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( १६ )
त्रोटक
गछ मंदर शिखर ऊपर भुवन जीवन जिन तणों। जिन जन्म उच्छवकरण कारण आवज्यो सवि सुर गणों ।। तुम शुद्ध समकित थास्यें निर्मल । देवाधिदेव निहालतां । आपणा पातिक सर्व जास्य नाथ चरण पखालतां ॥
ढाल इम सांभलिजी, सुरवरकोड़ी बहु मिली। जिन वंदनजी, मन्दर साहमी चली। सोहमपतिजी, जिन जननी घर आविया । जिनमाताजी, वंदी स्वामी वधाविया ।
ढाल बधाविया जिनवर हर्ष बहुलै धन्य हूँ कृत पुण्य ए। त्रैलोक्य नायक देव दीठा मुझ समोकुण अन्य ए॥ हे जगत जननी पुत्र तुमचो मेरु मज्जन वर करी । उछग तुम चै वालिय थापिस अत्मां पुन्य भरी॥
ढाल सुरनायकजी, जिन निजकर कमले ठव्या। पांचरूपेजी, अतिशय महिमायें स्तव्या।। नाटकविधजी तव बत्तीस आगल बहै। सुरकोडीजी, जिन दरशणनें ऊम है।