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. (२) तार हो तार प्रभु ! मुज सेवक भणी, जगतमां बेटलं सुजस ली, दास अवगुण मर्यों जागी पोतातणो, दयानिधि ! दीन पर दया कीजे तार • ॥१॥राग द्वषे भर्यो मोह बेरी नडयो; लोकनी रीलिमा घणुये रातो; क्रोध क्श घमघम्यो, शुद्ध गुण नवि रम्यो, भन्यों मव-- मांही हुँ विषयमातो-तार • ॥२॥ आदर्यु आचरण लोक उपचा-- रथी, शास्त्र अभ्यास पण कांइ कीघो; श्रद्धान वली आत्म अवलंब विण, तेहको कार्य तिणे को न सीघो-तार ॥३॥ स्वामी दरिशण समो निमित लही निर्मलो, जो उपादान ओ शुचि न था; दोष को वस्तुनो अहवा उधमतणो, स्वामी सेवा सहि निकट लाशेतार ० ॥ ४ ॥ स्वामी गुण ओलखी स्वामी ने जे भजे, दरिशन शुद्धता तेह पामे; ज्ञान चरित्र तप वीयं उल्लास थी, कर्म जीपी क्से मुक्ति धामे-तार ॥ ५ ॥ जगतवत्सल महावीर जिनवर सुणी, चित्त प्रभु चरण ने शरण वास्यो; तारजो बापजी ! बिरुद निज राखवा, दासनी सेवना रखे जोशो -तार० ॥ ६ ॥ विनति मानजो, शक्ति ए आपजी, भावस्याद्धदता शुद्ध भासे; साधी साधक दशा सिद्धता अनुभवी, देवचन्द्र विमल प्रभुता प्रकाशे - तार • ॥७॥
(३) तेरो दरस मन भायो; चरम जिन ! तेरो दरस मन भायो; तुं प्रभु ! करुणारसमय स्वामी, गर्भ में सोग मोटायो; त्रिशला माता को आनन्द दीनो, ज्ञातानन्दन जमगायो॥चरम०॥१॥