ ७ ॥ हां० त्रिभुवन नायक लायक तव भगवंत जो, आणी रे जन करुणा धर्म कथा कहे रे लोल, हां सहज विरोध विसारी जगना जंतु जो, सुणवारे जीनवाणी मनमा गहगहे रे लोल ॥८॥
श्री एकादशी का स्तवन जगपति नायक नेमि जिनंद, द्वारीका नयरी समोसर्या ॥ जगपति वांदवा कृष्ण नरिंद यादव कांडशु परिवर्या ॥ १ ॥ जगपति धीगुण फूल अमूल, भक्ति गुणे माला रची ।। जगपति पूजी पुछे कृष्ण, क्षायिक समकित शिवरुचि ॥ २॥ जगपति चारित्र धर्म अशक्त रक्त आरंभ परिग्रहे ॥ जगपति भुज आतम उद्धार, कारण तुम विण कोण कहे ॥ ३ ॥ जगपति तुम सरीखो भुज नाथ, भाथे गाजे गुण
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[ १२५ ] नीलो ॥ जगपति कोई उपाय बताव, जेम करे शिव वधु कंतलो ॥ ४ ॥ नरपति उज्जल मागशिर मास, आराधो एकादशी ॥ नरपति एकसो ने पचास कल्याणक तिथि उल्लसी ॥ ५॥ नरपति दश क्षेत्रे त्रण काल, चोवीशी त्रीसे भली ॥ नरपति नेवू जिनजीनां कल्याण, विवरी कहुँ आगल वली ॥ ६॥ नरपति अर दीक्षा नभि नाण, भल्लि जन्म व्रत केवली ॥ नरपति वर्तमान चोवीशी, मांहे कल्याणक आ फली ॥ ७॥ नरपति मौनपणे उपवास, दोढसो जपमाला गणो॥ नरपति मन वच काय पवित्र, चरित्र सुणो सुव्रत तणो ॥८॥ नरपति दाहिण धातकी खंड, पश्चिम दिशे ईषुका रथी ॥ नरपति विजय पाटण अभिधान, साचो नृप प्रजापालथी ॥ ६ ॥ नरपति नारी चंद्रावति तास, चंद्रमुखी गजगामिनी ॥ नरपति श्रेष्ठी शुर विख्यात, शीयल सलीला कामिनी ॥ १० ॥ नरपति पुत्रादिक परिवार, सार भूषण चीवर धरी ।। नरपति जाये नित्य जिनगेह, नमन स्तवन पूजा करे ॥ ११ ॥ नरपति पोषे पात्र सुपात्र, सामायिक पोसह करे । नरपति देव वंदन आवश्यक कालवेलाए अनुसरे ॥१२॥
(१) श्री आदि जिन स्तुति
(१) श्री सिद्धाचलमंडण, ऋषभजिणंद दयाल, मरुदेवानंदन, वंदन करु त्रण काल; ए तीरथ जाणी, पूर्व नवाणुं वार, आदीश्वरआपक,कलाकासम्मान समार
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[ १२६ ]
(२) प्रह ऊठी वंदु ऋषभदेव गुणवंत, प्रभु बेठा सोहे समवसरण भगवंत, त्रण छत्र बिराजे चामर ढाले इन्द्र जिनना गुण गावे सुरनर नारीना वृद ॥ १॥
(३) आदिजिनवर राया, जास सोवन काया, मरुदेवी माया, धोरी लंछन पाया जगज स्थिति निपाया, शुद्ध चारित्र पाया केवल सिरि राया, मोक्ष नगरे सिधाया ॥ १ ॥
श्री शय॒ज्य तिरथ सार, गिखिरमां जेम मेरू उदार
ठाकुर रामा अपार मंममांही नवकार जाणु, तारा मां जेम चंद्र वखाणु
जलधर जलमां जणु. पंखी मांहे जेम उत्तम हंस, फुलमांही तेम ऋषभनो वंश
नासितणो मे अंश क्षमावंतमां श्री अरिहंत, तप शुरामां महामुनिवंत
शेजे गया गुणवन्त (२) अजितजिन-स्तुति विजयासुत वंदो, तेजथी ज्युं दिणदो । शीतलताए चंदो, धीरताए गिरिंदो ॥
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[ १२७ ]
