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( अजित जिणंदशु प्रीतडी- अदेशी ) श्री सुपास जिन साहिबा, सुणो विनति हो प्रभु परम कृपाल के समकित सुखडी आपीये, दुःख कापिये हो जिन दयाल के
॥श्री सु०॥१॥ मौन घरी बैठा तुमे, नचिंता हो प्रभु थईने नाथ के; हूं तो आतुर अति उतावलो, मांगु छुहो जोड़ी दोय हाथ के
॥श्री सु० ॥२॥ सुगुणा साहिब तुम विना, कुण करशे हो सेवकनी सार के; आखर तुम हीज आपशो, तो शाने हो करो छो वार के
॥श्री सु० ॥ ३ ॥ मनमां विमासी शु रहया, अंश ओछु हो ते होय महाराज के; निरगुण ने गुण आपतां, ते वाते हो नहि प्रभु लाज के
॥श्री सु० ॥ ४ ॥ मोटा पासे मांगे सहु, कुण करशे हो खोटानी आस के दाताने देतां वधे धणु कृपणने हो होय तेहनो नाश के
॥श्री सु० ॥५॥ कृपा करी सामु जो जूओ, तो भांजे हो मुज कर्मनी जाल के उत्तर साधक उमा थकां, जिम विद्या हो सिद्ध होय तत्काल के
॥श्री सु० ॥ ६ ॥ जाण आगल कहेवु किश्यु, पण अरथी हो करे अरदास के; श्री खिमा विजय पय सेवतां, जस लहीये हो प्रभु नामे खास के
॥ श्री सु० ॥ ७ ॥