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[ ५० ] . (२) श्री अजित जिन स्तवन
अजित जिणंदशु प्रीतडी मुज न गमे हो बीजानो संग के, मालती फूले मोहीयो, किम बेसे हो बावल तरु भृग के ॥ अजित ॥१॥ गंगा जलमा जे रम्या, किम छिललर हो रति पामे मराल के; सरोवर जलवर जल विना, नवि चाहे हो जेम चातक बाल के ॥ अजित ॥२॥ कोकिल कल कुजित करे, पामी मंजरी हो पंजरी सहकार के, आछां तरुवर नवि गमे, गिरआशुं हो होये गुणनो प्यार के ॥ अजितः ॥ ३ ॥ कमलिनी दिनकर कर ग्रहे वली कुमुदिनी हो घरे चदशु प्रोत के, गौरी गिरिश गिरिधर विना, नवि चाहे हो कमला निज चित्त के ॥ अजित० ॥ ४॥ तिम प्रभुशुं मुझ मन रम्यु, बीजाशुं हो नहि आवे दाय के, श्री नय विजय विबुध तणो, वाचक जस हो नित नित गुण गाय के ॥ अजित० ॥ ५॥
(२) प्रीतलडी बंधाणी रे अजित जिण दशु, प्रभु पाखे क्षण एक मने न सुहाय जो, ध्याननी ताली रे लागी नेहशुं जलद-घटा जिम शिवसुत-वाहन दाय जो ॥ प्रोतलडी० ॥१॥ नेह धेलं मन मारु रे प्रभु अलजे रहे, तन मन धन ओ कारणयी प्रभु मुझ जो, म्हारे तो आधार रे साहिब रावलो, अंतरगतनी प्रभु आगल कहुँ गुज्ज जो ॥ प्रीतलड़ी० ॥ २॥ साहेब ते साची रे जगमां जाणीए, सेवकनां जे सहेजे सुधारे काज जो; अहवे रे आचरणे केम करी रहुं,