मुख जेम अरविंदो, जास सेवे सुरींदो । लहो परमानंदो, सेवना सुखकंदो ॥ १ ॥ ( ३ ) श्री संभवजिन स्तुति
संभव सुखदाता, जेह जगमां विख्याता । षट् जीवोना त्राता, आपता सुखशाता ॥ माताने भ्राता, केवलज्ञान ज्ञाता । दुःख दोहग व्राता, जास नामे पलाता ॥ १
( ४ ) श्री अभिनंदन जिन स्तुति
-संवर सुत साचो, जास स्याद्वाद वाचो । थयो हीरो जाचो मोहने देई तमाचो ॥ प्रभु गुण गण माचो, एहने ध्याने राचो । जिनपद सुख साचो, भव्य प्राणी निकाचो ॥ १ ॥ ( ५ ) श्री सुमतिजिन स्तुति
सुमति सुमतिदाई, मंगला जास माई । मेरुने बली राइ, ओर अहने तुलाई ॥ क्षय कीघां घाई, केवलज्ञान नहि उणीम कांई, सेविये ए सदाई ॥ १ ॥
पाई ।
(६) श्री पद्मप्रभ जिन स्तुति
अढीसें धनुष काया, त्यक्त मद मोह माया । सुसीमा जस माया, शुक्ल जे ध्यान घ्याया ॥
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[
१२८
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केवल वर पाया, चामरादि धराया। सेवे सुरराया, मोक्षनगरे सधाया ॥१॥ . (७) श्री सुपार्श्वनाथ जिन स्तुति सुपास जिन वाणी, सांभले जेह प्राणी। हृदये पहेचाणी, ते तर्या भव्य प्राणी ॥ पांत्रीस गुण खाणी, सूत्रमा जे गुंथाणी। षट् द्रव्यशुं जाणी, कर्म पीले ज्युं धाणी ॥१॥
(८) श्री चंदप्रभ जिन स्तुति सेवे सुर वृदा, जास चरणारविदा; अठुम जिनचंदा, चंद वरणे सोहंदा ; महसेन नृपनंदा, कापता दुःख दंदा ; लंछन मिष चंदा, पाय मानु सेवंदा ।। १ __(8) श्री सुविधिनाथ जिन स्तुति नरदेव भाव देवो,, जेहनी सारे सेवो । जेह देवाधिदेवो, सार जगमां ज्युं भेवो ।। जोतां जग एहबो, देव दीठो न तेहवो । सुविधि-जिन जेहवो, मोक्ष दे ततखेवो ॥१॥
(१०) श्री शीतलनाथ जिन स्तुति शीतल-जिन स्वामी; पुण्यथी सेव बामी। प्रभु आतमरामी, सर्व परभाव वामी ॥ जे शिवगति गाभी, शाश्वतानंद-धामी। भवी शिवसुख कामी, प्रणमिये शीश नाभी ॥१॥
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[ १२६ ]
(११) श्री श्रेयांसनाथ जिन स्तुति विष्णु जम मात, जेहना विष्णु तात । प्रभु ना अवदात, तीन भुवने विख्यात ॥ सुरपति संघात, जास निकटे आयात । करी कर्मनो घात, पामिया मोक्ष नाथ ॥ १॥
(१२) वासुपूज्य जिन स्तुति
विश्वना उपगारी, धर्मना आदिकारी । धर्म ना दातारी, काम-क्रोधादि वारी ॥ तार्या नर नारी, दुःख दोहग्गहारी । वासुपूज्य निहारी, जाउ हुँ नित्य वारी ॥ १ ॥
(१३) श्री विमलनाथ जिन स्तुति विमल जिन जुहारो, पाप संताप वारो । श्यामां मल्हारी, विश्व कीर्ति विकारो ॥ योजन विस्तारो, जास वाणी प्रसारो । गुण गण आधारो, पुण्यना ए प्रकारो ॥१॥ (१४) श्री अनंतनाथ जिन स्तुति
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अनंत अनंतनाणी, जास महिमा गवाणी । सुर नर तिरि प्राणी, सांभले जास वाणी ॥ एक वचन समझाणी, जेह स्याद वाद जाणी । तर्या ते गुण, खाणी, पामिया सिद्धि राणी ॥१॥
