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( २१ ) मेरू शिखर नवरावे हो सुरपति ॥ मेरू० ॥ जन्मकाल जिनवरजी को जाली, पंचरूप करि आवे हो सुरपति ।मेरू०॥ क्षीर समुद्र तीर्थोदक आणी, स्नात्रकरि गुणगावे हो सुरपति ।मेरू । रत्न प्रमुख अडजातिना फलशा, औषधि चूरण मिलावे हो सुरपसि।मेरू०॥ जिन प्रतिमाजी को नृवण फरोने, बोव बीज मन भावे हो सुरपति॥मेरू०।। अनुक्रमे गुण रत्नाकर करसी, जिन उत्तम पद पावे हो सुरपति॥मेरू०।।
राग वेलाक्ल इम पूजा भगतें करो, आतमहित काज । तजिय विभव निज भावना, रमतां शिवराज ॥ इम पूजा ॥१॥
___ काल अनंतें जे हुवा, होस्यं जेह । जिणंद संपई सीमंधर प्रभु, केवल नाण दिणंद ॥ इम पूजा ॥२॥
जन्म महोच्छव इण परै, श्रावक रूचिवंत ।। विरचै जिन प्रतिमा तणों, अनुमोदन खंत्त ॥ इस पूजा ॥३॥
देवचन्द जिन पूजना, करतां भव पार। जिन पडिमा जिन सारखी, कही सूल मझार ॥ इम पूजा ॥४॥
॥ इति स्नात्र पूजा ।।
श्री अष्टप्रकारी पूजा विमल केवल भासन भास्कर, जगति जंतु महोदय कारणं। जिनवरं बहुमान जलौघतः, शुचिमनः स्नययामि विशुद्धये ।।