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ढाल आत्म साधन रसी देव कोड़ी हसी।
उल्लसी ने धसी खीर सागर दिशी। पउमदह आदि दह गंग पमुहा नई।
तीर्थ जल अमल लेवा भणी ते गई। आति अड़ कलश करि सहस अठोत्तरा।
छत्र चामर सिंहासणे शुभ तरा॥ उप्पगरण पुफ्फ चगेरि पमुहा सवें।।
आगमें भासिया तेम आणि ठवें तीर्थ जल भरिय करि कलश करि देवता ।
गावता भावता धर्म उन्नति रवा ।। तिरिय नर अमरनें हर्ष उपजवता ।
घन्य श्रम शक्ति शुचि भक्ति इम भावता । समकितें बीज निजआत्म आरोपतां ।
कलश पाणी मिस भक्ति जल सींचता। मेरु सिंह रोबरे सर्व आव्या वही।
शक्र उच्छण्ड जिन देखि मन गहगही।
गाथा हंहो देवा अणाई कालो, अदिट्ठ पुब्वो तिलोय कारण । तिलोय बन्धु मिच्छन मोह बिद्धसणे । आणाइति हण विणा सणों, देवाहि देवो दिद्वन्वो हिय कामेहिं ।।