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[ १३० ]
(१५) श्री धर्मनाथ जिन स्तुति धरम धरम धोरी, कर्मना पास तोरी। केवल श्री जोरी, जेह चोरे न चोरी ॥ दर्शन मद छोरी, जाय भाग्या सटोरी। नमे सुर नर कोरी, ते वरे सिद्धि गोरी ॥१॥ (१६) श्री शांतिनाथ जिन स्तुति
[१] वंदो जिन शांति, जास सोवन कांति, टाले भवभ्रांति, मोह मिथ्यात्व शांति, द्रव्य भाव अरि पांति, तास करता निकांति, धरता मन खांति, शोक संताप वांति ॥१॥
शांति जिनेश्वर समरीये, जेनी अचिरा माय; विश्वसेन कुल उपन्या. मृग लंछन पाय; गजपुर नगरीनो धणी कंचन वरणी छे काय चालीश धनुषनी देहडी लाख वरसनु आय ॥१॥
शांति सुहंकर साहिबो, संयम अवधारे सुमित्रने धरे पारण भव पार उतारे विचरंता अवनी तले तप उग्र विहारे ज्ञान ध्यान एक तानथी तिर्यचने तारे ॥१॥
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[ १३१ ]
(१७) श्री कुंथुनाथ जिन स्तुति कुथुजिन नाथ, जे करे छे सनाथ तारे भव पाथ, जे ग्रही भव्य हाथ एहनो तजे साथ, बावले दीये बाथ, तरे सुर नर साथ, जे सुणे एक गाथ ॥ १ ॥
(१८) श्री अरनाथ जिन स्तुति अरजिनवर राया जेहनी देवी माया, सुदर्शन नृप ताया, जास सुवर्ण काया; नदावर्त पाया, देशना शुद्ध दाया, समवसरण विचराया, इन्द्र ईन्द्राणी गाया ॥१॥
(१६) श्री मल्लिनाथ जिन स्तुति मल्लि जिन नामे, संपदा कोडि पामे, दुरगति दुःख वामे, स्वर्गना सुख जामे; संयम अभिरामे, जे यथाख्याल नामे, करी कर्म विरामे, जई वसे सिद्ध धामे ॥ १॥
(२०) श्री मुनिसुव्रत जिन स्तुति मुनिसुव्रत नामे, जे भवि चित्त कामे, सवि सम्पति पामे, स्वर्गना सुख जामे; दुर्गति दुःख वामे, नवि पडे मोह भामे, सवि कर्म विरामे, जई वसे सिद्ध धामे ॥१॥
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[ १३२ ] (२१) श्री नमिनाथ जिन स्तुति नमिये नमि नेह, पुण्य थाये ज्युं देह; अध समुदय जेह, ते रहे नांहि रेह, लहे केवल तेह, सेवनाकार्य एह, लहे शिवपुर गेह; कर्मनों आंणी छेड ॥१
(२२) श्री नेमिनाथ जिन स्तुति (श्री शत्रुजय तीरथ सार--ए देशो ) श्री गिरनार शिखर शणगार, राजीमती हैयानो हार, जिनवर नेमि कुमार, पुरण करूणा-रस-भंडार, उगायाँ पशुंआं अंबार, समुद्र विजय मल्हार, मोर करे मधुरा किंकार; विचे विचे कोयलना टहुकार, सहस गमे सहकार, सहसावनमां हुआ अणगार, प्रभुजी पाम्या केवल सार, पोहाता मुक्ति मोझार ॥१ड
राजुल वर नारी, रुपयी रतिहारी, तेहना परिहारी. बाल थी ब्रह्मचारी; पशुआं उगारी, हुआचरित्रधारी, केवल-श्री सारी, पामिया घाती वारी॥१॥
(२३) श्री पार्श्वनाथ जिन स्तुति शंखेश्वर पासजी पूजीए, नरभवनो लाहो लीजीए; मनवांछित पूरण सुरतरु, जय वामासुत अवलेसरु ॥१॥
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[ १३६ ] .
