________________
[ ११६ ] भोरे भयो समकित रवि उग्यो मीट गइ रयणी अटारी रे मिथ्यातम सम दूर थयुं सर्वे विकसे पंकज वारी रे द्वार तुजारे आन खड़ा है सेवा करे. नरनारी रे दरशन दीजे देव दासन कुजा तुम बलिहारी रे पर उपकारी जग हितकारी दान अभय दातारी रे महेर करी मोहे प्रभु दीजे क्षायिक गुण भंडारी रे दीठी आंत मीठी सभी रस सम सुरत तुम बहु प्यारी रे ऋद्धि कहे कवि रुप विजयना भवोभव तुही आधारी रे
(७) क्युकर भक्ति करुं प्रभु तेरी॥ क्रोध लाभ मद मान विषय रस, छोडत गेल मेरी ॥१॥ क नचावे तिम ही नाचत, माया वश नट चेरो ॥२॥ दृष्टि राग दृढ़ बंधन बान्ध्यो, निकसन न रही सेरी ॥३॥ करत प्रशंसा सब मिल अपनी, पर निंदा अधिकरी ॥४॥ कहत मान जिन भाव भक्ति बिन; शिव गति होत न मेरी।५॥
(८) होई आनन्द बहार रे प्रभु बैठे मगन में । होई० अष्टादश दूषण नहीं जिनमें प्रभु गुण धारे बार रे॥१॥प्रभु० चौतसि अतिशय पैंतीस वाणी, जगजीवन हितकार रे ॥२प्रभु शाम्त रूप मुद्रा प्रभु प्यारी देखो सब नर नार रे ॥३॥प्रभु० आनन्द थावो प्रभु गुण गावो, मुख बोलो जयकार ॥४॥प्रभु० प्रभु भक्ति से वल्लभ होवे, आनन्द हर्ष अपार रे॥५॥प्रभु०