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घणेरा, चउमुख बिंब अनेक; बावन जिनालय देवल निरखी, हरश्व लहुँ अतिरेक ॥ तुमे तो० ॥५॥ सहस्त्रफणा ने शामला पासजी, समवसरण मंडाण छीपावसी ने खरतरवसी कांई, प्रेमवसी परमाण ॥ तुमे तो•॥६॥ संवत अढार ओगण पच्चासे, फागण अष्टमी दिन उज्ज्वल पक्षे उज्ज्वल हुओ कांई, गिरि करस्या मुज मन ॥ तुमे तो० ॥७॥ इत्यादिक जिन विंब निहालो, सांभली सिद्धनी श्रेण; उत्तम गिरिवर केणी पेरे विसरे, पविजय कहे जेण तुमे तो० ॥८॥
प्रथम जिनेश्वर प्रणमी, जास सुगंधी रे काय; कल्पवृक्ष परे तास इंद्राणी नयन जे, भृग परे लपटाय ॥१॥ रोग उरग तुअ नवि नडे, अमृत आस्वाद; तेहथी प्रतिहत तेह मानुं कोई नवि करे, जगमां तुमशुं रे वाद ॥२॥ बगर घोई तुज निरमली काया कंचनवान; नही प्रस्वेद लगार तारे तुं तेहने, जे धरे ताहरु ध्यान ॥३।। राग गयो तुज मन थकी तेहमां चित्र न कोय; रूधिर आमिषथी राग गयो तुज जन्म थी, दूध सहोदर होय ॥४॥ श्वासोश्वास कमल समो, तुज लोकोत्तर वात, देखे न आहार निहार चर्म चक्षु घणी, अहवा तुज अवदात ॥५॥ चार अतिशय मूलथी, ओगणीश देवना कीच, कर्म खप्या थी अग्यार चोत्रीश ईम अतिशया, समवायोगे प्रसिद्ध ॥६॥ जिन उत्तम गुण गावतां, गुण आवे निज अंग, पद्मविजय कहे अह -समय प्रभु पालजो, जेम थाउं अक्षय अभंग ॥ प्रथम ॥७॥