(२) पास जिणंदा, वामा नंदा, जब गरभे फली। सुपना देखे, अर्थ विशेषे कहे मघवा मली। जिनवर जाया, सुर हुलराया, हुआ रमणी प्रिये। नेमि राजी, चित्र विराजी, विलोकित व्रत लिये ॥
(२४) श्री महावीर जिन स्तुति महावीर जिणंदा, राय सिद्धार्थ नंदा, लंछन मृग-इन्दा, जास पाये सोहंदा; सुर नरवर इन्दा, नित्य सेवा करंदा, - टाले भवफंदा, सुख आपे अमंदा ॥१॥ ,
(२) जय जय भवि-हितकर, वीर-जिनेश्वर देव सुर नरना नायक, जेहनी सारे सेव; करुणारस कंदो, वंदो आणंद आणी, त्रिशला-सुत सुंदर, गुणमणि केरो खाणी ॥ १ ॥
वीज तिथि का स्तुति दिन सकल मनोहर, बीज दिवस सुविशेष राय राणा प्रणमें, चंद्र तणी जिहां रेख तिहां चंन्द्र विमाने, शाश्वता जिनवर जेह हुँ बीज तणे दिन,- प्रणमुं. आणी नेह
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[ १३४ ]
पंचमी का स्तुति श्रावण सुदि दिन पंचमीए, जनम्या नेमि जिणंद तो; श्याम वरण तनुं शोभतुं ए, मुख शारद को चंद तो; सहस वरस प्रभु आऊ ए, ब्रह्मचारी भगवंत तो; अष्ट करम हेले हणीए, पहोता मुक्ति महंत तो;
अष्टमी का स्तुति
मंगल आठ करी जस आगल, भाव घरी सुरराजजी आठ जातिना कलश करीने, न्हवरावे जिनराजजी वीर जिनेश्वर जन्म महोत्सव, करतां शिव सुख वाघे जी, आठ मनु तप करतां अमघर, मंगल कमला वाघे जी
एकादशी का स्तुति
एकादशी अति रुडी, गोविंद पुछे नेम कोण कार ए पर्व महोटु, कहो मुज शु तेम जिनवर कल्याणक अति, घणां एकसो ने पचास तिणे कारण ए पर्व महोटुं, करो मौन उपवास
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भावना
सरसशांति सुधारससागरं शुचितरं गुणरत्न महागरं, भविक पंकज बोध दिवाकरं प्रतिदिनं प्रणमामि जिनेश्वरं
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हे प्रभु आनन्द दाता ज्ञान हमको दीजीये शीघ्र सारे दुर्गणों को दूर हमसे कीजीये लीजीये हमको शरणमें हम सदाचारी बने ब्रह्मचारी धर्म रक्षक वीर व्रत धारी बने भगवान हमारी लाज रखना आपही के हाथ है कर कृपा अति शीघ्र हमको शुद्ध बुद्धि दीजीए हे प्रभु आनन्द दांता ज्ञान हमको दीजीए
भक्ता भरप्रणत मौलिमणि प्रभाणा, मुद्योतकं दलितपापतमो वितानाम सभ्यक् प्रणम्य जिनपादयुगं युगादा, वालम्बनं भवजले पततां जनानाम यः संस्तुतः सकलवाअंगमयतत्ववोधा, दुद्भूत बुद्धिपटुभिः सुरलोकनाथैः स्तोत्रैर्जगत्रितय चित्तहरे रूदारैः स्तोष्यै किलाहमपि तं प्रथमं जिनेन्द्रम् बुद्धस्त्वमेव विबुधार्चित ! बुद्धिबोधात् स्वं शङ्करोऽ
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[ १३६ ] सि भुवनत्रयशङ्करत्वान धासा'स धीर ! शिवमार्ग विधे विधानात्
व्यत्कं त्वमेव भगवन पुरूषोतमोसि तुम्यं नमस्त्रिभुवनातिहराय नाथ । तुम्यं नमः क्षितितलामल भूषणाय । तुम्यं नमस्त्रिजगतः परमेश्वराय तुम्यं नमोजिन ! भवोदधिशोषणाय !
