________________
( १७ )
त्रोटक
सुरकोडा कोड़ी नाचती वलि नाथ शुचि गुण गावती। अपछरा कोड़ी हाथ जोड़ी; हाव भाव दिखावती ॥ जय जयो तूं जिनराज जग गुरु एम दे आसीस ए। अमत्राण शरण आधार, जीवन एक तूं जगदीस ए।
ढाल
सुर गिरवरजी, पांडुक वन में चिहुँ दिसें। गिरि शिलपरजी, सिंहासन सासय वसे ।। तिहांआणीजी, शक्र जिन खोले ग्रह्मा। चउसठेजी तिहां सुरपति आवी रह्या ॥
त्रोटक
आविया सुरपति सर्व भगत कलश श्रेणि बणावए । सिद्धार्थ पमुहा तीर्थ औषधि सर्व वस्तु अणावए । अच्चुयपति तिहां हुकुम कीनो देव कोड़ा कोड़ी ने । जिन मज्जनारथे नीर लाओ सबै सुरकर जोडिने ।।
( जल का कलश लेकर खड़े रहें और पढ़ें) ॥ शांति ने कारण इन्द्र कलश भरे-ए देवी।।