- - आव्यो शरणे तुमारी जिनवर करजो आश पूरी अमारी नाव्यो भवपार मारो प्रभुविण जगमा सारले कोण मारी गायो जिनराज आजे हर्ष अधिक थी परम जानंद कारी पायो प्रभु दर्शनासे भवभव भ्रमणा नाथ सर्वे हमारी
अर्हद् वकत्रं प्रसूतं गणधर रचितं द्वादशांगं विशालं चित्रं बह. युकतं मुनिगण वृषभरितं बुद्धि मदभिः मोक्षारद्वारभूतं व्रतचरण फलं ज्ञयभाव प्रदीपं भक्त्या नित्यं प्रपद्ये श्रुतमहमखिलं सर्वलोकैकसारम निष्पंक व्योमनील घुतिमल सहशं बालचन्द्राम दंस्ट्र मत घटाश्वेण प्रसूतमदजलं, पूरयन्तं समतात् आरुढो दिव्यनागं विचरति गगने, कामदः कामरुपी यक्षः सर्वानुभूति दिर्शनुममसदा, सर्व कार्येषु सिद्धिम्
- - प्रभु हमारी भावना पूरण हो (२) श्री सम्मेत शिखरजी का जिर्ण उद्धार हो शाशन दोष निवारण हो,
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[ १३७ ] श्री शाशन देव से विनती हमारी . शुभकार्य में सहायक सदाय बनो • प्रभु हमारी
-.भवोभव तुम चरणोनी सेवा मांगु छु देवाधिदेवा सामु जुओने सेवक जाणी सामु जुओ ने आ बालक जाणी बालक जाणी तारो टाबर जाणी अवी उदय रत्ननी वाणी
-०वली वली विनवं स्वामी ने नित प्रत्ये तुंहीज देव रे सुद्ध आशय पणे मुज हजो भवोभव ताहरी सवेरे भक्ति अमचित साचोधरी
उत्सव रंग वधामणा प्रभुपार्श्वने नामे कल्याणक उत्सव कीयो चढते परिणामे शतवर्षायु जीवीने अक्षय सुख स्वामी तुमपद सेवा भक्तिमा नविराखुहुँ खामी साची भक्ति साहिबा रीझो अक वेला श्री शुभवीर हुसे सदा मन वांछित मेला उत्सव रंग वधामणा प्रभु पाईने नामे
-०आज मारा देरासरमां मीतीडे मेह वरस्यिा रे मुखड़े देखी प्रभुजी तुमार हैडा सहुना हरख्या रे झगमग झगमग ज्योति जलके वरसे अमीरस धारा रे
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[ १३८ ] तारु रुप अनुपम निरखी विकसे अंतरभाव अमारा रे माराभव अनंतनो बंघ ज तुट्यो भ्रमणां मांगी अमारी रे ताराचरण कमलनी सेवा पामी भकते प्रभुगुण गाया रे आज मारा देशसरमां मोतीडे मेह वरस्या रे
ताहरे खोट खजाने को नही दीजी वांछीत दानो रे करुणा नजरे प्रभुजी तणी वाधे सेवक वानो रे देशोतो तुमही भला बीजा तो नवि जाचं रे वाचक जश कहे साइंशु फलसे मे मुज साचुं रे संभव जिनवर विनती वाला चोवीस जिणंज शुं विनती
श्री तीरथे ध्यावो गुण मावो पचरंगी रयण मोलावो रे थालभरी भरी भोती डे वघावो गुण अनंता दील लावो रे श्री तीरथ पद पुजो गुणी जन जेहथी तरीओ तीरथ रे भलं थयुं ने में प्रभु गुण गाया रसनानो रस लीघोरे रावण राये नाटक की, अष्टापद गीरी उपर रे थैया थैया नाटक करतां तीर्थकर पद बांध्यु रे देवचंद कहेमारा मननां सकल मनोरथ सीध्या रे भलं थयु ने में प्रभु गुण गाया
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[ १३६ ] सिद्धाचलनावांसी विमलाचलनावासी जिनजीप्यारा
आदिनाथने वंदन हमारा प्रभुजी - मुखहुँ मलके नयनो मांथो वरसे अमीरस घारां
आदिनाथने वंदन हमारा प्रभुजी - मुखड़े छ मलीक मीलाकर
दीलमां भक्तिनी ज्योत जगाकर भजले प्रभु ने भावे दुर्गति कदी न आवे
जीनजी प्यारा आदिनाथने वंदन हमारा भमीने लाख चौरासी हुं आव्यो
पुण्ये दर्शन तुमारा हुँ पायो धन्य दिवश मारो भवना केरा टालो
जीनजी प्यारा आदिनाथने वंदन हमारा अमे तो माया ना विलासी
___ तुमे तो मुक्ति पूरी नावासी
तुमे तो शोवनगरो ना रहेवासी कर्म बंधन कापो मोक्ष सुख आपो
जीनजी प्यारा आदिनाथने वंदन हमारा अरजी उरमा घरजो अमारी
प्रभुजी ले जो अमने उगारी
अमने आशा छे प्रभुजी तुमारी कहे हर्ष हवेसाचा स्वामो तमे वन्दनःकरीओ अमे पूजन करीअअमे
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[ १४०
जीनजी प्यारा आदिनाथने वंदन हमारा सिघाचलनावासी, विमलचलनावासी
. कंचनगीरीनावासी, रैवतगीरीना वासी
साश्वतगीरीना वासी, शेव्रुजयगीरीना वासी पुंडरीकगीरीना वासी, अष्टापदगीरीना वासी
चोवीस जीनजी ने वंदन हमारा पुरुषादाणी पार्श्वनाथने वंदन हमारा
आज मारा अंतर पटमां पार्श्व प्रभुजी पधारो रे भक्ति करु हु साचा भावे तुम विण आरे न ध्याबु रे काल अनादि बहु दुःख पाम्यो अब तो प्रभुजी तारो रे तुहीज साचो देव दयालु भविजन ने मन भाव्यो रे चारगतिमां नाच करता हु तो प्रभुजी थाक्यो रे चार कशायो दुर करीने अष्ट कर्म ने कापा रे शरणे आव्यो आज तुमारे प्रभुजी मुजने राखो रे शीवनगरी नही देखाडोतो पालवडो तही छोड्ड रे सुरेन्द्र स्वामी पाय नमी कहुं विनतडी अवधारा रे राजेन्द्र विनवे महरे करी ने सिद्धि वधु परणावो रे
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-
०
प्रभुतारा नाम हजारने आठ क्यानामे लखवी कंकोतरी
हे वहाला तारां नाम अनेका अनेक-क्यानामे०
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[ १४१ ] हे प्रभु तारां धामतो गामो गाम-क्यानामे०
कोई कहे शंखेश्वर पार्श्व कोई कहे शामलीयो हे आतो माहरो वहालो जीरावलो पार्श्व-क्यानामे०
तुल्लापट्टीना जैन मंदीरमा पुरुषादाणी हो पारसनाथ क्या० धरणेन्द देव देवी पदमावती रे मानजो हमारो धर्म स्नेह क्यानामे०
साहिबा हुँ तुम पगनी मोजडी साहिबा हुँ तुम दासनो दास साहिबा ज्ञान विमल सुरी अभभणे साहिबा मने राखो तुमारी पास अकवार मलो ने मोरा साहिबा साहिबा तमे प्रभु देवाधिदेव सनमुख जुओ ने मोरा साहिबा साहिबा मन सुद्ध करुं तुम सेव अकवार मलो ने मोरा साहीबा
-०यु अवसर बेर बेर नहीं आवे।। ज्यु जाणे त्यु करले भलाई जनम जनम सुख पावे । अवसर० तनधन जोबन सबही झठो प्राण पलक में जावे। अवसर० तन छुटे धन कोन कामको, काहे कृपण कहावे। अवसर० जाके दिल में साच बसत है ताकुं झूठ न भावे । अवस १० आनन्दधन प्रभु चलत पंथ में सुमर सुमर गुण गावे। अवसर
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[ १४२ ]
कोयल टहुँक रही मधुबन में, पार्श्व प्रभुजी बसो मेरे दिल में काशी देश बनारसी नगरी, जन्म लियो प्रभु क्षत्रिय कुल में बालपने प्रभु अदभुत ज्ञानी, सुरपति नाग कियो एक छिन में दिक्षा ले प्रमु विचरन लागे, भीज गये संजम एक रंग में सम्मत शिखर प्रभु मुक्ति पधारे, प्रभुजी की महिमा तीन भुवन उदयरतन की येही अरज है, दिल अटक्यो तेरे चरन - कमल में
में
.
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प्रभु आप अवीचल नामी छो गुण गमी छो विशरामी छो ने अक्षय शुखना घामी छो अमने अजय सुख आपोने । प्रभु० आ भववनमां भमतां भमतां बहु काल गयो रमता रमतां अंते आव्यो तमने नमतां अमने अभय सुख आपोनो । प्रभु आ नाव हमारु भरदरीये तुं तारे तो स्हेजे तरीये बीजे क्या जइने करगरीओ अमने अक्षय सुख आपोने । प्रभु० तुज मुरती छे मोहनगारी भवभवना संकट हरनारी हे श्याम जीवन आप सुधारी अमने अक्षय सुख आपोने । प्रभु०
बधाई
दीनानाथजी बधाई बाजे छे, मारा प्रभुनी बधाई बाजे छे, शरणाई सुर नोबत बाजे, ओर घनननन गाजे छे । मारा० ॥१॥ इन्द्राणी मिल मंगल गावे, मोतीयोना चोक पुरावे छे । मा० ॥२ सेवक प्रभुजीशं अरज करत है, चरणोनी सेवा प्यारी लागे छे | मारा० ||३||
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[ १४३ ] प्रभु सन्मुख बोलने की स्तुति देखी मूर्ति आदि जिननी नेत्र मारां ठरे छे, ने आ हैयुफरी फरी प्रभु ध्यान तारुं धरे छ; आत्मा मारो प्रभु तुज कने आपवा उल्लसे छे आपो एवं बल हृदयमां माहरी आश ए छ;
दीक्षा ग्रही प्रथम तीर्थ तमे ज स्थाप्यु, कई भव्थनु कठिन दुःख अनंत काप्यु एवा प्रभु प्रणभी मे प्रण ये तमोने; मेवा प्रभु शिवतणा अर्पो' अमोने;
छे प्रतिमा मनोहारिणी दुःख हरी श्री वीर जिणंदनी; भकतो ने छे सर्वदा सुख करी जाणे खीली चांदनी, आ प्रतिमाना गुण भाव धरीने जे माणसो गाय छे पामि सघला सुख ते जगतना मुक्ति भणी जाय छ
त्हाराथी न समर्थ अन्य दोननो उधारनारो प्रभु, म्हाराथी नहि अन्य पात्र जगमां जोतां जडे हे विभु, मुकित मंगल स्थान? तोय मुजने इच्छा न लक्ष्मीतणो, आपो सम्यग रत्न श्यामजीवने तो तृप्ति थासे धणी;
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[ १४४ ]
वीर प्रभुना चरणने प्रणमी विनयथी उच्चरु, मलजो भवोभवताहरु शासन त्रिपुटी निर्मलु, आराधना दूरे रहो पण राग शासननो मने, भव सिन्धु पार उतारशे एह निश्चय मुज मने,
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जे द्रष्टि प्रभु दर्शन करे ते द्रष्टिने पण धन्य छे; जे जीभ जिनवरने स्तवे ते जीभने पण धन्य छे; पीये मुदा वाणी सुधा ते कर्ण युगने धन्य छे; तुज नाम मंत्र विशद घरे, ते हृदयने नित धन्य छे;
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जे प्रभुना अवतारथी अवनिमां, शांति बधे व्यापती, जे प्रभुनी सुप्रसन्नने अमी भरी द्रष्टि दुःखो कापती, जे प्रभु ए भर यौवने व्रत ग्रही, त्यागी बघी अंगना ते तारक जिनदेवना चरणमां, हो जो सदा वंदना
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सुण्या हशे पूज्या हशे निरख्या हशे पण को क्षणे हे जगत बन्धु चित्तमां घार्या नहीं भक्ति पणे, जनम्यो प्रभु ते कारणे दुःख पात्र हुँ संसारमा, हा भक्ति ते फलती नथी जे भाव शून्याचारमां
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________________ NRALLARAPARALLLLLARAAL नननननननननननननननननननननननननननननन आध्यात्मिक चितन का रसथाल क्या आपको आध्यात्मिक बल बढ़ाना है ? क्या आपको आत्मा का ओजस प्रगटाना है ? क्या आपको तत्वज्ञान को जीवनस्पर्शी बनाना है ? क्या आपको जीवन जीने की कला प्राप्त करनी है ? - _तब "दिव्यदर्शन' साप्ताहिक पढ़ने का आग्रह रखें दिव्यदर्शन साप्ताहिक प्रत्येक शनिवार को प्रगट होता है साल में 48 अंक मिरते हैं ! 'दिव्यदर्शन' साप्ताहिक के वांचन से सबको जीवन लक्ष्य का, स्वकर्तव्य का और जनशासन की बली हारीका का ख्याल आयेगा। "दिव्यदर्शन" ये साप्ताहिक आपको घर बैठे चाहिए ? तब सबको घर बटे पू० पून्यास श्री भानुविजयजी महाराज साहेब का प्रवचनों का साप्ताहिक का आज ही लवाजम रु० 7.50 भर कर ग्राहक बने / लवाजम भरने का ठिकाना कुमारपाल वो शान नगानंदकुमार महेता 68, गुलालव, गला असा 10 शा बरतल्ला स्ट्रीट N बम्बई-४ (कुमार महेता रख तीज तल्ला) बरतल्ला स्ट्रीट असोज तल्ला) लगानं आर.बी. कैलालसागर-मारउद्वानो मेक्षित PMIRRRRRLARLALIARRRRRRRRRRRRRRRRRRRRALA की भी जाना जाताना